Wednesday, 10 February 2010

इश्क ने लिखना सिखाया, इश्क ने जीना

दिलाया याद तो मैं खोजता हूं/ कहीं पर था कहीं तो दिल रहा है।' भला हो वैलेंटाइन डे का जिसके कारण साल में एकाध बार ही सही दिल का खयाल आ जाता है। वरना आज के दौर में चालीस पार के एक सामान्य आदमी को गमे जहां के हिसाब से फुरसत कब मिलती है। साहित्य की दुनिया में विधिवत आये दो दशक हो गये हैं। अब जबकी मेरी नौवीं किताब कहानी संग्रह 'तीसरी बीवी' आयी है तो गौर करता हूं तो पाता हूं कि मेरे इस संग्रह में इश्क पर इक्की-दुक्की रचना ही है। जबकि यह स्वीकार करने में मुझे कोई हिचक नहीं कि मेरा लेखन इश्क की देन है। आठवीं कक्षा में रहा होऊंगा जब मैंने दूर पंचगनी के एक कांवेंट में पढऩे और वहीं हास्टल में रहने वाली हमउम्र लड़की को बीस-बीस, तीस-तीस पेज के लम्बे खत लिखता था। उन्हीं दिनों रेडियो पर देर रात को पाकिस्तानी गजलें सुनता था ताकि दिल की धड़कनों को कोई भाषा दे सकूं। लेकिन मेरे दिल की भाषा गजलों से तो मेल खाती थी लेकिन थोड़ी जुदा-जुदा थी। सो उन गजलों का इस्तेमाल मैं चाहकर भी अपने खतों में नहीं कर पाता था सो खुद ही गजलनुमा सा कुछ लिखने लगा था और उनका अपने खतों जमकर इस्तेमाल किया। लम्बे खत लिखने के लिए घर में छिप-छिपाकर समय कम मिलता था तो क्लासरूम में लिखने लगा। उस दिन वाइस प्रिंसिपल की क्लास थी और वे कुछ और पढ़ा रहीं थी और मैं पिछली सीट पर बैठे खत लिख रहा था। मेरी तलाशी ली गयी और खत पकड़ा गया। महिला प्रिंसिपल के रूम में बंद कमरे में मुझे अपना पत्र पढऩे का आदेश हुआ था। मैं रोता रहा और पत्र पढ़ता रहा। खत फाड़कर हाफपैंट की जेब में रख दिया। प्रिंसिपल ने यह पूछा था कि यह कवितानुमा बातें कहां से ली है। जब मैंने बताया कि मैंने खुद लिखी है तो उन्होंने मेरी प्रशंसा भी की थी कि मैं अच्छा लिख सकता हूं लेकिन मेरी उम्र प्रेम करने की नहीं है और मुझे कुछ और लिखना चाहिए। खत में लिखी कविताओं ने मुझे उनकी पिटाई से या अभिभावक के पास शिकायत से बचा लिया लेकिन में दंड से बच नहीं पाया।
फटा हुआ लम्बा पत्र मेरी जेब में लापरवाही की वजह से पड़ा रह गया एक दिन बाद जब मां ने कपड़े धोने के लिए पेंट हाथ में लिया तो जेब से फटा हुआ पत्र उनके हाथ लग गया। इश्क के चक्कर में मेरी यह पहली पिटाई थी। उस दिन मैंने जाना कि झाड़ू से पिटने का दर्द, चप्पल के पिटने के दर्द से अलग होता है। घूंसे और थप्पड़ का स्वाद अलग होता है। डंडे से खायी गयी मार का आनंद अलग है। और जब रेडियो पर कहीं मुकेश का गीत बज रहा हो तो इश्क में पिटने की खुमारी देर तक नहीं उतरती। बहने वाले आंसू निकलते समय कितने गर्म लगते हैं और कितनी देर बात वे गालों पर ठंडे लगने लगते हैं इसका पहला स्वाद था। और मार खाने का बाद कालोनी में घर के बाहर पास पड़ोसियों के समक्ष जार-जार रोना कैसा लगता है। रोना बंद होने के बाद भी बिस्तर पर लेटने पर देह कितनी देर तक कांपती और थरथराती रहती है यह पहली बार जाना था। वैलेंटाइन इसकी याद दिलाता है। बरसों बाद उन दिनों की याद में मैंने एक शेर लिखा-'कभी रोने के मैं सारे सलीके सीख जाऊंगा। किनारे झील के मैंने अभी रोकर नहीं देखा।'
बात यहीं खत्म हो जाती तो फिर क्या बात थी। लेकिन खतों ने मुझे फिर जोखिम में डाल दिया। हुआ यह था कि मेरी एक सहपाठी, दोस्त और मुंहबोली बहन थी, जिससे मैं अपने जीवन की तमाम बातें शेयर करता था। फिर उससे अपनी किशोर उम्र की पहली मुहब्बत कैसे और क्यों छिपाता। उसने बहुत मिन्नतें की थीं कि मैं उसे अपने खत जरूर पढ़ाऊं। और चूंकि खत लम्बे होते थे वह उन्हें पढऩे अपने घर ले जाती थी। उसके पिता वहां काम करते थे जिसमें मेरे पिता। एक ही कालोनी में कंपनी के फ्लैट्स में हम रहते थे। और एक दिन ऐसा हुआ कि उसकी किताबों में छिपाकर रखा मेरा एक खत उसकी लापरवाही से उसके घर में फर्श पर गिर गया जो उसके पिता के हाथ लग गया। मेरे इश्क के जगजाहिर होने की यह दूसरी खतरनाक घटना थी।
उसके नतीजे जल्द ही सामने आये। मेरी दोस्त के पिता ने मेरे पिता को वह पत्र पकड़ा दिया। वह मेरी मां के पास पहुंच गया। पिछली पिटाई के निशान अभी कायम थे और दर्द बरकरार। अबकी बार मरम्मत अधिक हुई। पिटाई संगीन स्थिति तक इस लिए भी पहुंची क्योंकि मेरे पिता की नौकरी पर बन आने की आशंका मेरे मां के मन में घर कर गयी थी। उसका कारण यह था कि मेरे पिता या मेरी मित्र के पिता जिस कंपनी में नौकरी करते थे उसके प्रमुख उस लड़की के पिता थे जिसे मैं खत लिखता था। नौकरी की असुरक्षा ने बेटे के कुकृत्य के अधिक संगीन कर दिया था। यह एक ऐसा अपराध था जिसके चलते हम पांच भाई बहनों वाले परिवार की आर्थिक सुरक्षा खतरे में पड़ सकती थी।
यह सब उस उपन्यासों की वजह से हुआ था जिसे मेरे पिता व मां अक्सर पढ़ा करते थे। वे रानू के पाकेटबुक्स उपन्यास थे जिसे हिन्दी में लुगदी साहित्य कहा जाता है। रानू के उपन्यासों की मुख्य थीम थी एक गरीब युवक का किसी अमीरजादी से प्यार करना। नायक की खूबी यह होती थी कि वह कोई लेखक या चित्रकार होता था। यह उपन्यास मेरे पिता जब काम से लौटते थे तब पढ़ते थे और घर के काम से फुरसत मिलने पर मेरी मां। हम भाई बहनों को उपन्यास से दूर रहने को कहा जाता था। इसलिए उनके प्रति आकर्षण बढ़ा और जब भी घर में अकेले रहने का मौका मिलता मैं उन्हें पढ़ता। मुश्किल यह थी कि मन बेचैन रहता कि आगे क्या हुआ लेकिन उपन्यास लौटा दिया जाता। आखिरकार हल यह निकला कि मैं अपने पाकेट मनी से उपन्यास किराये पर लाकर पढऩे लगा। वह भी देर रात तक पढ़ाई का बहाना कर। मेज की दराज हमेशा खुली रखता और जैसे ही मां के आने की आहट मिलती उपन्यास को दराज में डाल देता। तो रानू के उपन्यासों का उस किशोर उम्र में ऐसा प्रभाव पड़ा कि मैं बचपन से ही ऐसी प्रेमिका की तलाश में जुट गया जो अमीरजादी हो। स्वाभाविक था कि मेरे पिता क्लर्क थे और मुझे सबसे अमीर कंपनी के प्रमुख ही लगे। शाम को कंपनी की ओर से बना क्लब खुलता था जिसमें टेबिल टेनिस, ताश, चेस, कैरम, बैटमिंटन, बालीबाल खेलने की सुविधा थी। लाइब्रेरी भी थी। मैं शाम को क्लब रोज जाता था और जल्द ही मैं टेबिल टेनिस और बालीबाल का अच्छा खिलाड़ी बन गया। इन दोनों खेलों में मैंने कई पुरस्कार भी जीते। और खेलों मेरा करियर भी बन जाता अगर मैंने गेम्स कोटे में सीआरपीएफ सब इंस्पेक्टर की नौकरी में चयन होने के भर्ती हो गया होता। नासमझी में मैंने वह नौकरी ज्वाइन नहीं की थी।
तो बात चल रही थी खेलों की। मैं उन दिनों जिससे प्रेम करने का मन बनाये हुए था वह छुट्टियों में पंचगनी से वहां लौटती और शाम को टेबिल टेनिस खेलने आती जिसका मैं अच्छा खिलाड़ी था। और उससे अपनी बात सीधे कहने के बदले मैंने खत लिखने का जोखिम उठाया तो मेरे लिए मुसीबत बन गया।
मेरे खत मुसीबत तो उस लड़की के लिए भी बने जिसे मैं खत लिखता था। उसके कांवेंट स्कूल में खतों के मोटे लिफाफों के आने का सिलसिला चला तो स्कूल के सम्बंध विभाग को शुबहा हुआ। वार्डेन ने लिफाफा फाड़ा और खत पढऩे के बाद प्रिंसिपल तक पहुंचा दिया गया। बाद के भी कुछ खतों का यही हस्र हुआ और आखिरकार लड़की को बुलाकर खत लिखने वाले के बारे में पूछताछ की गयी। चूंकि खतों से भी यह स्पष्ट था कि मामला दोतरफा नहीं है और बात केवल प्रस्ताव के स्तर की है। खतों का तरीका रचनात्मक है तो लड़की को यह कहकर छोड़ दिया गया कि वह जब कभी पत्र लेखक से मिले उसे समझा दे कि खत न लिखे। अलबत्ता उसने दो महीने बाद मुझसे कहा था कि मैं उसे खत न लिखा करूं क्योंकि यदि खतों के बारे में उसकी प्रिंसिपल ने उसके पिता को बता दिया तो मेरे पिता की नौकरी खतरे में पड़ जायेगी। पत्र में लिखी बातों के बारे में उसका कहना था कि पत्र का ज्यादातर बातें उसकी भाषा कठिन होने के कारण समझ में नहीं आयी। प्रणय निवेदन और आईना-ए-दिल जैसे शब्द अंग्रेजी मीडियम में पढऩे वाली किशोरी के लिए कठिन थे। मेरे पत्र का और कोई जवाब नहीं मिला। खैर..पत्र तो मैंने उसे पहले ही लिखना छोड़ दिया था क्योंकि मेरी दो-दो बार घर में अच्छी खातिर हो चुकी थी और मेरे हर लिखे पर मां-बाबूजी की नजर रहती थी।
चूंकि मेरे जज्बातों का स्टाक अभी खत्म नहीं हुआ था सो मैंने गजलें और गीत लिखना जारी रखा और मैं अपने साहित्यकार बनने में उनका योगदान मैं मानता हूं। एक बात और मुझे बिगाडऩे वाले मेरे प्रिय उपन्यासकार रानू की उन्हीं दिनों मौत हो गयी। बाद में उनकी पत्नी सरला रानू ने उपन्यास लिखना शुरू किया था। मैंने उन दिनों उन्हें कुछ खत भी लिखे थे और वे पत्र का उत्तर भी देती थीं और अपने अगले उपन्यासों की सूचना भी लेकिन उनके उपन्यासों में वह बात नहीं थी जो किसी किशोर के जीवन की दिशा बदल दे। मैं यहां यह भी बताना चाहूंगा कि रानू के नायकों की तरह मैंने न सिर्फ लिखना शुरू किया था बल्कि पेंटिंग भी करने करने लगा था और उसे सराहा भी गया।
गजल या गजलनुमा जैसी बातें मैं उन्हीं दिनों से लिखता आया हूं, जो 'रतजगे' नाम से शायद कभी पाठकों के समक्ष आयें। फिलहाल वह अप्रकाशित है। मुझे तो इश्क ने लिखना भी सीखाया है और जीना भी, आप जो समझना चाहें समझें।
यहां यह बताना चाहूंगा कि वे पत्र एक रजिस्टर के पन्नों पर लिखे गये थे जिनकी संख्या नौ थी। लगभग ढाई सौ सफे के वे पत्र 13 साल के किशोर ने लिखे थे। उन पत्रों के जरिए पहली बार मैंने अपने सपनों को शब्द दिये थे और शब्दों को सपने। उसके बिना इतने सफे नहीं रंगे जा सकते थे। एक किशोर मन की आशाएं आकांक्षा भविष्य की योजनाएं, देश दुनिया को समझने का अपना नजरिया उनमें था। काश वे पत्र कहीं महफूज होते और मुझे मिल जाते। खुद हैरत होती है कि मेरे पास उन दिनों अनुभव जगत की कितनी बातें होंगी जिसे मैंने शब्द दे पाता। फिर बाकी बातों में क्या रहा होगा। इन पत्रों में भाषा के अभिनव प्रयोग करने के लिए मैंने नये शब्द सीखे। अभिव्यक्ति को सशक्त बनाने के भाषिक प्रयोग भी किये। प्रभावित करने के लिए लिखावट पर विशेष ध्यान दिया। मेरी लिखावट सुन्दर होती गयी। और एक दशक पहले तब तक सुन्दर रहीं, जब तक कि मेरे दायें हाथ की उंगलियां एक रिपोर्टिंग के दौरान पुलिस लाठीचार्ज में टूट कर छितरा नहीं गयीं। उंगलियां डेढ़ महीने तक प्लास्टर में रहने के बाद जुड़ीं तो लिखावट बदल गयी। अब हर वाक्य पिछले वाक्य से भिन्न लिखावट वाला होता है। पहला हस्ताक्षर उसके बाद वाले हस्ताक्षर से जुदा। बैंक के चेक पर कम से कम दो हस्ताक्षर करता हूं कि कोई तो मेल खायेगा

1 comment:

  1. और तो है जो है ही...
    आपके इस शेर ने जान ले ली है...
    कभी रोने के मैं सारे सलीके सीख जाऊंगा। किनारे झील के मैंने अभी रोकर नहीं देखा।....

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