Thursday, 11 March 2010

ना कहना परोपकार है मान्यवर

अपने देश के सदाचारों में ना नहीं करने की प्रथा भी शामिल है। 'हां' और 'ना' कहने को हमने लिहाज की श्रेणी में रखा है। और जो ना कहते हैं उन्हें बेलिहाज कहकर उनकी निन्दा की जाती है। शिष्टाचार का मामला जब कर्मक्षेत्र में प्रवेश करता है तो नयी मुश्किलें शुरू हो जाती हैं। अक्सर हम पाते हैं कि किसी काम से किसी अधिकारी के पास जाइये तो 'हां' या 'देखते हैं' का सिलसिला चल निकलता है और वह अन्तहीन हो जाता है। देखते देखते को प्राय: देखते ही रह जाना पड़ता है या फिर काफी अरसे बाद ना का सामना करना पड़ता है। इससे दोनों की पक्षों के मन में खटास पैदा हो जाती है। अच्छा होता कि पहले ही ना हो जाती। ना का गम बहुत नहीं होता तकलीफ होती है मामले के अरसे तक लटकने के बाद ना होना।
मोबाइल फोन पर भी काम के सम्बंध में पूछताछ कीजिए तो सुनने को मिलता है कि साहब तो मोबाइल घर पर या कार्यालय में भूल से छोड़ गये हैं। अभी उनसे बात नहीं हो पायेगी। या फिर तकनीकी कुशलता के कारण फोन एंगेज दिखायी देता है। बात हो भी गयी तो मुद्दे पर नहीं होती दूसरी उलझने की आड़ ले ली जाती है। प्यारे भाई ना कहना सीखें। ना कहकर आप लोगों को भला कर रहे हैं इसे समझिये। दिल तोडऩे से न डरें। 'ना' कहना परोपकार है यदि 'ना' ही कहना हो।

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