भारतीय समाजिक जीवन में तेजी से बदलाव आ रहे हैं। मेरा खयाल बदवाव की गतिशीलता में तेजी का कारण मीडिया की लोगों तक व्यापक पहुंच और व्यवसाय के भूमंडलीकरण रहा है। एक देश के मूल्य तेजी से दूसरे देश के मूल्य को प्रभावित कर रहे हैं। आने वाले समय में विश्व स्तर पर मिली-जुली संस्कृति का ही बोलबाला हो जायेगा। जीवन शैली और मूल्य में कोई भी नयापन हमें नहीं चौंकायेगा। और यह जो भारत में एक साथ कई कई दौर के एक साथ जी रहे हैं उसमें और वैविध्य आयेगा। भविष्य की फिल्म भारत में बनने लगी हैं। भारत दुनिया के भविष्य के एजेंडे तय करने में लगा है ऐसे में अदालतों के फैसले यदि युगानुकूल आते हैं तो यह समाज के स्वास्थ्य के लिए संतोषप्रद है। दरअसल न्याय या दंड की अवधारणा से जुड़े मुद्दे ही किसी समाज की आधुनिकता या पिछड़ेपन का सूचक हैं। जिन पंचायतों में आनर किलिंग की घटनाएं घटती हैं वे कबीला कल्चर से अभी बाहर नहीं निकला पाये हैं और उससे निजात दिलाने के लिए आधुनिक समाज को हस्तक्षेप भी करना चाहिए। खैर ...
देश की उच्चतम न्यायालय ने विवाह पूर्व यौन सम्बन्धों और सहजीवन की वकालत करने वाले लोगों के अनुकूल व्यवस्था देते हुए 23 मार्च 2010 को कहा कि किसी महिला और पुरुष के बगैर शादी किये एक साथ रहने को अपराध नहीं माना जा सकता। प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति के. जी. बालकृष्णन, न्यायमूर्ति दीपक वर्मा और न्यायमूर्ति बी. एस. चौहान के पीठ ने कहा, 'दो बालिग लोगों का एक साथ रहना आखिर कौन सा गुनाह है। क्या यह कोई अपराध है? एक साथ रहना कोई गुनाह नहीं है। यह कोई अपराध नहीं हो सकता।' न्यायालय ने कहा कि यहां तक कि पौराणिक कथाओं के मुताबिक भगवान कृष्ण और राधा भी साथ-साथ रहते थे। सहजीवन या विवाह पूर्व यौन सम्बन्धों पर रोक के लिए कोई कानून नहीं है। न्यायालय ने यह व्यवस्था दक्षिण भारतीय अभिनेत्री खुशबू की विशेष अनुमति याचिका पर सुनवाई के दौरान अपना फैसला सुरक्षित करते हुए दी है। शिकायतकर्ताओं के वकील का कहना था कि विवाह पूर्व यौन सम्बन्धों के कथित समर्थन वाली खुशबू की टिप्पणियों से युवाओं का मन भटकेगा नतीजतन मर्यादाओं और नैतिक मूल्यों का पतन होगा। पीठ ने देश के नागरिकों को जीवन जीने और स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार देने वाले संविधान के 21वें अनुच्छेद का हवाला देते हुए कहा, 'कृपया हमें बताएं कि ऐसा आचरण किस धारा के तहत अपराध है। साथ रहना जीवन का अधिकार है।
मैंने इस विषय पर दो दशक पहले उपन्यास लिखा था 'अनचाहे दरवाज़े पर'। उस समय इस उपन्यास को साहित्यिक हलके ने रुचि के साथ देखा लेकिन कोई भी प्रतिक्रिया मुझे नहीं प्राप्त हुई। लोगों ने यह जरूर कहा कि वे उसे दुबारा पढ़ गये हैं किन्तु उस पर सार्वजनिक टिप्पणियों से उसे पढऩे वाले बचे। त्रिलोचन जी ने अलबत्त्ता मुझसे यहां तक कहा था कि ऐसा नायिका हिन्दी साहित्य में नहीं है मैं दिल्ली वालों को यह उपन्यास दिखाऊंगा।
साहित्य भी यदि अपने समाज की सीमाओं से बंधा रहेगा तो प्रतिक्रिया कौन देगा? क्या समाज को दिशा देने वाले चिन्तकों को अपनी राय व्यक्त करने से पहले अदालतों का इन्तजार करना चाहिए? मैं समझता हूं साहित्य व संस्कृति से जुड़े लोगों को उन रास्तों का संधान करना चाहिए जहां समाज को सहज और स्वाभाविक जीवन मुहैया कराया जा सके। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.करुणानिधि ने उच्चतम न्यायालय की इस टिप्पणी का स्वागत किया है। करुणानिधि ने कहा कि विवाह पूर्व यौन संबंधों का उल्लेख संगम साहित्य काल में भी मिलता है।
मुझे यकीन है कि इस तरह का जीवन अधिक मानवीय मूल्यों से जुड़ा है क्योंकि इसमें जिम्मेदारियों के प्रति कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। कानूनी मान्यताओं ने वैवाहिक रिश्ते का काफी हद तक मशीनीकरण कर दिया है और दोनों पक्ष रिश्ते के खूबसूरत पहलुओं की लगातार अनदेखी करते जीते हैं।
पारिवारिक रिश्तों के प्रति अधिकारों और जिम्मेदारियों की जितनी बात कानूनन मान्य है क्या उतने का ही निर्वाह हम व्यावहारिक जीवन में करते हैं। कानूनन तो दहेज को जुर्म करार दिया जा चुका है। फिर भी बेटी के पिता बेटे के बेचने वालों की फितरत को जानते हुए अपने जीवन की ज्यादातर पूंजी बेटी के लिए जुटाते रहते हैं और उसे बेटी पर न्यौछावर कर देते हैं। किस किताब में लिखा है कि अपनी औलाद को महंगी से महंगी तालीम देना कानूनन मज़बूरी है फिर भी लोग कर्ज लेकर भी आलौदों को पढ़ाते लिखाते हैं। उनकी सेहत के लिए चिन्तित रहते हैं वक्त पढ़ने पर मां-बाप अपनी संतान के लिए जान देने से भी पीछे नहीं हटते। मतलब यह कि रिश्तों में कानून भी होता किन्तु उसका दायरा ज्यादातर सुरक्षा और नियमन से जुड़ा होता है। रिश्तों की गर्माहट, उसे स्वस्थ बनाने के उपक्रमों से नहीं। आज के दौर में हम पाते हैं कि एकल परिवारों का प्रचलन तेजी से बढ़ा है ऐसे में दूर के रिश्तेदारों से सम्पर्क केवल रस्मी होता है उनकी तुलना में दोस्ती के रिश्ते अधिक करीबी होते हैं। अनुभव यह बताता है कि जिन सम्बंधों में कानूनी बाध्यता नहीं होती वे अधिक संवेदना से भरे होते हैं। स्त्री पुरुष के सहजीवन में यदि कानूनी बाध्यताएं न हों तो भी बेहतर जीवन जिया जा सकता है बल्कि तब जीवन और बेहतर होने की संभावना हो सकती है। यदि इन रिश्तों के प्रति समाज का नजरिया बदलता है तो समाज यह भी दबाव बना सकता है आर्थिक सुरक्षा के कानूनी अधिकार भी बनें और ऐसे रिश्ते से पैदा हुई संतान की जिम्मेदारी की नियमन भी हो। फिलहाल तो अदालत का फैसला ऐतिहासिक महत्व का है। बहुत से देश ऐसे हैं दुनिया में जहां लीव इन रिलेशन को सामाजिक मान्यता है। शहरी जीवन की आपाधापी में यदि ऐसे रिश्ते भारत में भी हैं तो उस पर हायतौबा मचाने की कोई आवश्यकता नहीं है।
dr.abhigyaat ji assalamoalekum aapke gyaat vichar padhe aap sahi hen hmaara desh vicharon,sanskriti,bahaduri,imandari,netikta men visv men nomber one raha he aapke vicharon se men sehmat hun .akhtar khan akela advocate kota rajasthan ```
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