Monday 21 September 2009

पोखरण-2 की सफलताः विवाद, नैतिकता और राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल


ऐसे समय में जबकि पूरी दुनिया में यह शोर है कि पाकिस्तान ने गुपचुप तरीके से इतने परमाणु हथियार बना लिये हैं कि वह भारत से कहीं ज्यादा हैं और अमरीका भी इसकी पुष्टि कर रहा है भारत में पोखरण-2 की विफलता को लेकर किये जा रहे सवाल हमें चिन्तित कर रहे हैं। भारत यह कहता रहा है कि हमें जो भी परमाणु परीक्षण करने थे हम कर चुके हैं और आगामी दो दशकों तक अब किसी परीक्षण की आवश्यकता नहीं है और वह परमाणु के गैरसामरिक उपयोगों को लेकर समझौते कर सकता है उस पर भी रुक कर विचार करने की आवश्यकता आन पड़ी है। एक तरफ़ पाकिस्तान के परमाणु के जनक अब्दुल कादिर खान की कारगुजारियों से भारत व दुनिया परेशान थी और और दूसरी तरफ़ पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने यह कहकर और मामले को और हवा दे दी कि अमरीका की ओर से जो भी आर्थिक सहायता उन्हें आतंकियों को नष्ट करने के लिए दी गयी थी उसका इस्तेमाल उन्होंने भारत के ख़िलाफ सुरक्षा में लगाया है। इससे साफ संकेत मिलता है कि भारत के ख़िलाफ पाकिस्तान में चिन्ताजनक रूप से सामरिक तैयारियां हुई हैं या फिर उन तैयारियों का हौव्वा खड़ा किया जा रहा है। दूसरी तरफ़ हमारे कुछ प्रमुख वैज्ञानिकों ने यह आरोप लगाये हैं कि पोखरण-2 परीक्षण के नतीज़े संतोषजनक नहीं थे। पोखरण में हुए दूसरे परमाणु टेस्टों के दौरान थर्मोन्यूक्लियर डिवाइस की टेस्टिंग पर सवाल खड़ा करने वाले रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन के पूर्व वैज्ञानिक के. संथानम ने इस मामले की जांच कराने की मांग की है वहीं, 3 टॉप परमाणु वैज्ञानिकों एम. आर. श्रीनिवासन, पी. के. आयंगर और ए. आर. प्रसाद ने पोखरण-2 परमाणु टेस्टों के लिए संथानम के दावों की जांच की मांग की है। संथानम ने पिछले माह 11 मई 1998 के परमाणु परीक्षण को नाकाम बताया है और कहा है कि भारत सीटीबीटी पर दस्तखत ना करे और उसे न्यूक्लियर टेस्ट करने चाहिए। एपीजे अब्दुल कलाम इस पर झूठ बोलते रहे हैं कि नतीजे संतोषजनक हैं। इससे देश में भारतीय सेना का मनोबल कमज़ोर हो रहा है। भले ही पोखरण-2 को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन तक ने यह दावे किये हैं कि यह परीक्षण सफल था फिर भी इसे मामले की लीपापोती मानने से किसी को रोका नहीं जा सकता। परीक्षण के नतीज़ों की जांच की बात उठायी जा रही है किन्तु इसके क्या होना है। यदि यह पाया गया कि पोखरण-2 विफल था तो क्या इससे देश की सुरक्षा ख़तरे में नहीं पड़ जायेगा। और यदि सफल कहा गया तो भी जांच की निष्पक्षता पर ऊंगली नहीं उठायी जायेगी इसका कौन गारंटी लेगा। नामी वैज्ञानिकों के पैनल ने 1998 के परीक्षणों की समीक्षा की थी जिसमें सी.एन.आर. राव, पी. रामाराव व एम.आर. श्रीनिवासन जैसे प्रतिष्ठित वैज्ञानिक सदस्य थे। परमाणु कार्यक्रम के मुखिया रहे राजा रमन्ना उस समय निकाय से जुड़े थे।
वैज्ञानिक समुदाय में आपसी प्रतिद्वंद्विता के इतने निचले स्तर पर पहुंच जाने के बाद कुछ ज्वलंत प्रश्न हमारे सामने खड़े हो गये हैं और हमारी परमाणु क्षमता पर सवाल लग गये हैं। इससे भारत की दुनिया के एक शक्तिशाली राष्ट्र की छवि धूमिल हो सकती है।
लोकतंत्र में विभिन्न संस्थाओं और व्यक्तियों को यह आज़ादी तो होनी चाहिए कि वह तमाम मुद्दों पर निष्पक्षता और बेबाकी के साथ अपनी बात कहे किन्तु क्या इस तकाज़े पर भी विचार नहीं किया जाना चाहिए कि देश की सुरक्षा को ख़तरे में डालने वाले सवालों को सार्वजनिक तौर पर न उछाला जाये।
आवश्यकतानुसार देश की सुरक्षा को ख़तरे से बचाने के लिए लोकतांत्रिक सीमाओं को सख्ती से रेखांकित किये जाने की आवश्यकता है। यह नियम अवश्य बनना चाहिए कि देश की आंतरिक सुरक्षा आदि से जुड़ी शख्सियतों को पदमुक्त होने के बाद भी सार्वजनिक बयानों पर संयम बरतें। पूर्व सैन्य प्रमुख वी.पी. मलिक ने कहा कि पोखरण-2 द्वितीय परीक्षण पूरी तरह सफल नहीं बताने के कुछ वैज्ञानिकों के अलग-अलग दावों के बाद सेना का मनोबल प्रभावित हुआ है। आम नागरिक भी इससे असमंजस की स्थिति में हैं। जबकि दुनिया भर की ख़ुफिया एजेंसियां भारत को बार-बार चेतावनी दे रही हैं का भारत में और आतंकी हमले हो सकते हैं, कुछ देशों ने अपने नागरिकों और नेताओं को भारत यात्राओं से दूर रहने की चेतावनी तक दे डाली है।
अच्छा हुआ कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने परीक्षण की समीक्षा के लिए वैज्ञानिकों का पैनल नियुक्त करने के सुझाव को यह कह कर खारिज कर दिया है कि मामले की जांच के लिए तटस्थ और स्वतंत्र वैज्ञनिकों का मिलना मुश्किल होगा। मालूम हो कि पोखरण-2 के समय कलाम डिफेंस रिसर्च एंड डिवेलपमेंट ऑर्गनाइजेशन (डीआरडीओ) के हेड थे और संथानम पोखरण-2 का कोऑडिर्नेशन कर रहे थे। पूर्व टॉप अटॉमिक बॉस होमी सेतना संथानम के दावों को सही करार देते हैं। सेतना 1974 में भारत के पहले परमाणु टेस्ट के पीछे गाइडिंग फोर्स माने जाते हैं। अटॉमिक एनर्जी कमिशन के एक अन्य पूर्व चेयरमैन पी.के. आयंगर विफलता के कारणों को गिनाते हुए कहते हैं कि1998 के न्यूक्लियर टेस्ट तत्कालीन सरकार के आदेश पर जल्दबाजी में किए गए थे। तब अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाली एनडीए सरकार को सत्ता में आए कुछ ही समय बीता था। पोखरण-2 से दो महीने पहले मार्च 1998 में पहले इंटेलिजेंस को पाकिस्तान द्वारा परमाणु परीक्षण किए जाने की भनक मिली। इसलिए भारत की नई सरकार ने वैज्ञनिकों को जल्दी से न्यूक्लियर टेस्ट करने को कहा। अब अगर वैज्ञानिकों की तरह राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता सामने आये और तत्कालीन भाजपा नीत सरकार की कलई खोलने का दावा करते हुए विभिन्न राजनीतिक दल इसे हवा देने लगें तो भारत की राष्ट्रीय छवि और सुरक्षा का क्या होगा?

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