Monday 14 December 2009

बांझ स्त्री के लिए नहीं है आज की कविता में भी स्थान!

पिछले दिनों मानव प्रकाशन, कोलकाता की ओर से एक गोष्ठी में कवि जितेन्द्र श्रीवास्तव को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। नयी पीढ़ी के कवियों में उनका जि़क्र कायदे से होता है। कार्यक्रम का संचालन कर रहे कवि एकान्त श्रीवास्तव ने उनके आग्रह किया कि वे अपने काव्य-पाठ का समापन अपनी प्रसिद्ध कविता 'सोनचिरई' से करें। और उन्होंने इस कविता के पाठ के पूर्व बताया कि यह कविता पहल में प्रकाशित, बहुप्रशंसित और बहुचर्चित है। यह कविता एक भोजपुरी लोकगीत पर आधारित है जिसमें एक बांझ स्त्री को बांझपन की वजह से उसका पति और उसके ससुराल वाले घर से निकाल देते हैं। उसके बाद तो उसे कहीं आश्रय नहीं मिलता। न उसे बाघिन खाती है न सांप डंसता है, धरती माता भी जगह नहीं देती हैं यहां तक कि उसका मां यह कहकर आश्रय देने से इनकार कर देती है कि यदि उसे आश्रय देगी और उसका छाया पड़ी तो उसकी पुत्रवधू बांझ हो जायेगी। लोकगीत का अन्त चाहे जो हुआ हो कवि ने कहा कि उसने उसका अन्त बदल दिया। अन्त में वह नदी के पास उदास खड़ी है कि वहां एक सुदर्शन युवक आता है। वह अपने साथ चलने का आग्रह करता है और वह थोड़ा हिचकती है फिर उसके साथ चली जाती है। वह युवक के साथ एक भरी पूरी ज़िन्दगी गुजारती है और उससे उसके आठ बेटे होते हैं।
यहां कुछ सवाल मन में स्वाभाविक तौर पर उठते हैं। बांझ स्त्री को लोककथा में कहीं जगह नहीं मिली तो यह लोकजीवन की त्रासदी है। दुखद तो यह है कि लोक जीवन के बाहर भी आज के कवि की कविता में भी बांझ स्त्री को ज़गह नहीं मिली। यदि कवि बांझ स्त्री को कविता में जगह देता तो उसे बांझ के तौर पर ही युवक स्वीकार करता, किन्तु उसे मां बनाना स्त्री के बांझपन के प्रति अस्वीकार है। तो क्या एक स्त्री सिर्फ इस जैविक आधार पर कि वह मां नहीं बन सकती उसे लोक, शास्त्र और जीवन में सहानुभूति नहीं मिलनी चाहिए। क्या इस आधार पर आज के किसी कवि को ऐसी कविताओं के लिए सराहना चाहिए कि उसने उन कुरीतियों का समर्थन किया है जो लोकसम्मत हैं। लोक साहित्य से जुड़ा होने भर से क्या किसी रचनाकार को पुरस्कृत किया जाना चाहिए यह विचार किये बिना कि लोक में भी ऐसी बहुत सी बातें हैं जिनका तिरस्कार होना चाहिए। लोक की हर रीति क्या स्वीकार्य होनी चाहिए? क्या आज का लेखक लोक की चाकरी बजाने के लिए बाध्य है? यदि नहीं तो क्या उसे यह विवेकपूर्वक नहीं तय करना चाहिए कि लोककाव्य की किन बातों को लोकमंगलकारी मानकर उसका समर्थन करें और किन्हें अनिष्टकारी मानकर उनका तिरस्कार? मैं तो जहां तक जानता हूं साहित्य उन लोगों की पीड़ा को स्थान देता है जिनके दर्द को कोई आश्रय नहीं देता। फिर आज का प्रमुख कवि इतना निर्मम क्यों है?
जिस लोकगीत पर यह कविता आधारित है वह भोजपुरी सोहर है। जिसके बोल इस प्रकार हैं-
घर में से निकली तिरियवा, जंगल बिच ठाड़ भइली, बाघ से बीनति करे हो, ए बघवा हमरा के भछि भलि लिहत, त जिनगी अकारथ हो।
जंगल से निकलेला बघवा त दुख सुख पूछेला हो ए तिरिया कवना सकठ तोहरा परले त हमसे भछवावेलू।
सासु मोरे कहे ली बंझिनियां, ननद बंसहारन हो, जिनकर बारी बियाही तिन घर से बाहर कइले हो।
जाहू हे तिरिया घरे जाहू अपना भवन जाहू हो, ए तिरिया तोहरा के भछि हम लेबो बघिनियां होइहैं बांझिन हो।

चलल चलल चलि गइली त बिल लागे ठाड़ भइली नाग से बिनती करे ए नगवा हमरा के डंसि भली लिहित त जिनगी अकारथ हो।
बिल से निकलेला नगवा त दुख सुख पूछेला हो, ए तिरिया कवना सकठ तोहरा पड़ले त हमसे भछवावेलू।
सासु मोरे कहे ली बंझिनियां ननद बंसहारन हो, जिनकर बारी बियाही तिन घर से बाहर कइले हो।
जाहू हे तिरिया घरे जाहू अपना भवन जाहू हो ए तिरिया तोहरा के डंसि हम लेबो नगिनियां होइहैं बांझिन हो।

चलल चलल चलि गइली त अम्मा द्वारे खड़ा भइली अम्मां से बिनती करे ए अम्मां हमरा के राखि भली लिहित त जिनगी अकारथ हो।
घर में से निकलेली अम्मां त दुख सुख पूछेला हो ए बेटी कवना सकट तोहरा परले त अम्मां लगे आवेलू हो।
सासु मोरे कहे ली बंझिनियां ननद बंसहारन हो, जिनकर बारी बियाही तिन घर से बाहर कइले हो।
जाहू हे बेटी घरे जाहू अपना भवन जाहू हो ए बेटी तोहरा के राखि हम लेबो त बहूआ होइहैं बांझिन हो।

चलल चलल चलि गइली त शिव द्वारे खड़ा भइली शिव से बिनती करे ए शिव जी हमरो जिनकी हर लिहती त जिनगी अकारथ हो।
धुनि में से उठेले चिहाई शिव दुख सुख पूछेले हो ए तिरिया कवना सकठ तोहरा परले त शिव लगे आवेलू हो।
सासु मोरे कहे ली बंझिनियां ननद बंसहारन हो, जिनकर बारी बियाही तिन घर से बाहर कइले हो।
जाहू हे तिरिया घरे जाहू अपना भवन जाहू हो ए तिरिया आजू से नउवें महिनवां होइहैं नंदलाल हो।
राजवा गिनेला नौमांस रनियां नौ महिनवां नू हो सुकवा उगत बाबू जनमें महलिया उठे सोहर हो।
सासु भेजेली नउनियां त ननद बरिनियां नू हो कि घोड़वा सामी दउरावेले बाबू के जनम भइले हो।
इस सोहर और जितेन्द्र जी की कविता में फर्क बस इतना है कि सोहर में स्त्री शिव जी के पास जाती है और उनसे पुत्र का वरदान मिलता है। पुत्र होने की खबर पाकर स्त्री की ससुसाल के लोग बदल जाते हैं और सम्मान उसे घर ले जाते हैं। और जितेन्द्र जी की कविता में कोई और युवक है। लेकिन स्थितियां नहीं बदलीं। दोनों ही स्थिति में बांझपन का अस्वीकार है। जब कवि स्त्री के हालत में बदलाव नहीं चाहता तो फिर लोकगीत को कविता में ढालने कोई बड़ा कौशल नहीं माना जाना चाहिए।
हैरत तो यह है कि ऐसी बांझ स्त्री को आज भी अस्वीकार करती यह कविता 'पहल' जैसी पत्रिका में प्रकाशित हुई, जो घोषित रूप से प्रगतिशील विचारों की पत्रिका थी और ज्ञानरंजन जैसे समर्थ रचनाकार उसके सम्पादक थे। हैरत यह है कि ऐसे कवि आज की कविता के मुख्य हस्ताक्षर हैं और उन पर तमाम पुरस्कारों की वर्षा भी होती रही है। जितेन्द्र श्रीवास्तव की कुछ प्रमुख कृतियां हैं इन दिनों हलचल, अनभै कथा, असुन्दर सुन्दर (कविता संग्रह) और भारतीय समाज की समस्याएं और प्रेमचन्द, शब्दों में समय (आलोचना पुस्तकें)। वे भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद पुरस्कार, कृति सम्मान, रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार, विजयदेव नारायण साही पुरस्कार तथा रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान से सम्मानित हैं।
यहां यह उल्लेखनीय है कि जब मैंने जितेन्द्र श्रीवास्तव जी से इस काव्य-पाठ के आयोजन में अपनी आपत्तियां दर्ज कीं तो उनका कहना था अब कुछ नहीं किया जा सकता। यह कविता प्रकाशित हो चुकी है। बहुप्रशंसित हुई है और इस पर पोस्टर भी बन चुके हैं। अब यह प्रकाशित होने के बाद मेरी नहीं रह गयी है।
यहां यह गौरतलब है कि रचना के प्रकाशन के बाद जब उसी रचना के लिए वर्षों बाद तक और कई बार आजीवन कोई लेखक सम्मानित होता रहता है और उसका श्रेय लेने से इनकार नहीं करता तो उसी रचना पर अपनी सार्वजिनक असहमति क्यों नहीं व्यक्त कर सकता। अपनी रचना से बाद में असहमत होने के हक़ उससे नहीं छिन जाता और ना ही अपनी रचनाओं में की गयी अपनी गलतियों के लिए क्षमा मांगने का, पर इसके लिए सचमुच बड़ा रचनाकार होना पड़ता है! मार्ग तो खुला है ही।
प्रश्न यह भी है कि साहित्य में यह कौन सी परिपाटी चली है कि बड़ी खामियों के बावजूद कोई रचना गंभीर वैचारिक पत्रिकाओं में भी स्थान पा जाती हैं, प्रशंसित हो जाती है और पुरस्कार भी पा लेती हैं! फिलहाल तो जितेन्द्र श्रीवास्तव विष्णु खरे की टिप्पणियों से आहत-मर्माहत और क्रुद्ध हैं क्योंकि खरे जी ने उनकी 'ज़रूर जाऊंगा कलकत्‍ता' कविता पर कुछ सवाल खड़े किये हैं। उनका क्षोभ इस गोष्ठी में भी सार्वजनिक हुआ। संभव है वे अपनी अन्य कविताओं की विसंगतियों पर भी कभी ध्यान दे पायें।

1 comment:

  1. हाँ, उसे आठ बेटों की माँ बनाना दो बातें सिद्ध कर सकता है, एक तो जो आपने कह और दूसरी यह कि वह बाँझ थी ही नहीं, कमी उसके पति या उनके सम्बन्धों में रही होगी। परन्तु आपकी आपत्ति के बारे में जानकर खुशी हुई।
    घुघूती बासूती

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