Sunday 6 December 2009

अपने हाथ से पका कर खाने की बात ही कुछ और है!


इधर चल रहे बिग बॉस और लक्स परफेक्ट ब्राइड जैसे रियल्टी शो की वज़ह से एक लाभ यह हुआ है कि जो भारतीय पुरुष किचन में कामकाज से परहेज रखते थे उनकी विरक्ति कुछ कम हुई है और वे थोड़ा बहुत कामकाज में हाथ बंटाते नज़र आ रहे हैं। भारतीय भोजन की विशेषता यह है कि इसमें पर्याप्त विविधता है और बने बनाये भोजन की तुलना में हम अब भी रोज बनाया भोजन करना ही पसंद नहीं करते बल्कि ज्यादातर घरों में दो से तीन बार रोज भोजन पकता है। ताज़ा बनाओ और उसी समय खाओ की शैली हमें रास आती है और यह हमारी फूड हैबिट का हिस्सा है। चूंकि रियल्टी शो लगातार कैमरे को प्रतिभागियों के इर्द गिर्द रखता है ऐसे में किचन के कामकाज दृश्य में रोचकता प्रदान करता है। अच्छा यह लगता है कि महिला प्रतिभागी ही नहीं बल्कि पुरुष प्रतिभागी भी आटा गूंथने से लेकर सब्जी काटने के काम करते हैं। इन शोज को देखने वाले नये युवाओ में भी किचन क्रेज़ पैदा हो रहा है तो यह अच्छी बात है। भारतीय परिवारों में कई ऐसे पुरुष हैं जो खाना पकाने की कला में निपुण हैं और शौक से खाना पकाते हैं मगर हमने उसे सार्वजनिक स्तर पर चर्चा का विषय नहीं बनाया है और ना ही इसे अपनी खूबी के तौर पर पेश किया है। मेरे पिता अच्छा खाना बना लेते थे लेकिन दूसरों के समक्ष इसकी चर्चा करने में उन्हें काफी झेंप महसूस होती थी और वे स्वयं कभी इसका जि़क्र नहीं करते थे। कई और ऐसे लोग होंगे जो मेरे पिता की तरह ही अपनी इस खूबी के महत्व को रेखांकित नहीं करते होंगे। मेरी तो हमेशा से कोशिश रही है कि मैं कभी कुछ अपनी पत्नी या बेटी की तुलना में अच्छा पका सकूं। क्या आपने कोशिश की है? मुझे यह गंभीरता से लगता है कि प्रत्येक युवा को खाना बनाना तो आना ही चाहिए। उसके अपने फायदे भी हैं और मज़े भी। यह मज़ा अनुभव से ही आता है। अपनी बनायी हुई रोटी पहले मुश्किल से केवल मैं ही खा पाता था और मुश्किल से चबा पाता था लेकिन उसका जायका दूसरों की पकाई रोटी से कभी कम नहीं लगा।

1 comment:

  1. जो हाथ अच्छी रोटी नही पका सकते वे हाथ अच्छी कविता भी नहीं लिख सकते इसलिये भी यह ज़रूरी है ।

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