Friday, 26 February 2010
हुसैन: अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतंत्र
विचारक, समाजसुधारक, वैज्ञानिक, राजनेता, सामाजिक कार्यकता समाज को बदलते हैं और इसमें कलाकारों की भी भूमिका को स्वीकार किया जाता रहा है। लेकिन हाल के वर्षों में इस बात का रोना रोया जाता रहा है कि कलाकारों-साहित्यकारों का समाज में कद घट गया है और समाज को निर्देशित करने में उनकी भूमिका नगण्य होती जा रही है। पेंटिंग, नाटक, कविता, कहानी-उपन्यास, गायन, फिल्म आदि से जुड़े लोगों को समाज के मुख्य अंग के रूप में नहीं बल्कि अलंकार के रूप में देखा जाता है। समाज में यदि सब कुछ ठीक-ठाक है तो कला भी हो जाये का नजरिया आम है। साहित्य में सार्वजनिक तौर पर यह कहकर तमाम मलामतें की जाती हैं कि साहब, साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल होना चाहिए था किन्तु वह तो राजनीति का पिछलग्गू हो गया है।
इधर, राजनीति की तटस्थ आलोचना का दौर नहीं रह गया है और राजनीति की आलोचना का विवेक खेमे तय करते हैं और एक राजनीतिक दल अपने प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल की आलोचना तक ही अपने को सीमित रखते हैं किन्तु व्यक्ति द्वारा राजनीतिक दल की आलोचना की आवाज कम सुनायी देती है जिससे तटस्थता का घोर संकट दिखायी दे रहा है। यह काम साहित्य और अन्य कलाएं कर सकती हैं, कर भी रही हैं।
मशहूर चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन, लेखिका तसलीमा नसरीन, फिल्म अभिनेता शाहरुख खान, उपन्यासकार सलमान रुश्दी आदि के प्रसंग में यह गौर करने की बात है कि धार्मिक कट्टरता से इन्हें लोहा लेना पड़ रहा है और इन कलाकारों के वक्तव्य किन्हीं अन्य क्षेत्र से जुड़े लोगों की तुलना में अधिक प्रतिक्रिया पैदा कर रहे हैं। इन कलाकारों की अभिव्यक्ति से सरकारें हिल जा रही हैं चिन्तित और परेशान हो जा रही हैं, राजनीतिक दलों को अपने एजेंडों में फेरबदल करने की आवश्यकता महसूस होने लगती है। तसलीमा नसरीन का मामला देखें तो पता चलता है कि उस तसलीमा नसरीन को राजनीतिक दबाव में वह कोलकाता छोडऩा पड़ता है, जिसे वे अपना घर ही मानतीं हैं और देशदुनिया में जहां कहीं वे बसना चाहती हैं उनमें केवल एक शहर कोलकाता और सिर्फ कोलकाता है। एमएफ हुसैन को उम्र के अंतिम पड़ाव में अपना देश छोड़कर विदेश में रहना पड़ता है और सलमान रुश्दी को इतने समय तक छिप कर रहना पड़ता है कि उनका पारिवारिक जीवन ही छिन्न-भिन्न हो उठता है। सलमान खान को बार-बार यह कहना पड़ता है कि देश के प्रति उनकी वफादारी असंदिग्ध है।
शाहरुख प्रकरण ने महाराष्ट्र के कट्टरपंथियों की हवा निकाल दी तो अब एमएफ हुसैन को लेकर हिन्दुत्व की राजनीति में भी परिवर्तन घटित हो रहा है। हिंदू देवी देवताओं की आपत्तिजनक चित्र बनाने को लेकर हुसैन का हिंदूवादी संगठनों से खासा विवाद रहा है और इसके चलते वे इन दिनों दुबई और लंदन में रह रहे हैं। अब उन्हें कतर की नागरिकता प्रदान की गई है। हुसैन के प्रकरण को लेकर हिन्दूवादी संगठनों को दुनिया भर में भद पिट रही है। और सिर्फ़ हिन्दूवादी संगठनों की नहीं बल्कि समूचे भारत की, जिसकी सरकार एक कलाकार की अभिव्यक्ति की आज़ादी सुनिश्चित नहीं कर पा रही है। यह लाचारी उस मानसिकता व दबाव के कारण आयी है जहां धर्म राजनीतिक वोटबैंक है। दुनिया भर में इससे संदेश जा रहा है कि भारत की सरकार कट्टरपंथी ताकतों के आगे घुटने टेके हुए है जिसके कारण अभिव्यक्ति की आज़ादी खतरे में है।
खुद हुसैन ने अपनी एक पेंटिग के साथ ये लिखा है कि.. मैं भारतीय मूल का चित्रकार एम एफ हुसैन, को 95 साल की उम्र में कतर की नागरिकता प्रदान की गई है। एक अंग्रेजी अखबार में छपी इस पेंटिग के साथ ही हुसैन ने ये भी कहा है कि उन्होंने किसी भी देश की नागरिकता के लिए आवेदन नहीं किया था।
कहने का मतलब यह कि जो देश अपने नागरिकों को अभिव्यक्ति की आजादी नहीं दे सकता उसके लोकतांत्रिक होने के औचित्य पर विचार किया जाना चाहिए। लोकतंत्र में दूसरों की भावनाओं का खयाल रखने की उम्मीद तो की जानी चाहिए लेकिन अपनी बात कहने का आजादी सर्वोपरि है, यह नहीं भूलना चाहिए। एक कलाकार के रूप में हुसैन के लिए क़तर ही नहीं, दुनियाभर के दरवाज़े खुले हैं पर क्या हमें यह नहीं विचार करना चाहिए कि हम अपने एक महान कलाकार को खोकर क्या पायेंगे? एक कट्टरपंथी चेहरा लेकर हम दुनिया को समानता का पाठ नहीं पढ़ा सकते और ना ही विश्व के अगुआ देश की भूमिका का निर्वाह करने की योग्यता रखेंगे।
यह तो अच्छा है कि कतर प्रकरण के बाद संघ ने हुसैन को लेकर अपना सुर बदला है। तिरुवनंतपुरम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा है हुसैन यदि देश में रहने के लिए आते हैं और अपनी चित्रकारी को जारी रखते हैं तो आरएसएस की तरफ से उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें देश और देशवासियों की भावनाओं की आहत नहीं करना चाहिए तथा समाज की सोच को समझना चाहिए। भागवत ने कहा कि हर कलाकार को काम करने की स्वतंत्रता है लेकिन उनकी कुछ सीमाएं होनी चाहिए तथा उन्हें समाज के लोगों की भावनाओं को आहत नहीं करना चाहिए। अब यह काम भागवत जी कलाकारों पर ही छोड़ दें तो अच्छा होगा कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं! नैतिक गुरुओं की सलाह पर न तो कोई कलाकार कुछ रचता है और ना ही उसे रचना चाहिए। यदि बनी बनायी नैतकिताओं पर कदमताल जारी रहा तो नयी नैतिकताओं का निर्माण कौन करेगा? तसलीमा ने तो लोगों की भावनाओं की कद्र करते हुए अपनी रचना से विवादास्पद हिस्से हटा दिये थे जिससे लोगों की भावनाएं आहत हो रही थीं लेकिन उससे क्या हुआ। क्या उनके प्रति प्रतिरोध कम हुआ? क्या उनकी कोलकाता वापसी हो पायी? कट्टरपंथियों का मुकाबला विचार से ही हो सकता है, समाज में खुले मन और मानसिकता तैयार किये जाने की आवश्यकता है और जिन विकृतियों पर कलाकार ऊंगली उठाता है उस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। कलाकृतियों को नष्ट करने या उन्हें प्रतिबंधित करने से नहीं कुछ नहीं होने वाला।
सुनते हैं कि हुसैन ने कतर की नागरिकता की पेशकश स्वीकार कर ली है और इसकी प्रक्रिया पूरी होते ही वे भारत के नागरिक नहीं रह जाएंगे। हिंदू देवी देवताओं के अपने चित्रों को लेकर हिंदू संगठनों की नाराजगी झेल रहे हुसैन करीब चार साल से स्वेच्छा से निर्वासित जीवन बिता रहे हैं। उनके बेटे ओवैस हुसैन ने बताया कि उनके पिता ने कतर की नागरिकता की पेशकश मंजूर कर ली है। भारतीय कानून दोहरी नागरिकता की इजाजत नहीं देते और इसलिए कतर के नागरिक बनते ही उनकी भारतीय नागरिकता स्वत: समाप्त हो जाएगी। यह भारत के लचर लोकतांत्रिक इतिहास का एक कलंक ही माना जायेगा। हुसैन क्या किसी भी कलाकार की परिधि देश जैसी सीमाओं से कहीं व्यापक होती है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समक्ष कलाकार कई कई देश कुर्बान कर सकता है। कलाकारों की नागरिकता स्वभावतः वैश्विक होती है।
जापान ने कभी बामियान में बुद्ध की प्रतिमाओं को तोडऩे से तालिबान को रोकने के लिए उसके सामने इन्हें छिपाने की पेशकश की थी, लेकिन इस कट्टरपंथी संगठन ने जापानियों को इस्लाम कबूल करने की सलाह दे डाली। तालिबान के शासन में पाकिस्तान में अफगानिस्तान के राजदूत रहे अब्दुल सलाम जईफ ने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि जापान तालिबान पर दबाव बनाने वाला सबसे सक्रिय देश था ताकि 2001 में 1500 साल पुरानी प्रतिमाओं को तोडऩे से उसे रोका जा सके। अमेरिका में प्रकाशित जईफ के संस्मरण 'माई लाइफ विद तालिबान' में कहा गया है किजापान की तरफ से एक और सलाह दी गयी कि प्रतिमाओं को सिर से लेकर पैरों तक इस कदर ढक दिया जाए कि किसी को पता न चले कि ये वहां थीं।
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