Friday 15 January 2010

मान लेने क्या सचमुच जीवन-मूल्य है!!

अक्सर मेरे मित्र व मेरे दुनियादार शुभेच्छु मुझे समझाते रहते हैं कि मैं सबसे जिस-तिस बात पर ख़फा रहता हूं और दुनिया भर में हो रही तमाम बातों पर नाराज। यह मेरी सेहत के लिए ठीक नहीं है। और मेरा स्वभाव भी दुनिया भर में बुराई खोजने वाला बनता जा रहा है जो एक नकारात्मक सोच है और जीवन शैली है। एक ने तो संत वाणी ही सुना डाली जिसके शब्द तो मुझे जस-के-तस याद नहीं पर उसका लब्बोलुबाब यह था कि एक ने कही दूसरे ने मानी और इसीलिए दोनों ज्ञानी।
मेरी बेटी एमबीए कर रही है उसने में मुझसे कहा कि पापा मुझे मैनेजमेंट की क्लास में समझाया गया है कि यदि किसी दोस्त के तुम्हारी किसी बात पर बहस हो जाये तो कई बार स्वयं के सही रहने पर भी हार मान लेनी चाहिए क्योंकि यदि तुम बहस में दोस्त से जीत गये तो दोस्त को खो दोगे। इससे अच्छा है बहस में हार कर दोस्त को बनाये रखना।
उनकी बातें मुझे जंचती हैं। मगर क्या यह बात हर क्षेत्र में सही हैं। क्या हम बेहतर जीने की कोशिश में बदतर से समझौते करते रहें तो हमारा जीवन सचमुच बेहतर हो पायेगा? दुनिया के कई शास्त्र असहमति पर ही बने हैं और धर्म भी। यदि पुराने धर्म से असहमति न होती तो नये धर्म नहीं बनते। नये धर्म का जन्म पुराने धर्म से असहमति के कारण ही होता है। शास्त्रार्थ हमारे यहां की प्राचीन रवायत रही है। हमारे जैसे लोग जो साहित्य में कुछ करने-धरने के उपक्रम में जुते हैं उसकी मूल उर्जा और मूल प्रेरणा ही असहमति रही है। बिना आलोचकीय दृष्टि के कोई भी महत्वपूर्ण कार्य नहीं किया जा सकता। जिसकी दृष्टि में जिस स्तर की आलोचनात्मक धार रहती है उसका सृजन उतना ही महत्वपूर्ण और सार्थक माना जाना चाहिए। मैं क्या देश भर के तमाम लोग बरसों से 'हंस' पत्रिका इसलिए भी पढ़ते आये हैं क्योंकि राजेन्द्र यादव की आलोचकीय दृष्टि में बहुत धार और वे असहमतियों की खान हैं जो उनके सम्पादकीय को अर्थवान और पठनीय बनाती है। इधर,'वागर्थ' में डॉ.विजय बहादुर सिंह के सम्पादकीय का तेवर भी कम तीखा नहीं है। जो व्यक्ति भी समाज में जो कुछ चल रहा है उससे सहमत है तो फिर उसे न तो सृजन की आवश्यकता है और न उसके सर्जनात्मकता को कोई मूल्य है। राजनीतिक दल भी एक दूसरे के प्रति आलोचकीय दृष्टि रखते हैं। इधर राजनीति में तो विपक्ष का मूल कार्य सत्ता पक्ष के हर कार्य का विरोध ही बनकर रह गया है। ऐसे में हमें इस बात पर भी विचार करने की आवश्यकता है कि क्या मान लेना सचमुच कोई मूल्य है?
इधर, सूर्य ग्रहण के दिन ज्योतिषियों की वैज्ञानिकों ने खूब खबर ली और उनके दावों को खोखलेपन की लगभग कलई खोल दी। मान लेने पर टिके धंधों की असलियत सामने आनी ही चाहिए।

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