देश में ऐसे भी गांव हैं जहां ज़मीन के पुराने नक्शे नहीं हैं और ज़मीन की लिखा पढ़ी को लेकर अक्सर विवाद होता रहता है। ऐसे में सरकारी कर्मचारी गांव के बुजुर्गों की राय लेते हैं और उनकी स्मतियों के आधार पर ही ज़मीन के फैसले करते हैं। ऐसे में गांव में बुजुर्गों की अमहमियत उजागर होती है। यही नहीं अब जो पीढ़ी उम्र के पांचवे दशक में पहुंच चुकी है उनकी जन्म तिथियों की जानकारी भी ऐसे ही बुजुर्गों के पास है क्योंकि उस समय जन्म मृत्यु का रिकार्ड सरकारी तौर पर कहीं किसी गांव में शायद ही उपलब्ध हो। स्वयं अपनी जन्म की तिथि को लेकर मैं बरसों तक गुमराह रहा। मेरी मां ने जो मेरी जन्म तिथि बतायी थी उसी पर यक़ीन करता रहा किन्तु यकायक गांव में रह रहे रिश्ते में बाबा राममूर्ति सिंह ने मेरी जन्म तिथि की वास्तविक तारीख बतायी। बातचीत में उन्होंने बताया कि उनके पास एक गांव से जु़ड़ी तमाम घटनाओं का रिकार्ड दर्ज़ है। मैंने जिज्ञासा वश उनसे वह रिकार्ड दिखाने को कहा तो मैं सुखद आश्चर्य से भर उठा। एक पुराने कपड़े में जतन से बंधी कम से कम सात डायरियां थीं। उनमें लिखा थी परिवार ही नहीं पास-पड़ोस के घर में पैदा होने वाले बच्चों की जन्मतिथियां और लोगों की मौत की तारीखें। उसी में मेरे जन्म का तारिख और समय दर्ज था। फिर मेरी मां ने जन्म की जो तारीख दी थी वह कहां से आयी? इस जिज्ञासा का समाधान भी उनके खातों से ही हो गया। मेरी चचेरी बहन जो मुझसे डेढ़ माह पहले पैदा हुई थी यह उसकी जन्म तिथि थी। मेरी मां के अवचेतन में बहन के जन्म की तारीख और मेरे जन्म का महीना गड्मगड्ड हो गया था। गांव में इसी तरह लोग जोड़ते हैं अमुक से इतने माह इतने दिन छोटा या बड़ा। मेरे जन्म का माह सही था लेकिन तिथि बहन की थी। मैं उस रिकार्ड का ही रिणी नही थी मैं इस बात को लेकर बेहद हैरान भी था कि मैं साहित्यकार होने के बावज़ूद दुनिया जहान से उतना नहीं जुड़ा हूं जितना मेरे यह बाबा।
उन्होंने अपने रिकार्ड में दर्ज किया है किस नीम का पेड़ किस दिन किसकी बेटी की शादी या किसके मकान में दरवाज़े खिड़की बनाने के लिए काटा गया। बगीचे कि किस आम के पेड़ ने किस साल से फरना शुरू किया। गांव के किस कुएं की सफाई कब हुई। कब किसके कितने बैल बिके। किसकी गाय कब ब्यायी। किसके मकान की आधार शिला कब रखी गयी। किसने कब किसकी ज़मीन खरीदी। कब किसके घर का बेटा कमाने शहर गया। एक भरी पूरी दुनिया का हिसाब वे इतनी बारीकी से रखते रहे हैं।अब चौरासी पार के हो चुके हैं। सोचता हूं कि यह बुजुर्ग क्या समाज के हाशिये के लोग हैं या यही वे हैं जो इस दुनिया को बेहतर बनाने की जुगत में लगातार लगे रहे।
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