Thursday, 4 February 2010

प्रेरणा लें पर आभार भी तो जतायें गुलजार!


फिल्म 'इश्किया' में गुलजार के गीत 'इब्नबतूता, बगल में जूता..' विवादों में फंस गया है। इस गीत के गीतकार ऑस्कर जीत चुके गुलजार हैं लेकिन उन पर आरोप है कि उन्होंने यह गीत सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता 'इब्नबतूता पहन के जूता, निकल पड़े तूफान में..' से लिया गया है और पूरी फिल्म में उनको कहीं कोई श्रेय नहीं दिया गया है।
चूंकि मामला गुलजार साहब का है इसलिए मामला प्रेरणा लेने का है। प्रेरणा क्या सीधे-सीधे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के गीत की कुछ पंक्तियों को लिफ्ट करने का है। और इसमें कोई बुराई नहीं यदि वह फिल्म का मामला हो। करोड़ों रुपये फिल्म में लगे होते हैं इसलिए वह सिर्फ कला का मामला नहीं रह जाता बल्कि व्यवसाय का मामला अधिक हो जाता है। फिल्म जैसी कला की रचना की सफलता का आकलन भी उसकी कमाई के आधार पर होती है और यही कारण है कि प्रतिबद्ध फिल्मकारों अभिनेताओं की तुलना में व्यावसायिक स्तर पर कामयाब फिल्मकारों अभिनेताओं को सफल माना जाता है। अब जहां करोड़ों दांव पर लगे हों तो फिल्म को बेहतर बनाने के लिए दुनिया में जहां जिस क्षेत्र में भी कुछ बेहतर होता है उसे फिल्म वाले ले उड़ते हैं और किसी कलाकार के अभिनय, संवाद, गीत, संगीत, एक्शन, कहानी आदि सभी मामलों में दुनिया भर की फिल्मों को खंगाल डाला जाता है और उसे मिलाकर एक नयी फिल्म बनती है। फिल्म को कामयाब करने के लिए यह सब कुछ करने वालों से यह तो उम्मीद की ही जानी चाहिए कि वे फिल्म बनायें, कामयाब हों और नोट पीटें लेकिन जहां जहां से 'प्रेरणा' ली है उसका जिक्र भी करें और उसका समुचित भुगतान भी करें। (फिल्मी दुनिया में दूसरे की बौद्धिक सम्पदा को 'झाडऩे' को 'प्रेरणा' ही कहा जाता है)।
हमारे देश में कई ऐसी फिल्में कामयाब हुईं और बाद में पता चला कि उन्होंने अमुक विदेशी फिल्म से न सिर्फ कहानी उड़ायी थी बल्कि सीन दर सीन भी टीप लिया था। गुलजार जहां फिल्म इंडस्ट्री में हैं और वे आवश्यकतानुसार प्रेरित किये जाते या होते रहते हैं प्रेरणा लेने लिए तो हों इससे गुरेज नहीं होना चाहिए लेकिन पहले भी जिस प्रकार दूसरे रचनाकारों से प्रेरणा लेकर उनका आभार माना था वैसा ही करें तो हमें कोई दिक्कत नहीं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना एक अच्छे कवि थे। अज्ञेय के तीसरा सप्तक से उन्होंने अपनी विशिष्ट पहचान बनानी शुरू की थी और उन्होंने हिन्दी साहित्य को अद्भुत प्रेम और विद्रोह दोनों की कविताएं दी हैं।
घुम्मकड़ इब्ने बतूता ने दुनिया के सारे इस्लामी देशों के अलावा अफ्रीका और यूरोप, भारतीय उपमहाद्वीप की लगभग 75,000 मील की यात्रा की और इस दौरान उन्होंने कई खतरों का सामना किया और उनका सफर काफी रोमांचकारी रहा। मोरक्को के सुल्तान ने इब्ने बतूता की यात्रा को देखते हुए एक किताब लिखवाई। पश्चिम उत्तर प्रदेश की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म 'इश्किया' में भी नसीरूद्दीन शाह और अरशद वारसी भी कुछ इसी तरह की भूमिका में हैं इसलिये यह गाना फिल्माया गया है, जो दोनों किरदारों पर फिट बैठता है और लोगों की जुबां पर चढ़ गया है।
फिल्म इश्किया का गाना 'इब्नेबतूता' दर्शकों को काफी पसंद आ रहा है पर जिस कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के गीत का मुखड़ा फिल्म में लिया गया है उसके परिवारवाले काफी दुखी हैं। मोरक्को के विद्वान 'इब्ने बतूता' के घुम्मकड़ रवैये को दर्शाने के लिये सर्वेश्वर ने यह लिखी कविता लिखी थी। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की बेटी विभा सक्सेना का कहना है 'मेरे पिताजी ने इब्ने बतूता पर कविता लिखी थी, लेकिन गुलजार साहब ने इसमें थोड़े बदलाव करते हुए यह गाना लिखा है। हमें दुख इस बात का है कि कहीं भी उन्हें श्रेय नहीं दिया गया या ऐसा नहीं बताया गया कि यह गाना सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता 'इब्ने बतूता' से प्रेरित है।' गुलजार साहब खुद एक कवि हैं और अगर वह गाने की पंक्तियां कहीं से उतारते हैं तो उसे हमेशा श्रेय देते हैं। उनकी गरिमा इसी में होगी कि वे मेरे पिताजी को श्रेय दें क्योंकि मेरे पिताजी अब इस दुनिया में नहीं हैं।'
सक्सेना की कविता के बोल इस प्रकार है, 'इब्नेबतूता पहन के जूता, निकल पड़े तूफान में, थोड़ी हवा नाक में घुस गई, घुस गई थोड़ी कान में। कभी नाक को, कभी कान को, मलते इब्नेबतूता, इस बीच में निकल पड़ा, उनके पैरों का जूता। उड़ते उड़ते जूता उनका, जा पहुंचा जापान में, इब्नेबतूता खड़े रह गये, मोची की दुकान में।' विभा सक्सेना के अनुसार-'हमारा परिवार और सभी साहित्यकार यही चाहते हैं कि सिर्फ मेरे पिताजी की कविता को श्रेय दिया जाये।'

जो लोग साहित्य रचने से ताल्लुक रखते हैं उन्हें यह स्वाभाविक तौर पर पता होगा कि कई बार लेखक अनजाने की दूसरे की पंक्तियां अपनी रचना में इस्तेमाल कर बैठता है। उसका कारण यह है कि लेखन कार्य काफी कुछ अवचेतन से सम्बंध रखता है और अचेतन मन में कई बार पुरानी पढ़ी रही रचनाएं भी रहती हैं। जो अरसे बाद याद आती हैं और कई बार लेखक को यह भी भ्रम हो जाता है कि यह दूसरे की नहीं बल्कि उसी की सोच है। मैंने अब तक इस पूरे प्रकरण में गुलजार की प्रतिक्रिया नहीं पढ़ी है। वस्तुस्थिति के सम्बंध में तो वे ही बता सकते हैं। मैं तो उनका लिखा पढ़ते-लिखते-गुनते हुए बड़ा हुआ हूं। और उन्हें किसी भी कीमत पर उन्हें साहित्यिक चोर कहे जाने को स्वीकार नहीं कर सकता।

2 comments:

  1. साहित्‍यकार कहीं से कुछ भी ले लेता है और फिल्‍म वाले तो ऐसा कुछ अधिक ही करते हैं। गुलजार साहब ने भी इसे सहजता से ही लिया होगा। उन्‍हें क्‍या पता कि विवाद हो जाएगा। इब्‍नबतूता और जूता ऐसे शब्‍द हैं जो स्‍वत: ही नहीं उपजते, इन्‍हें तो पढ़कर उठाया ही होगा। तो प्रेरणा का श्रेय भी देना चाहिए। अब पुराना जमाना नहीं रह गया।

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  2. तत्काल एक्सप्रेस का सफर सुखद रहा। विचार प्रवाह जारी रखें।

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