Monday, 10 August 2009

लोकरंजन और लोकहित में अन्तर



अशोक चक्रधर को दिल्ली हिन्दी एकेडमी का उपाध्यक्ष बनाने को लेकर साहित्यिक हलके में खासी हायतौबा मची है और अर्चना वर्मा जैसी गंभीर कथाकार-कवयित्री ने पद से यह कहकर इस्तीफा दे दिया है वे उस संस्था से सम्बद्ध नहीं रहना चाहतीं जिसमें विदूषक हों। उसके बाद तो संस्था के सचिव ज्योतिश जोशी का भी इस्तीफा आ गया। अशोक चक्रधर ने इन घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया में कहा है कि वे लोकरंजन के लिए लिखते हैं और लिखते रहेंगे। लोक के लिए लिखने की परिपाटी साहित्य में शुरू से रही है और स्वांतःसुखाय की तुलना में यह प्रवृत्ति अधिक संतोषजनक लगती रही है। फिर भी यह विचारणीय है कि लोक के रंजन के लिए लिखा जाये या लोकहित के लिए। यही रंजन और हित का विवाद है जो छिड़ा हुआ है। क्या लोगों का मनोरंजन करना किसी लेखक के लिए पर्याप्त है और क्या इसी आधार पर उसे साहित्यकार का दर्जा दिया जाना चाहिए। लोकरंजन तो लाफ्टर चैनल पर करने वालों का इन दिनों तांता लगा हुआ है और क्या इसी आधार पर उन्हें उन लोगों की कतार में बिठाया जा सकता है जो समाज को बदलने की बेचैनी पाले हुए हैं। जो समाज के सामने उनके दुखों को इस तरह रखना चाहते हैं कि वह उन पर हंसने के बदले उन्हें बदलने को बेचैन हो उठे। क्या अशोक चक्रधर उसी जनता की बात कर रहे हैं जिनकी बात बाबा नागार्जुन करते थे और जिनके बीच पहुंचने की कोशिश हर जनदर्दी साहित्यकार करता है और प्रायः उन्हीं लोगों तक नहीं पहुंच पाता क्योंकि उसकी बातों का अन्दाज और भाषा किसी हद तक जटिल हो जाती है जो आम जनता के पल्ले ही नहीं पड़ती। क्या अशोक चक्रधर अपनी कविताओं में वह पाती लिखने की कोशिश करते हैं, जो केदारनाथ सिंह दिल्ली से चकिया को भेजते हैं और उन्हें बराबर शंका बनी रहती है वह चकिया तक नहीं पहुंच पा रही है और अपने गांव के लोगों को देखकर वह बार-बार सोचते हैं कि क्या वहीं हैं यह लोग जिनके लिए वे लिखते हैं और जो उन्हें नहीं पहचानते हैं। अगर साहित्य का काम लोकरंजन तक ही सीमित रह जाये तो नागार्जुन और केदारनाथ सिंह को चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं थी।
साहित्य सेवा के नाम पर मंचों पर लाखों की उगाही करना और बात है और जनता के दुख दर्द को समझकर उसकी स्थितियों में बदलाव की कोशिश करना दूसरी बात। चक्रधर जिस विधा में लिखते हैं वह व्यंग्य की विधा है और उन्हें पता होना चाहिए कि व्यंग्य विधा में हरिशंकर पारसाई और शरद जोशी जैसों ने सार्थक रचनाएं दी हैं और किसी की मज़ाल नहीं थी कि उन्हें विदूषक कहे। शरद जी तो कवि सम्मेलन के मंचों पर भी व्यंग्य गद्य पढ़ते थे। भले चक्रधर व्यंग्य गद्य नहीं काव्य विधा में लिखते हैं किन्तु व्यंग्य के सार्थक पक्ष को समझने की आवश्यकता तो है ही। व्यंग्य के सकारात्मक पक्ष के अभाव में अशोक चक्रधर लाफ्टर चैनल में भाग लेने वाले कलाकारों से श्रेष्ठ नहीं ठहराये जा सकते और उनकी दुकान ऐसे चैनलों ने लगभग बंद करवा दी है। इसमें कोई शक नहीं कि साहित्यिक मंचों का हाल के वर्षों में पतन हुआ है और कविसम्मेलनों में शुद्ध चुटकुलेबाज नजर आते हैं उनकी तुलना में वे बेहतर हैं और हम शैल चतुर्वेदी और सुरेन्द्र शर्मा की तुलना में उन्हें बौद्धिक पाते हों लेकिन उस जमात का उन्होंने अतिक्रमण करने का साहस कभी नहीं दिखाया है। इस घटना ने उन्हें आईना दिखा दिया है।
हालांकि आधुनिक साहित्य की कसौटी उसके व्यंग्य और कटाक्ष ही है। समाज की विषमताओं और विद्रूपताओं पर जो लेखक जितना व्यंग्य और कटाक्ष कर सकता है वह उतना ही कामयाब होगा। व्यंग्य के लिए एक गहरी अंतरदृष्टि और विवेक की आवश्यकता होती है। किसी भी समय की सबसे प्रमुख कृति उस समय के समाज की आलोचना की ही तो होती है चाहे वह कबीर का समय हो या धूमिल का। लेकिन अफसोस है कि विजन के अभाव में चक्रधर अपने व्यंग्य विधा का भी कोई तार्किक बचाव नहीं कर पा रहे हैं और गहरे सरोकार के अभाव में वे अन्य मंचीय कवियों की तरह कुछ भी अनाप शनाप कहते नजर आ रहे हैं। साहित्य की लोकरंजनी परिभाषा उसका प्रमाण है।

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