Friday 26 February 2010

हुसैन: अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतंत्र





विचारक, समाजसुधारक, वैज्ञानिक, राजनेता, सामाजिक कार्यकता समाज को बदलते हैं और इसमें कलाकारों की भी भूमिका को स्वीकार किया जाता रहा है। लेकिन हाल के वर्षों में इस बात का रोना रोया जाता रहा है कि कलाकारों-साहित्यकारों का समाज में कद घट गया है और समाज को निर्देशित करने में उनकी भूमिका नगण्य होती जा रही है। पेंटिंग, नाटक, कविता, कहानी-उपन्यास, गायन, फिल्म आदि से जुड़े लोगों को समाज के मुख्य अंग के रूप में नहीं बल्कि अलंकार के रूप में देखा जाता है। समाज में यदि सब कुछ ठीक-ठाक है तो कला भी हो जाये का नजरिया आम है। साहित्य में सार्वजनिक तौर पर यह कहकर तमाम मलामतें की जाती हैं कि साहब, साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल होना चाहिए था किन्तु वह तो राजनीति का पिछलग्गू हो गया है।
इधर, राजनीति की तटस्थ आलोचना का दौर नहीं रह गया है और राजनीति की आलोचना का विवेक खेमे तय करते हैं और एक राजनीतिक दल अपने प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल की आलोचना तक ही अपने को सीमित रखते हैं किन्तु व्यक्ति द्वारा राजनीतिक दल की आलोचना की आवाज कम सुनायी देती है जिससे तटस्थता का घोर संकट दिखायी दे रहा है। यह काम साहित्य और अन्य कलाएं कर सकती हैं, कर भी रही हैं।
मशहूर चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन, लेखिका तसलीमा नसरीन, फिल्म अभिनेता शाहरुख खान, उपन्यासकार सलमान रुश्दी आदि के प्रसंग में यह गौर करने की बात है कि धार्मिक कट्टरता से इन्हें लोहा लेना पड़ रहा है और इन कलाकारों के वक्तव्य किन्हीं अन्य क्षेत्र से जुड़े लोगों की तुलना में अधिक प्रतिक्रिया पैदा कर रहे हैं। इन कलाकारों की अभिव्यक्ति से सरकारें हिल जा रही हैं चिन्तित और परेशान हो जा रही हैं, राजनीतिक दलों को अपने एजेंडों में फेरबदल करने की आवश्यकता महसूस होने लगती है। तसलीमा नसरीन का मामला देखें तो पता चलता है कि उस तसलीमा नसरीन को राजनीतिक दबाव में वह कोलकाता छोडऩा पड़ता है, जिसे वे अपना घर ही मानतीं हैं और देशदुनिया में जहां कहीं वे बसना चाहती हैं उनमें केवल एक शहर कोलकाता और सिर्फ कोलकाता है। एमएफ हुसैन को उम्र के अंतिम पड़ाव में अपना देश छोड़कर विदेश में रहना पड़ता है और सलमान रुश्दी को इतने समय तक छिप कर रहना पड़ता है कि उनका पारिवारिक जीवन ही छिन्न-भिन्न हो उठता है। सलमान खान को बार-बार यह कहना पड़ता है कि देश के प्रति उनकी वफादारी असंदिग्ध है।
शाहरुख प्रकरण ने महाराष्ट्र के कट्टरपंथियों की हवा निकाल दी तो अब एमएफ हुसैन को लेकर हिन्दुत्व की राजनीति में भी परिवर्तन घटित हो रहा है। हिंदू देवी देवताओं की आपत्तिजनक चित्र बनाने को लेकर हुसैन का हिंदूवादी संगठनों से खासा विवाद रहा है और इसके चलते वे इन दिनों दुबई और लंदन में रह रहे हैं। अब उन्हें कतर की नागरिकता प्रदान की गई है। हुसैन के प्रकरण को लेकर हिन्दूवादी संगठनों को दुनिया भर में भद पिट रही है। और सिर्फ़ हिन्दूवादी संगठनों की नहीं बल्कि समूचे भारत की, जिसकी सरकार एक कलाकार की अभिव्यक्ति की आज़ादी सुनिश्चित नहीं कर पा रही है। यह लाचारी उस मानसिकता व दबाव के कारण आयी है जहां धर्म राजनीतिक वोटबैंक है। दुनिया भर में इससे संदेश जा रहा है कि भारत की सरकार कट्टरपंथी ताकतों के आगे घुटने टेके हुए है जिसके कारण अभिव्यक्ति की आज़ादी खतरे में है।
खुद हुसैन ने अपनी एक पेंटिग के साथ ये लिखा है कि.. मैं भारतीय मूल का चित्रकार एम एफ हुसैन, को 95 साल की उम्र में कतर की नागरिकता प्रदान की गई है। एक अंग्रेजी अखबार में छपी इस पेंटिग के साथ ही हुसैन ने ये भी कहा है कि उन्होंने किसी भी देश की नागरिकता के लिए आवेदन नहीं किया था।
कहने का मतलब यह कि जो देश अपने नागरिकों को अभिव्यक्ति की आजादी नहीं दे सकता उसके लोकतांत्रिक होने के औचित्य पर विचार किया जाना चाहिए। लोकतंत्र में दूसरों की भावनाओं का खयाल रखने की उम्मीद तो की जानी चाहिए लेकिन अपनी बात कहने का आजादी सर्वोपरि है, यह नहीं भूलना चाहिए। एक कलाकार के रूप में हुसैन के लिए क़तर ही नहीं, दुनियाभर के दरवाज़े खुले हैं पर क्या हमें यह नहीं विचार करना चाहिए कि हम अपने एक महान कलाकार को खोकर क्या पायेंगे? एक कट्टरपंथी चेहरा लेकर हम दुनिया को समानता का पाठ नहीं पढ़ा सकते और ना ही विश्व के अगुआ देश की भूमिका का निर्वाह करने की योग्यता रखेंगे।
यह तो अच्छा है कि कतर प्रकरण के बाद संघ ने हुसैन को लेकर अपना सुर बदला है। तिरुवनंतपुरम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा है हुसैन यदि देश में रहने के लिए आते हैं और अपनी चित्रकारी को जारी रखते हैं तो आरएसएस की तरफ से उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें देश और देशवासियों की भावनाओं की आहत नहीं करना चाहिए तथा समाज की सोच को समझना चाहिए। भागवत ने कहा कि हर कलाकार को काम करने की स्वतंत्रता है लेकिन उनकी कुछ सीमाएं होनी चाहिए तथा उन्हें समाज के लोगों की भावनाओं को आहत नहीं करना चाहिए। अब यह काम भागवत जी कलाकारों पर ही छोड़ दें तो अच्छा होगा कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं! नैतिक गुरुओं की सलाह पर न तो कोई कलाकार कुछ रचता है और ना ही उसे रचना चाहिए। यदि बनी बनायी नैतकिताओं पर कदमताल जारी रहा तो नयी नैतिकताओं का निर्माण कौन करेगा? तसलीमा ने तो लोगों की भावनाओं की कद्र करते हुए अपनी रचना से विवादास्पद हिस्से हटा दिये थे जिससे लोगों की भावनाएं आहत हो रही थीं लेकिन उससे क्या हुआ। क्या उनके प्रति प्रतिरोध कम हुआ? क्या उनकी कोलकाता वापसी हो पायी? कट्टरपंथियों का मुकाबला विचार से ही हो सकता है, समाज में खुले मन और मानसिकता तैयार किये जाने की आवश्यकता है और जिन विकृतियों पर कलाकार ऊंगली उठाता है उस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। कलाकृतियों को नष्ट करने या उन्हें प्रतिबंधित करने से नहीं कुछ नहीं होने वाला।
सुनते हैं कि हुसैन ने कतर की नागरिकता की पेशकश स्वीकार कर ली है और इसकी प्रक्रिया पूरी होते ही वे भारत के नागरिक नहीं रह जाएंगे। हिंदू देवी देवताओं के अपने चित्रों को लेकर हिंदू संगठनों की नाराजगी झेल रहे हुसैन करीब चार साल से स्वेच्छा से निर्वासित जीवन बिता रहे हैं। उनके बेटे ओवैस हुसैन ने बताया कि उनके पिता ने कतर की नागरिकता की पेशकश मंजूर कर ली है। भारतीय कानून दोहरी नागरिकता की इजाजत नहीं देते और इसलिए कतर के नागरिक बनते ही उनकी भारतीय नागरिकता स्वत: समाप्त हो जाएगी। यह भारत के लचर लोकतांत्रिक इतिहास का एक कलंक ही माना जायेगा। हुसैन क्या किसी भी कलाकार की परिधि देश जैसी सीमाओं से कहीं व्यापक होती है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समक्ष कलाकार कई कई देश कुर्बान कर सकता है। कलाकारों की नागरिकता स्वभावतः वैश्विक होती है।
जापान ने कभी बामियान में बुद्ध की प्रतिमाओं को तोडऩे से तालिबान को रोकने के लिए उसके सामने इन्हें छिपाने की पेशकश की थी, लेकिन इस कट्टरपंथी संगठन ने जापानियों को इस्लाम कबूल करने की सलाह दे डाली। तालिबान के शासन में पाकिस्तान में अफगानिस्तान के राजदूत रहे अब्दुल सलाम जईफ ने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि जापान तालिबान पर दबाव बनाने वाला सबसे सक्रिय देश था ताकि 2001 में 1500 साल पुरानी प्रतिमाओं को तोडऩे से उसे रोका जा सके। अमेरिका में प्रकाशित जईफ के संस्मरण 'माई लाइफ विद तालिबान' में कहा गया है किजापान की तरफ से एक और सलाह दी गयी कि प्रतिमाओं को सिर से लेकर पैरों तक इस कदर ढक दिया जाए कि किसी को पता न चले कि ये वहां थीं।

Saturday 20 February 2010

शुक्रिया ओबामा! शुक्रिया !!


मेरे पास आज दो अच्छी खबरें हैं एक तो यह कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अस्थायी सीट के लिए एशिया समूह के सभी 53 देशों ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत की उम्मीदवारी का समर्थन किया है। नेपाल, श्रीलंका, अफगानिस्तान और बंगलादेश सहित 19 देशों ने भारत के पक्ष में आवाज उठाई कि उसे सुरक्षा परिषद में स्थान दिया जाना चाहिए।
भारत की उम्मीदवारी को एशिया समूह से बाहर भी व्यापक समर्थन हासिल है। सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यों के पास वीटो पावर होता है। अस्थायी सदस्यों को दो साल के लिए निर्वाचित किया जाता है।
दूसरी इससे अधिक महत्वपूर्ण है वह यह कि अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने दूसरी बार कहा है कि अमरीका को भारत से कड़ी प्रतिस्पर्धा मिल रही है और वह सफल नहीं हो सकता यदि भारत उससे ज्यादा वैज्ञानिक और इंजीनियर पैदा करता है। 19 फरवरी को अपने लास वेगास अभिभाषण में ओमाबा ने कहा कि यदि भारत और दक्षिण कोरिया हमसे ज्यादा वैज्ञानिक एवं इंजीनियर पैदा करते हैं तो हम सफल नहीं हो सकते। यह दूसरा मौका है जबकि ओबामा ने अपने लोगों से कहा कि वे तैयार रहें क्योंकि भारत, चीन और जर्मनी प्रदूषण रहित ऊर्जा प्रौद्योगिकी के मामले में भी आगे बढ़ रहे हैं। इसके पहले भी उन्होंने गणित आदि में भारत के जोर देने को देखकर अपने पिछड़ जाने की चिन्ता जाहिर की थी।
हम ओबामा के शुक्रगुजार हैं कि वे यह मानते हैं कि हम दुनिया भर में दो नम्बर का देश होने की होड़ में नहीं हैं बल्कि एक नम्बर की जगह पर आसीन होने की तैयारी कर रहे हैं। यह क्यों नहीं होगा यदि हम सही तरीके से अपनी बौद्धिक क्षमता का प्रयोग करें।

Wednesday 17 February 2010

पश्चिम बंगालःऔर अन्त में मुस्लिम आरक्षण का टोटका


पश्चिम बंगाल में औद्योगिक विकास के मुद्दे पर चौतरफी विफलता और हालिया लोकसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस के बढ़ते कद से चिन्तित पश्चिम बंगाल सरकार के हाथ से एकाएक मुस्लिम जनाधार भी खिसकता नज़र आ रहा है। आनन-फानन में उसने राज्य की नौकरियों में ओबीसी कोटे में पिछड़े मुसलमान तबके के लोगों के लिए दस फीसदी आरक्षण की घोषणा कर दी है, हालांकि इसको लेकर बहुत विश्वस्त नहीं हुआ जा सकता है कि उसकी यह चाल चुनाव में कामयाब हो जायेगी, क्योंकि यह निर्णय काफी देर से लिया गया। बरसों से नौकरियों में मुस्लिम हितों की अनदेखी की बात सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में खुलकर सामने आ गयी है और देश भर में बंगाल के मुसलमानों की स्थिति एकाएक उजागर हो गयी है, जिसके बाद राज्य का मुस्लिम समुदाय अपनी रणनीति को फिर से निर्धारित करने में जुट गया है।
अब तक राज्य की वामपंथी सरकार केवल साम्प्रदायिक सद्भाव के दावे के भरोसे मुस्लिम समुदाय की हितैषी बनी हुई थी। लेखिका तस्लीमा नसरीन को उनकी रचनात्मक अभिव्यक्ति के चलते राज्य से चलता करने को ही उसने अपनी हालिया उपलब्धि मान लिया था। हालांकि इस पर भी देश और दुनिया भर में उसे अपयश ही हाथ लगा क्योंकि इस मुद्दे से मुस्लिम समुदाय की माली हालत में सुधार का कोई ताल्लुक नहीं है। तस्लीमा का मामला वैचारिक और आस्था का मामला है उनकी हालत में सुधार लाने का नहीं। सबसे बड़ी बात तो यह कि वैचारिक मुद्दों को तरजीह देने वाली सरकार को किसी साहित्यकार की अभिव्यक्ति के अधिकार पर आपत्ति शोभा नहीं देता।
पश्चिम बंगाल सरकार ने रंगनाथ मिश्रा आयोग की अनुशंसाओं पर अमल करते हुए 8 फरवरी को अन्य पिछडे वर्ग के कोटे से मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों में 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा कर दी। इस वर्ग के क्रीमी लेयर को आरक्षण से बाहर रखा गया है। केन्द्र सरकार के कार्रवाई रिपोर्ट तैयार करने से पहले ही राज्य की वामपंथी सरकार ने यह महत्वपूर्ण निर्णय किया है जिसकी घोषणा मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने की। घोषणा के मुताबिक जिन परिवारों की वार्षिक आय साढ़े चार लाख रूपए से कम होगी वे आरक्षण के पात्र होंगे।
मुसलमानों में जो पिछडे हैं, उन्हें सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़े वर्गों के कोटे से 10 प्रतिशत आरक्षण दिया जायेगा। अब तक राज्य में अन्य पिछडे वर्गो के लिए सात प्रतिशत आरक्षण था। अब इस वर्ग में मुसलमानों को 10 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने से अन्य पिछड़े वर्गो का कुल आरक्षण बढ़कर 17 प्रतिशत हो गया है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल सरकार ने जो आंकड़ा सच्चर कमेटी को दिया और वह सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में छप कर आने के बाद उजागर हुआ है, वह चौंकाने वाला है। रिपोर्ट के मुताबिक पश्चिम बंगाल की मुस्लिम आबादी 25.2% है जबकि राज्य की नौकरियों में उनकी हिस्सेदार केवल 2.1% है। जबकि इससे काफी कम मुस्लिम आबादी वाले राज्यों में सरकारी नौकरियों में उनका प्रतिशत काफी अधिक है।
इस सम्बंध में बहुचर्चित राजेंद्र सच्चर कमेटी के सदस्य-सचिव रहे अबु सालेह शरीफ़ ने सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की स्थिति का राज्यवार ब्यौरा प्रस्तुत किया, वह इस प्रकार हैः
मुस्लिम आबादी और सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी
पश्चिम बंगाल-आबादी 25.2% नौकरी 2.1%
केरल- आबादी 24.7% नौकरी 10.4%
उत्तर प्रदेश-आबादी 18.5% नौकरी 5.1%
बिहार-आबादी 16.5% नौकरी 7.6%
असम- आबादी 30.9% नौकरी 11.2%
झारखंड-आबादी 13.8% नौकरी 6.7%
कर्नाटक-आबादी 12.2% नौकरी 8.5%
दिल्ली-आबादी 11.7% नौकरी 3.2%
महाराष्ट्र-आबादी 10.6% नौकरी 4.4%
आंध्रप्रदेश-आबादी 9.2% नौकरी 8.8%
गुजरात-आबादी 9.1% नौकरी 5.4%
तमिलनाडु-आबादी 5.6% नौकरी 3.2%

इस सम्बंध में 10 फरवरी को बुधवार को दिल्ली में नेशनल मूवमेंट फ़ॉर मुस्लिम रिज़र्वेशन (एनएमएमआर) के सम्मेलन में खुल कर चर्चा हुई जिसमें देशभर की जानीमानी हस्तियों, कई राजनीतिक दलों के नेताओं और कई मुस्लिम संगठनों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया और पश्चिम बंगाल सरकार की इस मसले पर जम कर निन्दा की।
एनएमएमआर के प्रमुख सैयद शहाबुद्दीन ने कहा कि मुसलमानों को आरक्षण के सम्बंध में रंगनाथ मिश्रा कमेटी की रिपोर्ट के पूरे सुझावों पर अमल किया जाए। आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा को हटाया जाए और धारा 341(3) में संशोधन कर मुसलमानों को भी अनुसूचित जाति में शामिल किया जाए। सम्मेलन में मुस्लिम आरक्षण से संबंधित घोषणा पर कई प्रतिनिधियनों का कहना था कि मुस्लिम वोट को खिसकता देख पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों ने मुसलमानों को आरक्षण देने का फ़ैसला किया। ऐसे में मुसलमानों को वोट को हथियार बनाने की ज़रूरत है और वो उसी पार्टी को वोट दें जो आरक्षण देने का समर्थन करे।
दरअसल पश्चिम बंगाल के मुसलमानों में मध्यम वर्ग लगभग नदारद है। इसलिए नौकरियों से लेकर शिक्षा और बैंक लोन तक मिलने में हो रहे भेदभाव को लेकर कोई पुरजोर आवाज़ नहीं उठी। फिलस्तीन पर इजरायली हमले, डेनमार्क में कार्टून विवाद, इराक पर अमेरिकी हमले, तस्लीमा नसरीन की रचनाओं पर उठा विवाद जैसे मुद्दों पर ही बातें आदर्श बघारे गये और उनकी मूल समस्याओं से निजात दिलाने पहल नहीं हुई। यह जरूर है कि हिन्दुत्व को लेकर केसरिया आतंक यहां भाजपा की शक्ति के क्षीण होने के कारण नहीं पनपा और यहां के मुसलमान उस काली छाया से बचे रहे और मुसलमानों के हित में केवल बोलकर ही वामपंथी दल उनका खैरख्वाह बने रहे। सच्चर कमेटी ने पश्चिम बंगाल सरकार को नंगा कर दिया, लेकिन मौके की नजाकत देखते हुए रिपोर्ट आते ही माकपा ने मांग की कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट लागू की जाये। वक्त का तकाज़ा है कि वाम सरकार उनके लिए वह करे जिससे उनकी हालत में सुधार हो।

भारतीय जनता पार्टी ने कहा है कि पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा पिछड़े मुसलमानों के लिए 10 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा का वही हश्र होगा जो आंध्र प्रदेश सरकार के आरक्षण संबंधी फैसले का हुआ। आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने मुस्लिम समुदाय को चार फीसदी आरक्षण देने के राज्य सरकार के फैसले को निरस्त कर दिया है। भाजपा प्रवक्ता राजीव प्रताप रुडी का कहना है कि पश्चिम राज्य सरकार ने आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर यह निर्णय लिया है। कांग्रेस और वामपंथियों की राजनीति का केंद्र ही तुष्टिकरण है। पश्चिम बंगाल सरकार के इस फैसले का भी वहीं हश्र होगा जो आंध्र प्रदेश सरकार के धर्म आधारित आरक्षण देने के फैसले का हुआ। देश में धर्म आधारित आरक्षण का पुरजोर विरोध होना चाहिए।
वामपंथी राजनीति वर्गीय चेतना को तरजीह देती आयी है और जाति और धर्म पर आधारित राजनीति का उसने विरोध किया है किन्तु जिस प्रकार कुछ अरसा पहले माकपा महासचिव प्रकाश करात ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को प्रधानमंत्री के रूप में इसलिए देखने की मंशा जाहिर की थी कि वे दलित की बेटी हैं या फिर धर्म में सम्बंध में उनका बयान की हमारा विरोध साम्प्रदायिकता से है सम्प्रदाय से नहीं यह बताता है कि वाम राजनीति का चेहरा अब बदलने जा रहा है। अब बंगाल सरकार का वर्गीय चेतना के आधार को छोड़ते हुए धर्म के आधार पर आरक्षण देने की घोषणा ने बता दिया है कि वह सत्त्ता पर काबिज होने या बने रहने के लिए भारतीय लोकतंत्र की उन तमाम खामियों के आगे घुटने टेकेगी जिसकी वह स्वयं आलोचना करती रही है। कहना न होगा कि बंगाल सरकार के इस कदम से आने वाले समय में राज्य में भाजपा का जनाधार तैयार होगा और यह भी मुमकिन है कि केसरिया दल अपनी राजनीति को यहां और जमाने के लिए बंगलादेशी घुसपैठियों का मुद्दा उछाल कर अपनी रोटियां सेंके।
इंदौर में भाजपा के तीन दिवसीय राष्ट्रीय अधिवेशन के अंतिम दिन 19 फरवरी को रंगनाथ मिश्रा आयोग रिपोर्ट पर पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कहा कि इस रिपोर्ट से अनुसूचित जाति और जनजातियों के मन में बहुत जबरदस्त भय है कि अगर यह सिफारिश लागू हो गयी तो उनका आरक्षण कम हो जायेगा।
मुस्लिमों और दलित ईसाइयों को आरक्षण देने तथा अन्य पिछड़ा वर्ग में मुसलमानों का प्रतिशत बढ़ाकर 15 प्रतिशत करने की रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट मुसलमानों को 'राजनीतिक आरक्षण देने की बड़ी साजिश' है। पार्टी का कहना था कि अगर दलित ईसाइयों और मुसलमानों को आरक्षण मिल गया तथा अन्य पिछड़े वर्गों को मिले 27 प्रतिशत के आरक्षण में मुसलमानों को आरक्षण 8.4 प्रतिशत से बढ़ाकर 15 प्रतिशत कर दिया गया तो इससे विधानसभाओं, संसद तथा अन्य निर्वाचित संस्थाओं में मुसलमानों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व अपने आप बढ़ जायेगा। उच्च प्रशासनिक सेवाओं में भी इस आधार पर मुसलमानों की पैठ बढ़ जायेगी।
इस प्रकार मुस्लिम समुदाय के आरक्षण को कांग्रेस का वोट बैंक मजूबत करने की तिकड़म के तौर पर देखा जा रहा है और पश्चिम बंगाल सरकार ने आरक्षण की घोषणा करके कांग्रेस कल्चर को समर्थन दे दिया है। सवाल यह है कि दलितों, पिछड़ों को जाति के आधार पर आरक्षण दिया जा सकता है तो धर्म के नाम पर क्यों नहीं। जाति फिर धर्म से छोटी इकाई है। जिन तर्कों से जाति के आरक्षण जायज हैं उन्हीं तर्कों से धर्म पर आधारित क्यों नहीं। मेरी व्यक्तिगत मान्यता तो यही है कि आरक्षण किसी भी आधार पर दिया ही नहीं जाना चाहिए यह लोकतंतत्र की समानता के उद्देश्य को बाधित करता है और छोटे-छोटे दबाव समूहों की सृष्टि होती है। अवसरवादी राजनीतिक दल उसका लाभ उठाते हैं।

Friday 12 February 2010

यदि विवाह को इतिहास होने से बचाना हो!

वह दौर भी आयेगा जब शादियां इतिहास हो जायेंगी। समाज अपने विकास के क्रम में व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए मानक गढ़ता है। मानकों के पालन के लिए कुछ अनुशासन भी तत्कालीन समाज द्वारा गढ़ जाते हैं। अथवा प्रथाओं में से कुछ समयानुकूल आदर्शों को चुनकर उनकी पुनस्र्थापना की जीती है। अब होता यह है कि कालांतर में नियमन का अनुशासन कठोर होता जाता है और जब नयी पीढ़ी द्वारा उनका अनुपालन कठोर हो जाता है तो नये विचार वाले लोग उस अनुशासन को तोडऩे में लग जाते हैं जो स्वाभाविक है। क्योंकि जीवन को व्यवस्था देने के लिए ही वे सिद्धांत गढ़ गये थे। जो भी नियम, सिद्धांत या अनुशासन सहज स्वभाव व सहज गति में अवरोधक बनता है उनका कभी न कभी टूट कर बिखरना तय है और उसकी नियति भी। नियमों में लचीलापन ही उसे बचाने और सदैव प्रासंगिक बनाये रखने में सहायक होता है।
विवाह दुनिया की सबसे पुरानी संस्था है जो हर समाज में किसी न किसी रूप में विद्यमान रही है। प्राचीनता के कारण बंद समाजों में सबसे अधिक कठोरता भी विवाह को लेकर रही है।
अपने देश में विवाह से इतने में मामले जुड़ गये हैं कि इस रिश्ते ने अपनी सहजता खो दी है। जाति, धर्म, कुल, दिशा, कद-काठी, रूप-रंग, लेनदेन, शिक्षा, कुंडली तो लगभग आवश्यक बातें हैं जिनका मनोनुकूल मिलान ज्यादातर मामलों में किया जाता है। कुछ मिलाकर विवाह बड़े से बड़े व्यक्ति के लिए भी हौवा हो गया है। सहज सम्बंध की बातें तो गौड़ हो गयी हैं। और प्यार-व्यार जैसी बातों को बहुत कम तरजीह दी जाती है और जो करते हैं उन्हें समाज में स्वीकृति पाने में काफी समय लग जाता है और कई जिन्दगी भर सामाजिक बहिष्कार झेलते हैं। आज भी विवाह के कई मामलों में आनर किलिंग की घटनाओं गांव देहात में आम हैं। स्वाभाविक है कि कई लोग मन से विवाह जैसी प्रथा के ही खिलाफ हो जाते हैं। भारत में पढ़ी लिखी आर्थिक तौर पर स्वावलम्बी कई महिलाएं एकल जीवन को ही पसंद करती हैं क्योंकि वे विवाह करके घर में चौबीस घंटे का एक मालिक नहीं चाहतीं।
ब्रिटेन में विवाहों की संख्या दिनोंदिन घटती जा रही है।
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के आंकड़ों से खुलासा हुआ है कि ब्रिटेन में वर्ष 1862 के बाद से विवाहों की संख्या अपने न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है। विवाहों की संख्या में कमी आने के कारण ब्रिटेन की ग्राडन ब्राउन सरकार को इन आरोपों का सामना करना पड़ रहा है कि वह विवाह संस्था को प्रोत्साहित करने में नाकाम रही है। यह पता चला है कि वर्ष 2008 में परम्परागत धार्मिक रीति रिवाजों से सम्पन्न होने वाले विवाहों की संख्या अन्य तरीकों से किए जाने वाले विवाहों का मात्र एक तिहाई थी।
पारिवारिक वकीलों के एक संगठन रिजोल्यूशन के उपाध्यक्ष डेविड एलिसन ने कहा कि एक साथ रहने वाले अविवाहित युगलों को विवाह के कानूनी फायदे मिलने चाहिए। विवाह किए बगैर एक साथ रहने वाले युगलों की संख्या में इजाफा हो रहा है। ब्रिटेन के एक गिरजाघर के प्रवक्ता ने कहा कि आज के युगल विवाह को अपने संबंधों की पूर्णता के रूप में देखते हैं। विवाह को एक गंभीर प्रतिबद्धता माना जाता है।
कहना न होगा कि यह सिर्फ एक देश का मामला नहीं है। लीव इन रिलेशन कई देशों में प्रचलित है और अपने देश में यह दस्तक रिश्ता अपना रूपाकार ग्रहण कर रहा है। इतना ही नहीं देश में समलैंगिक रिश्तों पर से पाबंदियां हटाने की ओर कदम बढ़ाये जा रहे हैं।
इसकी झलक इस बार के इस बार वैलेंटाइन डे पर 'गे' और 'लेसबियन' के लिए विशेष कार्ड के प्रचलन से देखी जा सकती है। इस बार वेलेंटाइन डे पर कुछ अलग ही नजारा देखने को मिला। दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा समलैंगिक संबंधों को मान्यता दिए जाने के बाद पहली बार बाजार में कंपनियों ने 'गे' और 'लेसबियन' जोड़ों को ध्यान में रखते हुए गिफ्ट प्रोडक्ट बाजार में उतारे, जिनमें ग्रीटिंग कार्डों को प्रमुखता दी गयी।
प्रमुख ग्रीटिंग कार्ड कंपनी आर्चीज के संयुक्त प्रबंध निदेशक प्रमोद अरोड़ा ने एक समाचार एजेंसी को बताया कि समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटाये जाने के फैसले के बाद से समाज में इसकी स्वीकार्यता बढ़ती जा रही है। इसी सिलसिले में हमने पहली बार 'गे' और 'लेसबियन' कार्ड बाजार में उतारे।
अपने देश में विवाह नहीं विवाह के बाद कोई इस रिश्ते को बरकरार न रखना चाहे तो विवाह होने से बड़ी मुश्किलें विवाह विच्छेद में आती हैं। अनबन के कारण अलगाव के मुद्दों पर आमतौर पर सहमति नहीं बन पाती और कई बार दस साल के दाम्पत्य जीवन से छुटकारा पाने में बीस साल लग जाते हैं जिसके चलते अलग होने वाले जोड़ों को लिए फिर से नया दाम्पत्य जीवन बसाना असंभव हो जाता है। हिन्दू विवाह कानून के तहत तलाक की अदालती प्रक्रिया बेहद लम्बी है जिससे अलगाव चाहने वाले त्रस्त हैं। बेहतर यह होगा कि विवाह के रिश्ते को सहजता से लिया जाये और जाति, धर्म, लेन देन सहित तमाम मुद्दों को दरकिनार कर दिया जाये वरना न यह रिश्ता ही नहीं रहेगा और सारी गणनाएं धरी की धरी रह जायेंगी।

Wednesday 10 February 2010

इश्क ने लिखना सिखाया, इश्क ने जीना

दिलाया याद तो मैं खोजता हूं/ कहीं पर था कहीं तो दिल रहा है।' भला हो वैलेंटाइन डे का जिसके कारण साल में एकाध बार ही सही दिल का खयाल आ जाता है। वरना आज के दौर में चालीस पार के एक सामान्य आदमी को गमे जहां के हिसाब से फुरसत कब मिलती है। साहित्य की दुनिया में विधिवत आये दो दशक हो गये हैं। अब जबकी मेरी नौवीं किताब कहानी संग्रह 'तीसरी बीवी' आयी है तो गौर करता हूं तो पाता हूं कि मेरे इस संग्रह में इश्क पर इक्की-दुक्की रचना ही है। जबकि यह स्वीकार करने में मुझे कोई हिचक नहीं कि मेरा लेखन इश्क की देन है। आठवीं कक्षा में रहा होऊंगा जब मैंने दूर पंचगनी के एक कांवेंट में पढऩे और वहीं हास्टल में रहने वाली हमउम्र लड़की को बीस-बीस, तीस-तीस पेज के लम्बे खत लिखता था। उन्हीं दिनों रेडियो पर देर रात को पाकिस्तानी गजलें सुनता था ताकि दिल की धड़कनों को कोई भाषा दे सकूं। लेकिन मेरे दिल की भाषा गजलों से तो मेल खाती थी लेकिन थोड़ी जुदा-जुदा थी। सो उन गजलों का इस्तेमाल मैं चाहकर भी अपने खतों में नहीं कर पाता था सो खुद ही गजलनुमा सा कुछ लिखने लगा था और उनका अपने खतों जमकर इस्तेमाल किया। लम्बे खत लिखने के लिए घर में छिप-छिपाकर समय कम मिलता था तो क्लासरूम में लिखने लगा। उस दिन वाइस प्रिंसिपल की क्लास थी और वे कुछ और पढ़ा रहीं थी और मैं पिछली सीट पर बैठे खत लिख रहा था। मेरी तलाशी ली गयी और खत पकड़ा गया। महिला प्रिंसिपल के रूम में बंद कमरे में मुझे अपना पत्र पढऩे का आदेश हुआ था। मैं रोता रहा और पत्र पढ़ता रहा। खत फाड़कर हाफपैंट की जेब में रख दिया। प्रिंसिपल ने यह पूछा था कि यह कवितानुमा बातें कहां से ली है। जब मैंने बताया कि मैंने खुद लिखी है तो उन्होंने मेरी प्रशंसा भी की थी कि मैं अच्छा लिख सकता हूं लेकिन मेरी उम्र प्रेम करने की नहीं है और मुझे कुछ और लिखना चाहिए। खत में लिखी कविताओं ने मुझे उनकी पिटाई से या अभिभावक के पास शिकायत से बचा लिया लेकिन में दंड से बच नहीं पाया।
फटा हुआ लम्बा पत्र मेरी जेब में लापरवाही की वजह से पड़ा रह गया एक दिन बाद जब मां ने कपड़े धोने के लिए पेंट हाथ में लिया तो जेब से फटा हुआ पत्र उनके हाथ लग गया। इश्क के चक्कर में मेरी यह पहली पिटाई थी। उस दिन मैंने जाना कि झाड़ू से पिटने का दर्द, चप्पल के पिटने के दर्द से अलग होता है। घूंसे और थप्पड़ का स्वाद अलग होता है। डंडे से खायी गयी मार का आनंद अलग है। और जब रेडियो पर कहीं मुकेश का गीत बज रहा हो तो इश्क में पिटने की खुमारी देर तक नहीं उतरती। बहने वाले आंसू निकलते समय कितने गर्म लगते हैं और कितनी देर बात वे गालों पर ठंडे लगने लगते हैं इसका पहला स्वाद था। और मार खाने का बाद कालोनी में घर के बाहर पास पड़ोसियों के समक्ष जार-जार रोना कैसा लगता है। रोना बंद होने के बाद भी बिस्तर पर लेटने पर देह कितनी देर तक कांपती और थरथराती रहती है यह पहली बार जाना था। वैलेंटाइन इसकी याद दिलाता है। बरसों बाद उन दिनों की याद में मैंने एक शेर लिखा-'कभी रोने के मैं सारे सलीके सीख जाऊंगा। किनारे झील के मैंने अभी रोकर नहीं देखा।'
बात यहीं खत्म हो जाती तो फिर क्या बात थी। लेकिन खतों ने मुझे फिर जोखिम में डाल दिया। हुआ यह था कि मेरी एक सहपाठी, दोस्त और मुंहबोली बहन थी, जिससे मैं अपने जीवन की तमाम बातें शेयर करता था। फिर उससे अपनी किशोर उम्र की पहली मुहब्बत कैसे और क्यों छिपाता। उसने बहुत मिन्नतें की थीं कि मैं उसे अपने खत जरूर पढ़ाऊं। और चूंकि खत लम्बे होते थे वह उन्हें पढऩे अपने घर ले जाती थी। उसके पिता वहां काम करते थे जिसमें मेरे पिता। एक ही कालोनी में कंपनी के फ्लैट्स में हम रहते थे। और एक दिन ऐसा हुआ कि उसकी किताबों में छिपाकर रखा मेरा एक खत उसकी लापरवाही से उसके घर में फर्श पर गिर गया जो उसके पिता के हाथ लग गया। मेरे इश्क के जगजाहिर होने की यह दूसरी खतरनाक घटना थी।
उसके नतीजे जल्द ही सामने आये। मेरी दोस्त के पिता ने मेरे पिता को वह पत्र पकड़ा दिया। वह मेरी मां के पास पहुंच गया। पिछली पिटाई के निशान अभी कायम थे और दर्द बरकरार। अबकी बार मरम्मत अधिक हुई। पिटाई संगीन स्थिति तक इस लिए भी पहुंची क्योंकि मेरे पिता की नौकरी पर बन आने की आशंका मेरे मां के मन में घर कर गयी थी। उसका कारण यह था कि मेरे पिता या मेरी मित्र के पिता जिस कंपनी में नौकरी करते थे उसके प्रमुख उस लड़की के पिता थे जिसे मैं खत लिखता था। नौकरी की असुरक्षा ने बेटे के कुकृत्य के अधिक संगीन कर दिया था। यह एक ऐसा अपराध था जिसके चलते हम पांच भाई बहनों वाले परिवार की आर्थिक सुरक्षा खतरे में पड़ सकती थी।
यह सब उस उपन्यासों की वजह से हुआ था जिसे मेरे पिता व मां अक्सर पढ़ा करते थे। वे रानू के पाकेटबुक्स उपन्यास थे जिसे हिन्दी में लुगदी साहित्य कहा जाता है। रानू के उपन्यासों की मुख्य थीम थी एक गरीब युवक का किसी अमीरजादी से प्यार करना। नायक की खूबी यह होती थी कि वह कोई लेखक या चित्रकार होता था। यह उपन्यास मेरे पिता जब काम से लौटते थे तब पढ़ते थे और घर के काम से फुरसत मिलने पर मेरी मां। हम भाई बहनों को उपन्यास से दूर रहने को कहा जाता था। इसलिए उनके प्रति आकर्षण बढ़ा और जब भी घर में अकेले रहने का मौका मिलता मैं उन्हें पढ़ता। मुश्किल यह थी कि मन बेचैन रहता कि आगे क्या हुआ लेकिन उपन्यास लौटा दिया जाता। आखिरकार हल यह निकला कि मैं अपने पाकेट मनी से उपन्यास किराये पर लाकर पढऩे लगा। वह भी देर रात तक पढ़ाई का बहाना कर। मेज की दराज हमेशा खुली रखता और जैसे ही मां के आने की आहट मिलती उपन्यास को दराज में डाल देता। तो रानू के उपन्यासों का उस किशोर उम्र में ऐसा प्रभाव पड़ा कि मैं बचपन से ही ऐसी प्रेमिका की तलाश में जुट गया जो अमीरजादी हो। स्वाभाविक था कि मेरे पिता क्लर्क थे और मुझे सबसे अमीर कंपनी के प्रमुख ही लगे। शाम को कंपनी की ओर से बना क्लब खुलता था जिसमें टेबिल टेनिस, ताश, चेस, कैरम, बैटमिंटन, बालीबाल खेलने की सुविधा थी। लाइब्रेरी भी थी। मैं शाम को क्लब रोज जाता था और जल्द ही मैं टेबिल टेनिस और बालीबाल का अच्छा खिलाड़ी बन गया। इन दोनों खेलों में मैंने कई पुरस्कार भी जीते। और खेलों मेरा करियर भी बन जाता अगर मैंने गेम्स कोटे में सीआरपीएफ सब इंस्पेक्टर की नौकरी में चयन होने के भर्ती हो गया होता। नासमझी में मैंने वह नौकरी ज्वाइन नहीं की थी।
तो बात चल रही थी खेलों की। मैं उन दिनों जिससे प्रेम करने का मन बनाये हुए था वह छुट्टियों में पंचगनी से वहां लौटती और शाम को टेबिल टेनिस खेलने आती जिसका मैं अच्छा खिलाड़ी था। और उससे अपनी बात सीधे कहने के बदले मैंने खत लिखने का जोखिम उठाया तो मेरे लिए मुसीबत बन गया।
मेरे खत मुसीबत तो उस लड़की के लिए भी बने जिसे मैं खत लिखता था। उसके कांवेंट स्कूल में खतों के मोटे लिफाफों के आने का सिलसिला चला तो स्कूल के सम्बंध विभाग को शुबहा हुआ। वार्डेन ने लिफाफा फाड़ा और खत पढऩे के बाद प्रिंसिपल तक पहुंचा दिया गया। बाद के भी कुछ खतों का यही हस्र हुआ और आखिरकार लड़की को बुलाकर खत लिखने वाले के बारे में पूछताछ की गयी। चूंकि खतों से भी यह स्पष्ट था कि मामला दोतरफा नहीं है और बात केवल प्रस्ताव के स्तर की है। खतों का तरीका रचनात्मक है तो लड़की को यह कहकर छोड़ दिया गया कि वह जब कभी पत्र लेखक से मिले उसे समझा दे कि खत न लिखे। अलबत्ता उसने दो महीने बाद मुझसे कहा था कि मैं उसे खत न लिखा करूं क्योंकि यदि खतों के बारे में उसकी प्रिंसिपल ने उसके पिता को बता दिया तो मेरे पिता की नौकरी खतरे में पड़ जायेगी। पत्र में लिखी बातों के बारे में उसका कहना था कि पत्र का ज्यादातर बातें उसकी भाषा कठिन होने के कारण समझ में नहीं आयी। प्रणय निवेदन और आईना-ए-दिल जैसे शब्द अंग्रेजी मीडियम में पढऩे वाली किशोरी के लिए कठिन थे। मेरे पत्र का और कोई जवाब नहीं मिला। खैर..पत्र तो मैंने उसे पहले ही लिखना छोड़ दिया था क्योंकि मेरी दो-दो बार घर में अच्छी खातिर हो चुकी थी और मेरे हर लिखे पर मां-बाबूजी की नजर रहती थी।
चूंकि मेरे जज्बातों का स्टाक अभी खत्म नहीं हुआ था सो मैंने गजलें और गीत लिखना जारी रखा और मैं अपने साहित्यकार बनने में उनका योगदान मैं मानता हूं। एक बात और मुझे बिगाडऩे वाले मेरे प्रिय उपन्यासकार रानू की उन्हीं दिनों मौत हो गयी। बाद में उनकी पत्नी सरला रानू ने उपन्यास लिखना शुरू किया था। मैंने उन दिनों उन्हें कुछ खत भी लिखे थे और वे पत्र का उत्तर भी देती थीं और अपने अगले उपन्यासों की सूचना भी लेकिन उनके उपन्यासों में वह बात नहीं थी जो किसी किशोर के जीवन की दिशा बदल दे। मैं यहां यह भी बताना चाहूंगा कि रानू के नायकों की तरह मैंने न सिर्फ लिखना शुरू किया था बल्कि पेंटिंग भी करने करने लगा था और उसे सराहा भी गया।
गजल या गजलनुमा जैसी बातें मैं उन्हीं दिनों से लिखता आया हूं, जो 'रतजगे' नाम से शायद कभी पाठकों के समक्ष आयें। फिलहाल वह अप्रकाशित है। मुझे तो इश्क ने लिखना भी सीखाया है और जीना भी, आप जो समझना चाहें समझें।
यहां यह बताना चाहूंगा कि वे पत्र एक रजिस्टर के पन्नों पर लिखे गये थे जिनकी संख्या नौ थी। लगभग ढाई सौ सफे के वे पत्र 13 साल के किशोर ने लिखे थे। उन पत्रों के जरिए पहली बार मैंने अपने सपनों को शब्द दिये थे और शब्दों को सपने। उसके बिना इतने सफे नहीं रंगे जा सकते थे। एक किशोर मन की आशाएं आकांक्षा भविष्य की योजनाएं, देश दुनिया को समझने का अपना नजरिया उनमें था। काश वे पत्र कहीं महफूज होते और मुझे मिल जाते। खुद हैरत होती है कि मेरे पास उन दिनों अनुभव जगत की कितनी बातें होंगी जिसे मैंने शब्द दे पाता। फिर बाकी बातों में क्या रहा होगा। इन पत्रों में भाषा के अभिनव प्रयोग करने के लिए मैंने नये शब्द सीखे। अभिव्यक्ति को सशक्त बनाने के भाषिक प्रयोग भी किये। प्रभावित करने के लिए लिखावट पर विशेष ध्यान दिया। मेरी लिखावट सुन्दर होती गयी। और एक दशक पहले तब तक सुन्दर रहीं, जब तक कि मेरे दायें हाथ की उंगलियां एक रिपोर्टिंग के दौरान पुलिस लाठीचार्ज में टूट कर छितरा नहीं गयीं। उंगलियां डेढ़ महीने तक प्लास्टर में रहने के बाद जुड़ीं तो लिखावट बदल गयी। अब हर वाक्य पिछले वाक्य से भिन्न लिखावट वाला होता है। पहला हस्ताक्षर उसके बाद वाले हस्ताक्षर से जुदा। बैंक के चेक पर कम से कम दो हस्ताक्षर करता हूं कि कोई तो मेल खायेगा

Thursday 4 February 2010

आज का मीडिया और बाजार का विस्तार बनाम बाजार की समझ

समाचार एजेंसी प्रेस ट्रस्ट आफ इंडिया के हीरक जयंती समारोह के एक सत्र में मीडिया और बाजार के रिश्ते की पड़ताल की गयी। यह एक बेहद जरूरी मसला था जिस पर खुलकर बात होनी चाहिए। सच तो यह है कि मीडिया के क्षेत्र में बाजार अभी तक विजातीय है। पहला फोकस राजनीति है और अंतिम संस्कृति। राजनीति के बाद इधर खेल ने मीडिया में अपना रुतबा कायम किया है। हालांकि उसे खेल नहीं बल्कि क्रिकेट कहना चाहिए। खेल में अस्सी फीसदी तो क्रिकेट ही रहता है। इधर फिल्मी दुनिया ने तेजी से मीडिया में अपनी पैठ बनायी है और फिल्म जगत की खबरें केवल शुक्रवारीय एक से लेकर चार पृष्ठों के परिशिष्ट से बाहर निकल कर रोज के अन्य घटनाक्रमों की तरह दैनिक अखबार में अब दिखायी देने लगी हैं अलबत्ता जो टीवी लोगों के घर-घर में घुस चुका है और कई लोगों की पूरी दिनचर्या की टीवी धारावाहिकों से प्रभावित है, को अब भी सप्ताह में किसी कोने अंतरे या एकाध सफे में जगह मिलती है जिस पर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है। इसकी खबरें आने वाले दिनों में रोज एक पूरा पृष्ठ समेट सकती हैं। वाणिज्य व्यवसाय की खबरें हिन्दी के दैनिक अखबारों में रोज अमूमन पूरे एक पृष्ठ की होती हैं लेकिन उससे गंभीर क्या इस क्षेत्र की प्राथमिक समझ भी पाठक को नहीं दे पातीं। व्यवसाय का नाम सुनते ही पत्रकार दबाव में आ जाते हैं पता नहीं किसी कंपनी का मालिकान से क्या सम्बंध हो। पता नहीं कौन विज्ञापनदाता हो जिसके खिलाफ खबर छपनी भी चाहिए या नहीं। पता नहीं कौन सी कंपनी अखबार को विज्ञापन न देती हो और उसके उत्पाद को हाईलाइट करने का खामियाजा बिजनेस पेज के प्रभारी को भुगतना पड़ जाये। व्यवसाय का आतंक वैसे तो हर पृष्ठ पर झांकता है पता नहीं किस कंपनी का मालिक किस मामले में धर लिया गया हो और उसकी खबर छापनी भी है या नहीं या किसी रूप में छापनी है इसके प्रति सतत चौकन्ना रहना पड़ता है।
ऐसे में बाजार की समझ मीडिया क्या खाक पाठकों में विकसित करेगा। अन्य विषयों की तरह तह बेबाक, निर्भीक और तटस्थ भाव जब तक नहीं आयेगा मीडिया बाजार की उन्हीं खबरों को परोसते रहने को अभिशप्त रहेगा जो लगभग थोपना भर होगा।
पता की बात यह है कि विश्व बाजार के खुले माहौल में भारत पूरी दुनिया के विभिन्न उत्पादों से पटा पड़ा है और उत्पादों के उपयोग के तौर तरीकों, उनकी खूबियों-खामियों, कीमतों, उपलब्धता, विश्वसनीयता, इतिहास आदि के बारे में आम लोग विस्तार से जानना चाहते हैं। कई अखबारों के बारे में कहा जाता है कि साहब उनके यहं तो खबरें कम छपती हैं अब पाठक विज्ञापन पढऩे के लिए तो अखबार लेता नहीं, यह एक गलत समझ है। पाठक केवल राजनीति, क्रिकेट, फिल्म और टीवी के बारे में ही नहीं जानता चाहता, वह जूतों, पर्स, बेल्ट, मोबाइल के बारे में भी जानना चाहता है क्योंकि उसे वह खरीदना है, इस्तेमाल करना है। आज का दौर इस बात की मांग कर रहा है कि तमाम उपभोक्तावादी वस्तुओं के बारे में जानकारी मिले जिनसे बाजार अंटा पड़ा है।
आइये जानें कि इस बारे में क्या कहते हैं दिग्गज:
'मीडिया, बाजार के पहरूए की भूमिका में' विषय पर आयोजित इस सत्र में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित देश के सबसे बड़े निजी बैंक आईसीआईसीआई बैंक की मुख्य कार्यकारी और प्रबंध निदेशक चंदा कोचर ने कहा कि विश्व बैंक की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि 'लोकतंत्र', स्वतंत्र मीडिया और विकास में सीधा संबंध है। 'मेरी समझ में' बाजार के पहरेदार के रूप में मीडिया की यही भूमिका हो सकती है कि वह लोगों को तथ्यात्मक सूचनाएं दे, लोगों को बाजार संबंधी फैसले करने में मदद करे और उन्हें सवाल उठाने के लिये प्रोत्साहित करे। केवल आंकड़े परोसना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि तथ्यों को आधारहीन बातों से अलग करके पेश करने तथा बात को उसके सही संदर्भो के साथ रखने की आवश्यकता है। मीडिया बाजार में कंपनियों को जवाबदेह बनाने और लोगों के लिये नये अवसर दिखाने में बड़ी भूमिका निभा सकता है।
नेशनल स्टाक एक्सचेंज की संयुक्त प्रबंध निदेशक चित्रा रामकृष्णन ने भी पश्चिम में किये गये अनुसंधानों का हवाला देते हुए कहा कि मीडिया का विकास वित्तीय बाजारों के विकास से प्रभावित हुआ है। बाजार के विकास ने इसे गति दी है। साथ ही यह निवेशकों के निर्णयों को प्रभावित करता है। मीडिया को बाजार के प्रति समझ बढ़ाने वाली रपटें प्रकाशित करनी चाहिए। अच्छे और बुरे का भेद करने वाली समझ विकसित करनी चाहिए। देश के सबसे बड़े जिंस वायदा बाजार के प्रमुख और फाइनेंशियल टेक्नोलीजी इंडिया के अध्यक्ष एवं मुख्य कार्यकारी जिग्नेश शाह ने कहा कि किसी भी बाजार के विकास के लिये सूचनाएं मुख्य आधार होती हैं। मौलिक सूचनाओं के प्रसार में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका है और आधुनिक संचार प्रौद्योगिकी ने इस क्षमता को नया आयाम दिया है। मीडिया अगर बाजार का 'पहरेदार' बनना चाह रहा है तो उत्तरदायित्व और जवाबदेही लेना इसके अनिवार्य शर्त है।
सत्र में मीडिया जगत का प्रतिनिधित्व कर रहे आउटलुक के संपादक विनोद मेहता ने कहा कि मीडिया बाजार को सममें विफल रहा है। मीडिया में राजनीति और समाज के हर क्षेत्र पर निगाह रखने वाले लोग हैं और निगाह रखते भी हैं लेकिन बाजार पर निगाह नहीं रखी जाती। शायद ही ऐसा कोई ऐसा मौका है जब मीडिया ने बाजार के किसी घोटाले का भंडाफोड़ किया हो। यह भांडा अपने आप फूटता है फिर मीडिया उसके पीछे भागता है। मीडिया घरानों का बाजार में निहित स्वार्थ हो गया है और वे बाजार की चमक का ही गुणगान करते रहते हैं।

प्रेरणा लें पर आभार भी तो जतायें गुलजार!


फिल्म 'इश्किया' में गुलजार के गीत 'इब्नबतूता, बगल में जूता..' विवादों में फंस गया है। इस गीत के गीतकार ऑस्कर जीत चुके गुलजार हैं लेकिन उन पर आरोप है कि उन्होंने यह गीत सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता 'इब्नबतूता पहन के जूता, निकल पड़े तूफान में..' से लिया गया है और पूरी फिल्म में उनको कहीं कोई श्रेय नहीं दिया गया है।
चूंकि मामला गुलजार साहब का है इसलिए मामला प्रेरणा लेने का है। प्रेरणा क्या सीधे-सीधे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के गीत की कुछ पंक्तियों को लिफ्ट करने का है। और इसमें कोई बुराई नहीं यदि वह फिल्म का मामला हो। करोड़ों रुपये फिल्म में लगे होते हैं इसलिए वह सिर्फ कला का मामला नहीं रह जाता बल्कि व्यवसाय का मामला अधिक हो जाता है। फिल्म जैसी कला की रचना की सफलता का आकलन भी उसकी कमाई के आधार पर होती है और यही कारण है कि प्रतिबद्ध फिल्मकारों अभिनेताओं की तुलना में व्यावसायिक स्तर पर कामयाब फिल्मकारों अभिनेताओं को सफल माना जाता है। अब जहां करोड़ों दांव पर लगे हों तो फिल्म को बेहतर बनाने के लिए दुनिया में जहां जिस क्षेत्र में भी कुछ बेहतर होता है उसे फिल्म वाले ले उड़ते हैं और किसी कलाकार के अभिनय, संवाद, गीत, संगीत, एक्शन, कहानी आदि सभी मामलों में दुनिया भर की फिल्मों को खंगाल डाला जाता है और उसे मिलाकर एक नयी फिल्म बनती है। फिल्म को कामयाब करने के लिए यह सब कुछ करने वालों से यह तो उम्मीद की ही जानी चाहिए कि वे फिल्म बनायें, कामयाब हों और नोट पीटें लेकिन जहां जहां से 'प्रेरणा' ली है उसका जिक्र भी करें और उसका समुचित भुगतान भी करें। (फिल्मी दुनिया में दूसरे की बौद्धिक सम्पदा को 'झाडऩे' को 'प्रेरणा' ही कहा जाता है)।
हमारे देश में कई ऐसी फिल्में कामयाब हुईं और बाद में पता चला कि उन्होंने अमुक विदेशी फिल्म से न सिर्फ कहानी उड़ायी थी बल्कि सीन दर सीन भी टीप लिया था। गुलजार जहां फिल्म इंडस्ट्री में हैं और वे आवश्यकतानुसार प्रेरित किये जाते या होते रहते हैं प्रेरणा लेने लिए तो हों इससे गुरेज नहीं होना चाहिए लेकिन पहले भी जिस प्रकार दूसरे रचनाकारों से प्रेरणा लेकर उनका आभार माना था वैसा ही करें तो हमें कोई दिक्कत नहीं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना एक अच्छे कवि थे। अज्ञेय के तीसरा सप्तक से उन्होंने अपनी विशिष्ट पहचान बनानी शुरू की थी और उन्होंने हिन्दी साहित्य को अद्भुत प्रेम और विद्रोह दोनों की कविताएं दी हैं।
घुम्मकड़ इब्ने बतूता ने दुनिया के सारे इस्लामी देशों के अलावा अफ्रीका और यूरोप, भारतीय उपमहाद्वीप की लगभग 75,000 मील की यात्रा की और इस दौरान उन्होंने कई खतरों का सामना किया और उनका सफर काफी रोमांचकारी रहा। मोरक्को के सुल्तान ने इब्ने बतूता की यात्रा को देखते हुए एक किताब लिखवाई। पश्चिम उत्तर प्रदेश की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म 'इश्किया' में भी नसीरूद्दीन शाह और अरशद वारसी भी कुछ इसी तरह की भूमिका में हैं इसलिये यह गाना फिल्माया गया है, जो दोनों किरदारों पर फिट बैठता है और लोगों की जुबां पर चढ़ गया है।
फिल्म इश्किया का गाना 'इब्नेबतूता' दर्शकों को काफी पसंद आ रहा है पर जिस कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के गीत का मुखड़ा फिल्म में लिया गया है उसके परिवारवाले काफी दुखी हैं। मोरक्को के विद्वान 'इब्ने बतूता' के घुम्मकड़ रवैये को दर्शाने के लिये सर्वेश्वर ने यह लिखी कविता लिखी थी। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की बेटी विभा सक्सेना का कहना है 'मेरे पिताजी ने इब्ने बतूता पर कविता लिखी थी, लेकिन गुलजार साहब ने इसमें थोड़े बदलाव करते हुए यह गाना लिखा है। हमें दुख इस बात का है कि कहीं भी उन्हें श्रेय नहीं दिया गया या ऐसा नहीं बताया गया कि यह गाना सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता 'इब्ने बतूता' से प्रेरित है।' गुलजार साहब खुद एक कवि हैं और अगर वह गाने की पंक्तियां कहीं से उतारते हैं तो उसे हमेशा श्रेय देते हैं। उनकी गरिमा इसी में होगी कि वे मेरे पिताजी को श्रेय दें क्योंकि मेरे पिताजी अब इस दुनिया में नहीं हैं।'
सक्सेना की कविता के बोल इस प्रकार है, 'इब्नेबतूता पहन के जूता, निकल पड़े तूफान में, थोड़ी हवा नाक में घुस गई, घुस गई थोड़ी कान में। कभी नाक को, कभी कान को, मलते इब्नेबतूता, इस बीच में निकल पड़ा, उनके पैरों का जूता। उड़ते उड़ते जूता उनका, जा पहुंचा जापान में, इब्नेबतूता खड़े रह गये, मोची की दुकान में।' विभा सक्सेना के अनुसार-'हमारा परिवार और सभी साहित्यकार यही चाहते हैं कि सिर्फ मेरे पिताजी की कविता को श्रेय दिया जाये।'

जो लोग साहित्य रचने से ताल्लुक रखते हैं उन्हें यह स्वाभाविक तौर पर पता होगा कि कई बार लेखक अनजाने की दूसरे की पंक्तियां अपनी रचना में इस्तेमाल कर बैठता है। उसका कारण यह है कि लेखन कार्य काफी कुछ अवचेतन से सम्बंध रखता है और अचेतन मन में कई बार पुरानी पढ़ी रही रचनाएं भी रहती हैं। जो अरसे बाद याद आती हैं और कई बार लेखक को यह भी भ्रम हो जाता है कि यह दूसरे की नहीं बल्कि उसी की सोच है। मैंने अब तक इस पूरे प्रकरण में गुलजार की प्रतिक्रिया नहीं पढ़ी है। वस्तुस्थिति के सम्बंध में तो वे ही बता सकते हैं। मैं तो उनका लिखा पढ़ते-लिखते-गुनते हुए बड़ा हुआ हूं। और उन्हें किसी भी कीमत पर उन्हें साहित्यिक चोर कहे जाने को स्वीकार नहीं कर सकता।
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