Sunday 3 February 2019

अपराजेय जिजीविषा के दस्तावेज


पुस्तक समीक्षा

पुस्तक का नाम : सरगम के सुर साधे/लेखक : ध्रुवदे‍व मिश्र पाषाण/प्रकाशक : प्रतिवाद प्रकाशन, 1/5 पी.के.राय चौधुरी सेकेण्ड बाई लेन, पो. : बी. गार्डेन, हावड़ा-711103
वरिष्ठ ध्रुवदे‍व मिश्र 'पाषाण' पहली ही कविता पढ़ते हुए जैसे महाप्राण निराला को पढ़ने का भ्रम होता है। जामुन के पेड़ पर लिखी कविता है -'सरगम के सुर सधे।' नाम भी संगीत से जुड़ा है और कविता छंदबद्ध -'धरती में/गहरे धंसी जड़ों की फांस-फांस/शिरा-शिरा ऊपर चढ़ता/तरु की नस-नस/जीवन-जल। उगते शाख-शाख पत्ते/हवा-हवा झूम झूम/हिलते पत्ते/जुड़ते-जुड़ते पाखी/पांख-पांख/फर-फर/सर-सर/सरगम के सुर साधे पाखी।' इस कविता में उनकी अपराजेय जिजीविषा, प्रकृति प्रेम और उसका संगीत पाठक को अपनी गिरफ्त में ले लेता है... और हम आश्वस्त होते हैं कि-'नहीं चुकेगा/धरती का/जीवन-जल।/नहीं रुकेगा/शाख-शाख/उगते-झरने का क्रम/प्रलय कीच में/खिला करेगा/सृष्टि-कमल हरदम।' यह अनायास नहीं है कि दूसरी कविता मुक्तिबोध से सम्बद्ध है। उसका नाम ही है-'एक हर्फनामा: मुक्तिबोध से जुड़ते हुए'। इस कविता में वामपंथी चेतना पर विश्वास और मेहनकशों की विजय के स्वप्न अब भी जीवित हैं-'गांव-शहर उमड़ती भीड़/बदलेगी/सत्ता-समाज का जीर्ण-शीर्ण/व्याकरण/धरती की रक्ताक्त हथेली पर/रचेगी हरियाली की भाषा।'
पाषाण जी सदैव हमारे समक्ष एक ऐसे रचनाकार के तौर पर उपस्थित रहते हैं जिसने सांस्कृतिक मोर्चे पर हर पराजय के बाद अपने को नयी ऊर्जा से लैस किया है। इस संग्रह की कविता 'मृत्युंजय' से उन्हीं के शब्दों में-'जरा से अभय/मरण से निर्भय/काल/महाकाल/कालातीत को/ठेंगा दिखाता/अनंत का आक्लांत यात्री।' और यही मूल स्वर है कवि का। संग्रह की हर कविता से झांकता मिलेगा उसका अपना व्यक्तित्व, काव्य -सम्बंधी उनकी अवधारणाएं और मूल प्रतिज्ञाएं। हालांकि यह कविताएं एक गहरे अर्थ में आत्मपरक नहीं हैं क्योंकि इसमें किसी भी रचनाकार की अवचेतना में अपनी रचनाशीलता को लेकर जो अमूर्त प्रश्न हैं, यहां उनके उत्तर सहित मौजूद हैं।
'सुनामी' कविता में पाषाण जी लिखते हैं-'सुनामी-दर-सुनामी/जारी है/नयी सृष्टि के प्रसव का स्राव।' 'एक वह' कविता में लिखते हैं-'उगना ही नहीं/ढलना भी है उसे/हर रोज/गोया/हर रोज एक मरण/ मगर/न रुकता है/न ऊबता है/पूरब की चढ़ाई से/न शिथिल पड़ती है/ चलने की रफ्तार।' कविता में जगह जगह वही हार न मानने की जिद वह नव निर्माण की तैयारी।
अपनी भूमिका में पाषाण जी ने जिन बातों का उल्लेख किया है। उसे आप उनकी काव्य सर्जना में विस्तार से फलीभूत होता हुआ पायेंगे। यथा-जो विचार और किताबें जीवन को घेरते हैं-'उनकी घेरेबंदी और जकड़बंदी के मकड़जाल को सोच-समझ कर कविता तोड़ती है। व्यापक जनजीवन की अगली हलचलों को आलोड़ित करने वाले आंदोलनों से नाभिनालबद्ध होकर कविता अपना कलेवर तैयार करती है। कविता जीर्ण-शीर्ण प्राचीन को जीवन के ताप से तपाती है, जलाती है। ऐसी कविता ही मशाल बनती है, जीवन को रोशनी देती है। कविता मानव आत्मा को मुक्ति का रास्ता बुहारती है'... आदि-आदि। अंतिम बात में आत्मा का जिक्र है। क्रांति से आध्यात्मिकता की ओर उनका उन्मुख होना एक नयी दिशा की ओर उनका काव्य- प्रस्थान नहीं है। पहले भी वे आध्यात्मिक प्रश्नों से पौराणिक पात्रों पर लिखते हुए भिड़ चुके हैं। वाल्मीकि की चिन्ता, चौराहे पर कृष्ण उनकी परवर्ती काव्य कृतियां हैं। वे जिस समाज और समुदाय को मुखातिब हैं और जिसके जीवन-मरण और संघर्ष में सहभागिता का उन्होंने बीड़ा उठाया है वह आत्मा के प्रश्न से बेतरह जुड़ा हुआ है। उसकी बोली -बाली और चिन्तन के तौर तरीकों को अपनाये बिना उस तक पहुंचने का मार्ग भी कहां है? उनके इस संग्रह में पवित्रता जैसी अवधारणा भी हैं। इस संग्रह में कुछ प्रेम कविताएं भी हैं। जिनमें एक शीर्षक ही है 'पवित्र हो तुम। 'प्लेटोनिक लव की स्थिति है इस कविता में। यह नवम्बर 2013 में लिखी गयी है। सन् 2004 की लिखी कुछ प्रेम कविताएं भी हैं। और पुस्तक के अंत में निराला से अपने जीवन की घटनाओं की प्रकारांतर में तुलना भी है। उस वेदना के संदर्भ में जो अपनी बेटी पर लिखे उनके प्रसिद्ध शोक काव्य 'सरोज स्मृति' की रचना का कारण बनी। पाषाण जी ने संदिग्ध परिस्थियों में मृत अपनी पौत्री को याद किया है और वैसी ही किसी रचना के सृजन के प्रति आशान्वित हैं।

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