Monday, 28 September 2009

हिन्दी के प्रचार प्रसार में मीडिया की भूमिका


हिन्दी आज विश्व की दूसरी बड़ी भाषा है और उसकी साख दिनों दिन बढ़ती जा रही है। अमरीका जैसे विकसित और विश्व के अगुआ देश में हिन्दी के पठन-पाठन का महत्त्व दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। हिन्दी फिल्म उद्योग विश्व में एक बड़े उद्योग के रूप में स्थापित हुआ है और हिन्दी संगीत को बोलबाला भी बढ़ा है। हिन्दी के समाचार पत्रों की संख्या और उनकी प्रसार संख्या में गुणात्मक परिवर्तन आया है। हिन्दी पत्रिकाओं की तादाद बढ़ी है। यूनिकोड फोंट के विकास के बाद इंटरनेट की दुनिया में क्रांतिकारी परिवर्तन घटित हुआ है और इंटरनेट पर हिन्दी का प्रभुत्त्व दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। हिन्दी टीवी मनोरंजक चैनलों और समाचार चैनलों की बाढ़ सी आ गयी है।

हिन्दी का फलक दिनों दिन विस्तृत होता जा रहा है। इस प्रचार प्रसार में सरकार की भूमिका उतनी बड़ी नहीं है जितनी मीडिया की। इसका उदाहरण अपने पश्चिम बंगाल की स्थित से ही लगा लें। यहां हिन्दी समाचार पत्रों की संख्या बढ़ती जा रही है। पहले जहां सन्मार्ग, विश्वमित्र जैसे गिनती के बड़े समाचार पत्र यहां थे अब वहीं जनसत्ता, प्रभात खबर, राजस्थान पत्रिका, दैनिक जागरण जैसे बड़े मीडिया घरानों के अखबार यहां से निकल रहे हैं और वागर्थ जैसी राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक पत्रिका इसी भारतीय भाषा परिषद से निकल रही है। कहना न होगा कि यह सब निजी प्रयासों से संभव हुआ है सरकार से इन प्रयासों का कोई लेना देना नहीं। एक गैर हिन्दी भाषी प्रांत में हिन्दी को लेकर इतने गंभीर प्रयास इस बात का पुख्ता प्रमाण हैं कि हिन्दी के प्रचार प्रसार में मीडिया एक कारगर भूमिका का निर्वाह कर रहा है। आज हिन्दी फिल्मों, फिल्मी गीतों, ग़ज़लों, टीवी धारावाहिकों, समाचार चैनलों ने हिन्दी को जबरदस्त लोकप्रियता प्रदान की है। गैर हिन्दी भाषी व्यक्ति भी इन कार्यक्रमों को देखकर हिन्दी सीख रहा है और हिन्दी की ताकत को अनायास बढ़ा रहा है। आज जो हिन्दी लोकप्रिय हो रही है वह आम जनता की जुबान वाली हिन्दी है। वह हिन्दी नहीं जिसे सरकारी तंत्र बढ़ावा दे रहा है। हैरत तो तब होती है जब लोगों की जुबान पर चढ़ चुके अंग्रेजी के सामान्य से शब्द सरकारी प्रयासों से हिन्दी में ढल कर लोगों को सामने आ जाते हैं और स्वयं हिन्दीभाषियों के लिए उनका अर्थ समझ पाना मुश्किल होता है। मीडिया देशज शब्दों से परहेज नहीं करता जो लोगों की जुबान पर चढ़े होते हैं उनका वह धड़ल्ले से इस्तेमाल कर उसे हिन्दी का हिस्सा बना देता है दूसरी तरफ अंग्रेजी व अन्य भाषाओं के प्रयोगों से भी गुरेज नहीं रखता तो हिन्दी का न होते हुए भी हिन्दी जन के करीब हैं। लोगों की जुबान ही मीडिया की पाठशाला होती है वह उन्हीं से प्रेरित और मार्गदर्शित होता है और उसे उसी की जुबान में ज्ञान की विविध सरणियों की बातों को ढालता है। सही अर्थों में कहा जाये तो मीडिया ही वह टकसाल है जहां भाषा गढ़ती है और हिन्दी के जो भव्य और विस्तृत रूप निखर कर सामने आया है उसमें मीडिया की महती भूमिका है।
मीडिया ही वह तंत्र है जिसने दुनिया भर को बताया कि हिन्दी के पास बहुत बड़ा बाजार है। और बाजार केन्द्रित व्यवस्था ने हिन्दी की साख को स्वीकार किया है। कहना न होगा कि जैसे जैसे बाजार की भूमिका बढ़ती जायेगी हिन्दी का महत्त्व बढ़ता जायेगा।
प्रसंगवश यहां मीडिया की भाषा की अन्य अन्यत्र इस्तेमाल हो रही भाषा से तुलना ग़लत न होगी।
विश्वविद्यालयों में मृत भाषाएं पढ़ी-पढ़ाई जाती हैं, क्योंकि उनकी भाषा शास्त्रीय होती है। शास्त्र मृत भाषाओं की कब्रगाह होते हैं, उसके विपरीत मीडिया की भाषा सबसे टटकी, सबसे ताज़ा होती है। धड़कती हुई। साहित्य भी मृत भाषाओं को उठाता है किन्तु वह उन्हें पुनर्जीवन देता है, उनमें नयी प्राण प्रतिष्ठा करता है नये अर्थ देता है, नया यौवन। सरकारी प्रयास व राजभाषा समितियां जिस भाषा को गढ़ती हैं वे न तो कभी जीवित होती हैं और न उनमें कभी जान आ सकती है। वे भाषाओं के बिजूखा गढ़ते हैं।
आज के समय में भाषा के प्रचार-प्रसार के मामले में मीडिया ही पहला दावेदार है। पत्रकार कई बार जान हथेली पर लेकर घटनास्थल से सीधे रिपोर्टिंग करते हैं जहां उनके सामने एकदम नये हालात होते हैं। जिस पर वह तत्काल प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। उस समय उसके पास कोई शास्त्र नहीं होता। शब्दों पर पुनर्विचार का समय नहीं होता। वह जिस भाषा का जिस स्थिति में प्रयोग करता है उस पर कई बार एयरकंडीशन कमरों में बैठकर आराम से काफी पीते हुए टीवी देखते हुए विद्वतजन भाषा की जुगाली करते हुए कहते हैं पत्रकार का लिंग सही नहीं है। वह अंग्रेजी शब्दों का अधिक इस्तेमाल कर रहा है। वाक्य विन्यास सही नहीं है। शब्दों का उच्चारण भी दोषपूर्ण है। कई बार वही स्थितियां प्रिंट मीडिया के लोगों के समक्ष उस समय होती हैं जब डेटलाइन की सीमा पार होती रहती है, प्लेट छूट रही होती है और कोई विस्फोट की खबर फ्लैश होती है।

आनन-फानन में भाषा का जो रूप जनता के सामने आता है उसके आधार पर मीडिया की भाषा का मूल्यांकन व्याकरण के नियमों के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए। भाषा का सम्बंध स्थितियों से होता है और उसी में उसका सौन्दर्य भी होता है और भाषा की अर्थवत्ता भी।

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