Tuesday, 21 July 2009

सच का चेहरा


स्टार प्लस पर एक टीवी कार्यक्रम शुरू हुआ है सच का सामना। किसी एक व्यक्ति से उसके जीवन के सच के साक्षात्कार का यह कार्यक्रम लोगों को बेचैन किये हुए है। झूठ पकड़ने की मशीन के सामने सच छिपाने की गुंजाइश नहीं है। एंकर राजीव खंडेलवाल प्रतिभागी से ऐसे सवाल भी पूछ रहे हैं जो उनकी जिन्दगी के उस सच की तस्वीर पेश कर रहा है जिसे अमूमन लोग छिपाते फिरते हैं। सच का सामना दरअसल भारतीय समाज का वह चेहरा है जो दिखायी नहीं देता। एक ऐसे भारतीय की तस्वीर सामने आ रही है जिसकी कल्पना आसान न थी। अच्छा है इससे यह उजागर हो रहा है कि हमारे समाज में कितना खोखलापन है। हमारे रिश्ते कितने दिखावटी हैं और हमारा जीवन कितना दोहरा।
हैरत की बात यह कि जो लोग सच का सामना पर आपत्ति जता रहे हैं उन्हें समाज के कड़वे सच पर ऐतराज़ नहीं है उन्हें ऐतराज़ है उसके सामने आने पर। यदि सच सामने नहीं आता है तो उस पर सामाजिक चर्चा कैसे होगी? कैसे किसी को पता चलेगा कि समाज का पतन कितना और किस ओर हो रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं जिसे हम छिपा रहे हैं उसमे छिपाने जैसी कोई बात ही न हो खामखाह एक गिल्ट लेकर हम ज़िन्दगी बसर करते रहे। सच सामने आये तो सच से समाज का डर जाता रहेगा। सच के सुधार का रास्ता खुलेगा। आवश्यकता इस बात की है कि जो ग़लत है वह न हो, इस बात की नहीं कि जो ग़लत है वह सामने ही न आये। यह जो छिपे हुए सच हैं इसी के कारण दो दुनियाएं एक साथ भारत में जी रही हैं। एक वह जहां एक ही गोत्र में विवाह करने पर मौत की सज़ा दी जाती है। जाति और धर्म से बाहर विवाह करने पर अक्सर। दूसरी तरफ वह दुनिया भी भारत में ही है जो खुल कर सच का सामना करने को तैयार हो रही है। लोग कहते रहे कि एक करोड़ के लिए लोगों को नंगा किया जा रहा है किन्तु क्या यह सच नहीं है जो एक करोड़ रुपये पाने जा रहा है उसे किसी नकली सच से नहीं गुजरना है उस सच से गुजरना है जो उसके भीरत है। भीतर और बाहर की दुनिया में इतनी फांक क्यों होनी चाहिए कि वह दो अलग अलग व्यक्ति दिखायी दें। आईने से डरना बंद करो और सच का सामना करने का साहस जुटाओ। सच का सामना करने का साहस आने पर सच बदल जाता है क्योंकि वह सामाजिक चर्चा का विषय बनता है और निजता खत्म होती है। यदि लोगों को लगता है कि सच का सामना करने वाले सच की तरह स्वयं उनका भी सच है तो उस हक़ीकत से लड़ें जो उनके भीतर है। किसी व्यक्ति से उसके परिवार वालों के सामने यह पूछना अशोभनीय है कि उसके दूसरे किसी महिला या पुरुष से अवैध सम्बंध रहे हैं बुरा प्रश्न है या यह हक़ीक़त की हां है। हां कहते ही समाज पतित हो जाता है किन्तु छिपा लेने से समाज की पवित्रता बनी रहती है तो क्या ऐसी किसी पवित्रता की आवश्यकता है? यह धारावाहिक उन तमाम प्रयासों की एक कड़ी के तौर पर देखे जाने की मांग करता है जो भारतीय समाज को एक खुला समाज बनाती है, जिसकी हमें आवश्यकता है। अगर हमारा समाज भीतर ही भीतर सड़ गया है तो उसे बदलने की आवश्यकता है। अगर वह भीतर ही भीतर खोखला है घिनौना है तो उसे भी सामने आना होगा। क्योंकि परिवर्तन की यह पहली शर्त है। सच का सामना किये बिना कोई बदलाव समाज में नहीं आ सकता और हम कुछ कहते और कुछ करते हुए अपना जीवन जीते नज़र आयेंगे।

8 comments:

  1. ye sach ghinauna hai..........

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  2. हंस में आपकी कहानियां देखी थीं...
    ब्लॉग की दुनिया में भी आपका स्वागत है....

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  3. सही दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है आपने।
    इस नज़रिए की आदत नहीं है समाज को।

    उम्मीदें रहेंगी आपसे।

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  4. हर व्यक्ति नंगा पैदा हुआ है पर समाज मै रहने के लिए कपडे पहनना ज़रुरी है

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  5. kabhi khoj bhi rang lati hai.

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  6. बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्‍लाग जगत में स्‍वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्‍दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्‍त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

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  7. gudia said...
    हर व्यक्ति नंगा पैदा हुआ है पर समाज मै रहने के लिए कपडे पहनना ज़रूरी है
    24 July 2009 03:57
    पर प्रतिक्रियाः
    आवरण यदि कला के लिए है तो स्वागत है पर यदि वह बंधन बन जाये तो स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। प्रकृति रूप से बढ़कर को सौन्दर्य नहीं। दुनिया का हर कलाकार यह मानता है कि मानव देह से बढ़कर कोई सौन्दर्य पृथ्वी पर नहीं। हर युग में नग्नता की अवधारणा बदलती है लेकिन जब और जहां भी लबादे लादे जाते हैं वे मनुष्य के विकास में बाधक बने हैं। परदे में रहने की हिदायत देकर हमारे देश में करोड़ों महिलाओं को अपने ही घर में कैद कर दिया गया है। परदे ने हमारी स्त्रियों का व्यक्तित्व ही लील लिया है।

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