Thursday 27 May 2010

न्याय की एक नयी व्यवस्था की रूपरेखा

Sanmarg-6 June 2010


पुस्तक समीक्षा

पुस्तक का नाम-न्याय का स्वरूप/ लेखक- अमर्त्य सेन/प्रकाशक-राजपाल एण्ड सन्ज़, कश्मीरी गेट, दिल्ली-110006/मूल्य-425 रुपये।

जाने माने अर्थशास्त्री डॉ.अमर्त्य सेन के विचार अर्थशास्त्रीय अध्ययन के लिए ही नहीं जाने जाते बल्कि उनके सामाजिक सरोकार दुनिया को अलग-अलग प्रसंगों में भी आकृष्ट करते रहे हैं। उनके अर्थशास्त्र की परिधि में वे तमाम मुद्दे स्वयं आ जाते हैं जो मनुष्य मात्र को किसी भी तौर पर प्रभावित करते हैं और साथ ही सामाजिक अध्ययन के विभिन्न पहलुओं को समझने में भी सहायक होते हैं। दरअसल दर्शन के प्रति सेन का लगाव उनकी दृष्टि को एक ऐसी ऊंचाई देता है जहां से वे मनुष्य की अनिष्टकारी शक्तियों की कार्यपद्धति को बारीकी से समझते, समझाते नजर आते हैं। गरीबी, अकाल और मनुष्य की सभ्यता का विकास ही उनके अध्ययन की जद में नहीं रह जाता है वे वहां तक जाते हैं जहां विभिन्न समुदायों में अलग-अलग परिवेश में जी रहे मनुष्य के प्रति हो रहे विभिन्न स्तर पर अन्याय हो रहा है।
इन दिनों अमरीका स्थित हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में दर्शन और अर्थशास्त्र के प्रोफेसर सेन का हाल ही में प्रकाशित उनका नया ग्रंथ 'द आइडिया ऑफ जस्टिस' उसका पुख्ता उदाहरण है जिसका हिन्दी अनुवाद 'न्याय का स्वरूप' नाम से प्रकाशित हुआ है। अनुवाद भवानीशंकर बागला ने किया है। इस ग्रंथ में वे न्याय की अवधारणा और अन्याय के विभिन्न स्वरूपों की विस्तृत व्याख्या केवल तथ्यात्मक आधार पर नहीं करते बल्कि इस क्रम में उस करुणा तक भी जाते हैं जो उनके आशयों को केवल सामाजिक अध्ययन बनने से बचाता है। दुनिया की सारी कृतियां किसी न किसी रूप में न्याय और अन्याय को ही परिभाषित करती रही हैं, इस क्रम में प्रो.सेन की इस कृति को देखा जाना चाहिए जो हमें न्याय के प्रति अपनी अवधारणा को आद्यतन करने में सहायता पहुंचाती है।
कृति के प्राक्कथन की शुरुआत ही डॉ.सेन ने उपन्यासकार चाल्र्स डिकेन्स के उपन्यास 'ग्रेट एक्सपेक्टेशन्स' के उल्लेख से करते हैं और अन्याय के अहसास की चर्चा करते हैं। यह जो 'अहसास' का उल्लेख है वह उनके अध्ययन को अधिक अर्थवान, अधिक मानवीय और अधिक प्रासंगिक बनाता है। सेन इस निष्कर्ष तक हमें ले जाते हैं कि यह यह अहसास ही है, जो अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करने को तैयार करता है।
सेन ने स्पष्ट किया है कि इस कृति का उद्देश्य है- 'हम किस प्रकार अन्याय को कम करते हुए न्याय का संवर्धन कर सकते हैं।'
न्याय को लेकर विविध विचार सरणियों का चर्चा के बीच वे प्रमुख रूप से जॉन रॉल्स के विचारों के साथ खड़े दिखायी देते हैं क्योंकि उन्होंने व्यक्तियों को अपने जीवन को अपने ढंग से जी पाने का सही अवसर प्रदान करने की आवश्यकता को परोक्ष तौर पर स्वीकृति दी थी। रॉल्स के सम्बंध में सेन कहते हैं- 'मानवीय स्वतंत्रता को सहायक रूप से रेखांकित कर रॉल्स ने अपने न्याय-सिद्धांत में स्वतंत्रताविषयक विचारों को एक निश्चित स्थान तो प्रदान कर ही दिया है।' सेन न्यायविषयक विचारों के सिद्धांतकारों की चर्चा तो करते हैं कि वे उनमें उन तत्वों को रेखांकित करते हैं जिनमें साझी मान्यताएं समाहित हैं। हालांकि वे किसी भी सिद्धांत या मत को अंतिम मानने से परहेज करते हैं वे कहते हैं-'हम न्याय की अन्वेषणा किसी भी विधि से करने का प्रयास करते रहें पर मानव जीवन में यह अन्वेषणा कभी समाप्त नहीं हो सकती।'
एक नयी सोच के साथ न्याय की व्यवस्था के विविध पक्षों पर मौलिक विचार से लैस यह कृति अन्याय के विरुद्ध एक सार्थक आवाज उठाती है और न्याय की एक नयी व्यवस्था की रूपरेखा प्रस्तुत करती है। भारतीय समाज के लिए यह और भी प्रासंगिक है क्योंकि यहां गांव देहात में खाप पंचायतों का अस्तित्व अब भी है जो ऑनर कि लिंग के दोष में किसी की हत्या तक के फरमान जारी कर देती है तो किसी अन्य प्रदेश की पंचायत किसी महिला को डाइन कह कर प्रताडित करने से गुरेज नहीं रखती।
अपने-अपने समय में दुनियाभर के विचारकों रूसो, कांट, लॉक, हॉब्स ने न्याय पर विचार किया है। इस क्रम में डॉ.सेन की इस कृति को भी देखा जाना चाहिए। यहां यह उल्लेखनीय है कि उन्होंने इसके पूर्व आर्थिक विषमताएं, गरीबी और अकाल, भारतीय राज्यों का विकास, भारतीय विकास की दिशाएं, आर्थिक विकास और स्वातंत्र्य, हिंसा और अस्मिता का संकट, भारतीय अर्थतंत्र: इतिहास और संस्कृति जैसी रचनाएं विश्व को दी हैं। 1998 में अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार से उन्हें सम्मानित किया गया था।
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