Wednesday, 3 April 2013

सच जैसी कहानियों और कहानियों जैसे सच की यात्रा

समीक्षा
-डॉ.अभिज्ञात 
सच कहती कहानियां/लेखिका-कुसुम खेमानी/प्रकाशक-राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि., 7/31, अंसारी रोड, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002/मूल्य-200 रुपये



कुसुम खेमानी का पहला ही कहानी संग्रह पर्याप्त उर्वर, परिपक्व और असीम संभावनाओं से भरा हुआ है। संवेदनशील मन और विकसित जीवन दृष्टि दोनों का तालमेल एक नयी किस्सागोई को रचता है। पात्रों के अनुरूप उनकी भाषा और उसका ढर्रा बदलता है जो यथार्थ को गहरी अर्थवत्ता भी देता है और अपनी विश्वसनीयता को पुख्ता करता है। पाठक को बराबर यह एहसास बना रहता है कि वह जिस कथादेश में प्रवेश कर चुका है वहां विभिन्न संस्कृतियों का गहरा मेल है और वह एक बहुभाषी समुदाय के जीवनानुभवों का आस्वाद ले रहा है। कई भाषाओं का प्रयोग यहां दिखावे का नहीं है बल्कि पात्र जिस भाषिक व आर्थिक समुदाय से आये हैं, वे अपनी स्वाभाविक भाव भंगिमा में हैं। 'रश्मिरथी मां' को ही ले लें इसमें एक मारवाड़ी परिवार का मुस्लिम समुदाय से सम्पर्क से जुड़ा घटनाक्रम है, इसमें शहरी पात्र तो हिन्दी बोलते हैं किन्तु जब राजस्थान के मारवाड़ी परिवार की बुजुर्ग महिला का फोन आता है तो वह बातचीत राजस्थानी भाषा में है, जो एकदम स्वाभाविक है। यहां थोपी हुई भाषा नहीं है। लेखिका ने कोष्ठक में हिन्दी में उसका तर्जुमा भी कर दिया है इसलिए पाठक को समझने में किसी तरह की कठिनाई भी नहीं होती। मां की ममता जहां संग्रह की कई कहानियों पर छाई हुई है, वहीं पारिवारिक मूल्य के छीजते जाने पर भी चिन्ता जाहिर की गयी है। रंगभेद की मानसिकता की गहरी पड़ताल 'काला पारिजात' में की गयी है तथा अश्वेतों के बीच भी कई स्तर बन जाने की विडम्बना से पाठक का साबका होता है।
कुसुम खेमानी अपने पहले ही संग्रह में अपनी एक खास कहन शैली से पाठकों का ध्यान खींचती हैं। और किसी रचनाकार का अपनी शैली अर्जित कर लेना उसके रचनाक्रम की बहुत ही महत्वपूर्ण घटना होती है। इस संदर्भ दो चीजों का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा जो उनकी शैली को दूसरों से अलग करता है एक भाषिक संरचना और उसका बरताव दूसरा संवेदन और वस्तुजगत के तादात्म्य का धूपछांही खेल। हिन्दी कहानी में बांग्ला, मारवाड़ी (राजस्थानी), हरियाणवी, उर्दू और अंग्रेजी को जिस तरह से उन्होंने गूंथा है वह विलक्षण है। भारतीय समाज की बहुभाषिक संरचना का एक पुख्ता उदाहरण यह कहानियां हैं। यह बहुभाषिकता उनके यहां दिखावे के तौर पर नहीं आती बल्कि पात्रों और घटनाक्रम को और विश्वसनीय तथा यथार्थ के रंग को पुख्ता और सौंदर्यबोध को और विकसित करती हैं। उनकी कथा शैली की दूसरी विशेषता यह है कि उनकी कहानी कब सच से धरातल से उठकर वायवीय हो जाती है और कब एक संवेदना ठोस घटनाक्रम में तब्दील हो जाती है कहना मुश्किल है। सच और कहानी के बीच के फासले को मिटाने का काम भी उन्होंने किया है। कहानी में कहां कहानी का सिरा खत्म होता है और वह सच की जद में प्रवेश करता है, कहना मुश्किल है। सच लगते किस्से हैं या किस्सों की शक्ल में सच। फर्द होना आदमी का,  राज्यपाल ऐसा जैसी कहानियां सच व किस्सागोई के फर्क को मिटा देते हैं। वास्तविक घटनाओं को कहानी की शक्ल पेश करने के बेहतरीन हुनर का यह कहानियां उदाहरण हैं। इनके साथ ही 'एक पारस पत्थर' आदि कुछ कहानियों में संस्मरण और शब्द चित्र की शैली का प्रभावशाली प्रयोग है। यह कहानियां समाज को बहुत कुछ देने वाले समाजसेवियों सीताराम सेकसरिया, भगीरथ कानोडिय़ा, राज्यपाल एचसी मुखर्जी के जीवन के उन पहलुओं को उजागर करती हैं जिनसे लोगों को प्रेरणा मिलेगी।
'पतराम दरवज्जा' कहानी में सच झूठ जैसे मसलों पर विचार का कोई मतलब नहीं है, लोक जीवन है और लोक मानस में व्याप्त किस्से। वे झूठे हैं या सच्चे इससे उसके न तो प्रभाव में कमी आती है और ना ही उससे मिलती प्रेरणा में। हरियाणवी संवादों का हिन्दी कहानी में बेझिझक प्रयोग लेखिका के आत्मविश्वास को भी व्यक्त करता है कि किस्सागोई में यह गुण नये रंग भरता है। इधर के हिन्दी टीवी धारावाहिकों में यह प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है और श्रोता इसे पसंद भी कर रहे हैं। हिन्दी में आंचलिकता का पुट यूं ही कोई नया नहीं है। कला की दुनिया में सच कोई ऐसा तत्त्व नहीं माना जाता कि जिसके होने भर से कोई कला श्रेष्ठता का दावा कर सके और ना ही झूठ या सरासर झूठ कला की दुनिया में वह तत्त्व है जिसके आधार पर कला की श्रेष्ठता प्रभावित होती है। सच और झूठ का ताना बाना और उसका अनुपात ही कला को नयी ऊंचाइयां प्रदान कर सकता है। जिसका उदाहरण इस संग्रह की कहानियां हैं। पुस्तक के नाम 'सच कहती कहानियां'  से जाहिर है कि यह हैं तो कहानियां, किन्तु इनकी सार्थकता किसी न किसी सच को उजागर करने में है। इन कहानियों का जो सच है वह हमेशा तल्ख और निराशा पैदा करने वाला नहीं है। जगह-जगह वह बिन्दु इनमें मिल जायेंगे, जो निराशाजनक स्थितियों में भी आशा की किरण बनते हैं। कई बार तो कुसुम जी ने साधारण लगते पात्रों की उन खूबियों को उजागर किया है जो शायद अनदेखा रह जाता। घटनाओं को सही परिप्रेक्ष्य में देखना ही त्रुटियों को दुरुस्त करने की महती कार्रवाई जान पड़ती है। उदाहरण के लिए 'रश्मिरथी मां' को लें। मुफलिसी का जीवन जीती एक महिला के 'किराए पर कोख' देने की मार्मिक कथा है जिसमें उसके भौतिक लेन देन की तुलना में उसके संतानहीनों को उसके अनन्य योगदान को गरिमामय ढंग से रेखांकित किया गया है।
इस संग्रह की ज्यादातर कहानियों में कोई न कोई ऐसा नारी चरित्र अवश्य है जो सामाजिक कार्यकर्ता की भूमिका में है और उस कहानी के नायक या नायिका के दुख दर्द को पूरे मनोयोग से सुनता ही नहीं बल्कि उसकी समस्या को सुलझाने में मन प्राण से जुट जाता है। और समस्या को सुलझाने का जो प्रयास है उसका तौर तरीका सांगठनिक है। लेखिका व्यक्ति की समस्या का निदान महज व्यक्तिगत प्रयासों में नहीं खोजती बल्कि समाज में चल रहे कल्याणकारी कार्यों का सहारा लेती है। इस प्रकार लेखिका का एक वृहत्तर परिप्रेक्ष्य इसमें सामने आता है जो व्यक्ति की समस्या की मुक्ति के प्रयास में सामूहिकता के योगदान को महत्वपूर्ण मानता है। सामाजिक कार्यकर्ता की भूमिका बस किसी समस्याग्रस्त व्यक्ति की समस्या हल करने का रास्ता खोजने और दिखाने या उसे उस मकाम तक पहुंचाने तक का है, उसके बाद समस्याग्रस्त व्यक्ति अपने संघर्ष और खूबियों के बूते प्रगति करता है। लोगों की भीतर छिपी खूबियों, जीवट और जिजीविषा को यह कहानियां सामने लाती हैं और कथानायक वह सामाजिक कार्यकर्ता नहीं बल्कि अपनी विपदाओं से लड़ता आम आदमी बनता है। 'रश्मिरथी मां' में संघर्षशील चरित्र जाहिदा और 'जज्बा एक जर्रे का' में लक्ष्मी नायिका हैं। 'पुरुष सती' में तो लेखिका ने एक ऐसे नायक को पेश किया है जो अपनी पहली और बाद में दूसरी पत्नी के दुख सुख को समझने और उनकी स्वतंत्रता को अबाध करने में अपने को खपा देता है। उसके मन में अपनी पत्नियों के पुरुष मित्रों से भी कोई शिकायत नहीं रहती। ऐसे दौर में जब महिला लेखन के नाम पर पुरुषों की बेवफाई और परकीया प्रेम की कहानियों पर जोर है, पुरुष के प्रति संवेदनशीलता का भाव धारा से हटकर है। इसमें स्त्री की बेवफाई के चित्रण पर जोर नहीं है जोर है, पुरुष मन की उस सदाशयता को रेखांकित जिसकी अभिव्यक्ति प्राय: विरल है। हालांकि यहां यह कहना अधिक समीचीन होगा कि पूरा संग्रह ही संवेदनशीलता और विवेकवादी है। यहां विचार से अधिक संवेदना महत्वपूर्ण है। वर्ग-संघर्ष नहीं सामंजस्य है। विद्रोह नहीं है मगर अनिष्टकारी ताकतों व सशर्त दूसरे की मदद पहुंचाने वाली प्रवृत्ति के खिलाफ एक टीस है, पाठक के मन को कहीं भीतर तक परेशान करती है।  'जज्बा एक जर्रे का' कहानी में लक्ष्मी व उसकी बेटियों कम मदद करने वाली संस्था की अपना शर्त धर्म परिवर्तन कर ईसाई बनना है। इसमें एक अपराधबोध के साथ प्रश्न है- 'आखिर धर्म बदलना एक गंभीर बात है, इसे मात्र सुविधा के लिए कैसे स्वीकारा जा सकता है।' यह लेखकीय खूबी है कि पढ़े-लिखे बौद्धिक और सुविधा सम्पन्न वर्ग का सोच और नजरिया आम और लगभग जाहिल लगते हाशिये पर पड़े संघर्षशील लोगों पर हावी नहीं होने पाता। मतान्ध आलोचना के मौजूदा दौर में ऐसी कृतियों की विवेचना के लिए नयी नजर और लहजे की आवश्यकता पड़ सकती है।
आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी का कहना है कि कुसुम खेमानी की कहानियों में कई भाषा का इस्तेमाल किया गया है, जो आजकल की कहानियों में कम दिखाई देता है। 'सति पुरुष' जैसी कहानी हिंदी में दूसरी नहीं देखी, यह कहानी अपने कहने के अंदाज की वजह से अपना प्रभाव छोड़ती है। कवि अरुण कमल ने ठीक ही कहा है कि-'कुसुम खेमानी की कहानियों का यह पहला संग्रह हिन्दी कथा संसार के लिए एक घटना से कम नहीं। सम्भवत: पहली बार इतनी मार्मिक कौटुम्बिक कहानियां हिन्दी पाठकों को उपलब्ध हो रही हैं। यह सच कहती कहानियां नहीं; बल्कि स्वयं सच हैं; सच का तना रूप।... वे भाव से कथा कहती हैं लोक कथा की तरह।...इन कहानियों की बुनावट और अन्त भी सहज, किन्तु अप्रत्याशित होता है। हर कहानी अपने आप में एक स्वतंत्र लोक है। इस संग्रह के साथ कुसुम खेमानी के रूप में हिन्दी को एक अत्यन्त सशक्त शैलीकार एवं संवेदनशील किस्सागो मिला है।'
सम्पर्क-डॉ.अभिज्ञात, 40 ए, ओल्ड कोलकाता रोड, पोस्ट-पातुलिया, टीटागढ़, कोलकाता-700119 मोबाइल-9830277656  abhigyat@gmail.com 

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