समीक्षा |
-डॉ.अभिज्ञात
कहानियां सुनाती यात्राएं/लेखिका-कुसुम खेमानी/प्रकाशक-राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि., 7/31, अंसारी रोड, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002/मूल्य-400 रुपये
चर्चित कथाकार कुसुम खेमानी के यात्रा वृत्तांत की पुस्तक 'कहानियां सुनाती यात्राएं' में डर्बन की यात्रा पर लिखा पहला ही निबंध 'गांधी अभी भी हैं' पाठक को पूरी तरह से अपनी गिरफ्त में ले लेता है। उसे इस बात का स्पष्ट आभास हो जाता है कि हमें एक ऐसे शख्स के साथ यात्राओं पर चलना है जिसमें एक किशोर सुलभ उत्सुकता और उमंग है। एक भावुकता का अतिरेक है और संवेदनशीलता भी। भाषा उसके भावों को व्यक्त करने में पूरी तरह सक्षम है और वह आक्रांत नहीं करती। इन निबंधों को पढ़ते हुए पाठक भावुक भी हो उठता है और कई बार आंसुओं पर काबू पाना मुश्किल हो सकता है। पहले आलेख में नेल्सन मंडेला से लेकर महात्मा गांधी के प्रति सम्मान का भाव केवल सम्मान का भाव नहीं रह जाता। वह उस युवा संवेदनशीलता को व्यक्त करता है जिसके पास देश और मानवता के कल्याण के लिए अनगिनत सपने हों। नेल्सन मंडेला को छूकर देखना, तिरंगे के साथ मार्च-पास्ट व फिर वाजिब टिकट होने के बावजूद गांधी जी अश्वेत होने के कारण जिस मारित्जबुर्ज स्टेशन पर ट्रेन से उतार दिये गये थे उस स्थान को देखने की ललक का प्रसंग इस बात के उदाहरण हैं।इस वृत्तांत में एक नाटकीयता और औपन्यासिकता है, जो पाठक को इस बात के लिए तैयार करता है कि देखें अब इस वृत्तांत की नायिका कहां जाती है।
इन निबंधों की खिड़कियां हमें इतिहास का पता देती हैं और वर्तमान में उसकी स्थिति और प्रासंगिकता का भी। बड़ी-बड़ी ऐतिहासिक घटनाओं का सार कथन और बात कहां खत्म करना है, यह हुनर भी लेखिका के पास है, जो बहुत कम लेखकों के पास होता है। साथ ही एक आलोचनात्मक विवेक भी इन निबंधों में तहां-तहां बिखरी संक्षिप्त टिप्पणियों में एक कौंध की तरह दिखायी देता है जो हमें एकबारगी यह याद दिला देता है यह व्यवहार में व्याप्त कैशोर्य किसी किशोर का नहीं है, एक चिन्तनशील और गहरी अंतरदृष्टि से लैस व्यक्ति का है। उनकी अंतरदृष्टि आलोचनात्मक विवेक वाली है और वे चीजों, प्रकृति और व्यक्ति के सौंदर्य, खूबियों और विशेषताओं से अभिभूत तो होती हैं लेकिन उनका उनके जीवन व समाज में क्या स्थान है उसका निर्धारण करने में भी नहीं हिचकतीं। सार्वजनीन स्तर पर प्रशंसनीय मूल्यों की शिनाख्त करते हुए भी यह रेखांकित करना नहीं भूलतीं कि वे जिस भारत देश से हैं, वहां उनकी क्या प्रासंगिकता, अर्र्थवत्ता और स्थान हैं। विदेश की अच्छी चीजों की प्रशंसा के बाद उनकी टीस भी बाहर आती है कि उनके अपने देश में ऐसी चीजों की क्या स्थिति है। 'शाश्वत अश्रुप्रवाह है...पियेता' निबंध में रोम की कलात्मक उत्कृष्टता को स्वीकार करने के बाद वे कहती हैं-'कश्मीर से कन्याकुमारी तक और कच्छ के रन से लेकर भारत की पूर्वोत्तर सीमा पर पुरातत्व, शिल्प, स्थापत्य आदि के असंख्य नायाब नमूने हमारे कण-कण में बिखरे हुए हैं..पर दुख यह है कि न तो हमें उन्हें दिखाना आता है, न बताना।'
इतना ही नहीं उनकी आलोचनात्मक दृष्टि का एक उदाहरण भी इसी निबंध में देखें-'रोम ऐश्वर्य और भव्यता का प्रतीक तो है, पर हम भारतीयों को उसमें अलौकिक तत्व नजर नहीं आता। हमें कमी लगती है भावों की..मानवीयता की.. करुणा की..और अतीन्द्रियता की। लगता है कि क्या इन विदेशी मूर्तियों के अप्रतिम देह-सौष्ठव पर हमारा भाव-सौष्ठव भारी नहीं है। हमारे यहां की एक साधारण-सी पक्षी भी कितना कुछ कह देती है। एक छोटे से कद की शालभंजिका की लास्य मुद्रा हो या विशाल महेश मूर्ति (एलोरा) की शांत स्मित मुद्रा। इनमें भावों की जो गहराई है..जो प्रणवता है..जो प्रवाह है..जो रवानी है..रोम की सौन्दर्यवान मूर्तियों में क्या उसकी कमी नहीं है?' इसलिए यह कहना समीचीन होगा कि पुस्तक में संकलित निबंध महज यात्रा वृत्तांत नहीं हैं। इन निबंधों में सचमुच कहानियां हैं और जैसा कि पुस्तक का नाम है लेकिन चूंकि ये निबंध, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत को एक कथानक की तरह पेश करते हैं इसलिए कई विधाओं का एक कोलाज उभरता है, जिसे फ्यूजन कह सकते हैं। हर बड़ी रचना अपने साथ अपनी एक नयी परिभाषा लेकर आती है और आलोचना विधा को अपने मानकों में रद्दोबदल करना पड़ता है इस कृति के साथ भी यही हुआ है।
'और एक समुद्र भीतर का' निबंध में गोवा की प्राकृतिक सुषमा की चर्चा करते हुए और इस बात का उल्लेख करते हुए कि यह देश का सबसे समृद्ध राज्य है और यहां कोई भिखारी नहीं है, वे इस बात की अनदेखी नहीं कर पातीं कि छत्तीसगढ़ और कर्नाटक से यहां आये मछुआरों की जिन्दगी कितनी कठिन और संघर्षपूर्ण है-'उन्हीं के शब्दों में देखें-उनके बदन की गंजी के छेद उन जालों के छेद से काफी बड़े थे, जिनसे मछलियां निकल भागती हैं। न जाने इन दिशा शून्य आंखों ने कभी कोई सपना देखा है या नहीं। न जाने इन रूखी हथेलियों पर कभी कोई नर्म स्पर्श हुआ भी या नहीं।'
कुसुम खेमानी न सिर्फ लोगों, गिरजों, स्थापत्य और कलाकृतियों उनसे जुड़े भवनों, वहां के लोगों को उनके पूरे संदर्भ के साथ प्रस्तुत करती हैं बल्कि वे वहां की हर शै की लय और ताल, शैली और गति पर भी पैनी नजर रखती हैं। प्राग की इमारतों के बारे में उनकी कुछ पंक्तियां देखें-'ये घर कहीं भी प्रकृति से छेड़छाड़ करते नहीं दिखते और न ही कोई हस्तक्षेप..बस चुपचाप उसकी लय से एकाकार हो एक पंक्ति में उग आते हैं..एक दूसरे पर लद कर नहीं.. एक दूसरे के आत्मसम्मान की रक्षा करते हुए, उसे पूरा स्पेस देते हुए।' इस आलेख में एक उल्लेखनीय बात यह है कि लेखिका ने निर्मल वर्मा और भीष्म साहनी की चर्चा खुलकर की है और यह भी स्वीकार किया है कि प्राग जाने के लिए प्रेरित करने और फिर उसे समझने में उनकी कृतियों का योगदान है। इस पुस्तक की विशेषता यह है कि यह भौगोलिक यात्रा ही नहीं कराती बल्कि सांस्कृतिक यात्रा कराती हैं क्योंकि इसमें जहां भी लेखिका गयी हैं वहां का इतिहास, भूगोल और वहां की सामाजिक- सांस्कृतिक बुनावट का भी अध्ययन प्रस्तुत करती हैं, वह भी बेहद आत्मीयता, तल्लीनता और रोचकता के साथ। इन यात्राओं का विस्तार भारत के विभिन्न स्थलों से लेकर डर्बन, रोम, प्राग, बर्लिन, स्विट्जरलैंड, मास्को, मिस्र, मॉरीशस, भूटान और अलास्का तक है। यहां यह उल्लेखनीय है कि उनकी कुछ यात्राएं महज पर्यटन के उद्देश्य से नहीं की गयी हैं बल्कि वे अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों में भागीदारी के लिए आयोजकों के निमंत्रण पर गयी हैं, जिसके कारण उन्हें उन देशों में महत्वपूर्ण लोगों के सान्निध्य में आने का अवसर भी मिला जो आम पर्यटकों के लिए संभव नहीं था। नेल्सन मंडेला व दलाई लामा आदि के उदाहरण हैं। विभिन्न लोगों से मेलजोल के दौरान उनके व्यक्तित्व के अच्छे बुरे पहलुओं ने उन पर जो प्रभाव डाला उसका भी पूरी शिद्दत से चित्रण इन निबंधों में है जो एक कथानक लिए हुए है। पर्याप्त अंतर के बावजूद अपनी कतिपय विशेषताओं के कारण डॉ.कुसुम खेमानी की इस पुस्तक को मोहन राकेश के यात्रा वृत्तांत आखिरी चट्टान, अज्ञेय के अरे यायावर याद रहेगा व एक बूंद सहसा उछली, निर्मल वर्मा के चीड़ों पर चांदनी व धुंध से उठती धुन, असगर वजाहत के चलते तो अच्छा था के साथ याद किया जाना चाहिए।
पुस्तक की भूमिका में सुपरिचित कवि एकान्त श्रीवास्तव ने ठीक लिखा है कि ये यात्राएं केवल भूगोल का नहीं, वस्तुत: अनुभव का ही विस्तार है और इस तरह हमारी जीवन-दृष्टि का भी। ये जितनी बाहर की हैं, उससे कहीं अधिक भीतर की भी हैं। भौगोलिक धरातल पर लेखिका सौ कदम चलती हैं तो आनुभूतिक धरातल पर हजार कदम।
वरिष्ठ कथाकार काशीनाथ सिंह का इस पुस्तक के सम्बंध में मंतव्य उल्लेखनीय है- 'कहानियां सुनाती यात्राएं' के पन्ने पलटे तो माइकेल एंजेलो पर नजऱ गयी। उसी यात्रा वृत्तांत से पढऩा शुरू किया-'शाश्वत अश्रुप्रवाह है.. पियेता'। और विश्वास कीजिए, फिर मैंने कुसुम जी के साथ यात्राएं शुरू कर दीं-देश की विदेश की। पैदल, कार से, बस से, ट्रेन से, जहाज से। जहां-जहां वे गयीं, वहां-वहां मैं भी गया। जो-जो आपने देखा, वह-वह मैंने भी देखा। इन वर्णनों की खासियत यह है कि वे देखती ही नहीं, पाठक को दिखाती भी चलती रही थीं-एक कुशल 'गाइड' की तरह।..मैंने निर्मल वर्मा की यात्राएं भी देखी हैं। वे बड़े लेखक हैं। वे यात्राएं भी अत्यंत काव्यात्मक, आकर्षक और भव्य हैं। लेकिन उनके यहां भाषा की भूलभुलैया और झुटपुटा ज्यादा है। काव्यात्मकता कुसुम खेमानी के यहां भी है लेकिन झीने आवरण सरीखी। चीजें छिपने के बजाय और उजागर होकर आंखों के आगे 'दृश्य' बन जाती हैं।
सम्पर्क-डॉ.अभिज्ञात, 40 ए, ओल्ड कोलकाता रोड, पोस्ट-पातुलिया, टीटागढ़, कोलकाता-700119 मोबाइल-9830277656 abhigyat@gmail.com
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