भारत की सरकार पिछले कई साल से संयुक्त राष्ट्र में यह आधिकारिक तौर पर स्वीकारने से बचती आयी हैं कि देश में जाति प्रथा का अस्तित्व है या नहीं.वर्ष 1965 से भारत ने नस्लीय आधार पर भेदभाव के उन्मूलन के लिए गठित संयुक्त राष्ट्र संघ की समिति की बैठकों में विरोधाभासी रवैया अपना रखा है.संयुक्त राष्ट्र ने पिछले दिनों भारत को फिर चेतावनी दी है कि वह अपने यहां जातिवाद को खत्म करे क्योंकि वह मानवाधिकारों के उल्लंघन के समान है.भारत जातिवाद को लेकर विश्वमंच पर चिन्ता जताता रहा है कि जातिगत भेदभाव गलत है और उसे खत्म करने के लिए वह अपने देश में ठोस कदम उठा रहा है किन्तु इस मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण करना गलत होगा, लेकिन यह ठोस कदम गत साठ सालों में आरक्षण से आगे एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाया है.
भारत साठ सालों में भी यह नहीं समझ पाया है कि आरक्षण देकर जातिवाद को खत्म नहीं किया जा सकता, खास तौर पर तब जब हर चुनाव में जातीय समीकरण को प्रधानता दी जाती रहे.
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने पिछले माह जेनेवा में हुई अपनी बैठक में इस प्रश्न पर व्यापक विचार-विमर्श किया कि क्या जाति को नस्ल के समकक्ष मान लिया जाना चाहिए. भारत का मानना है कि जाति नस्ल नहीं है और जातिगत भेदभाव की समस्या भारत की आंतरिक समस्या है. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद का यह प्रस्ताव है कि संयुक्त राष्ट्र संघ और उसके विभिन्न संगठन, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के संबंधित सरकारों के प्रयासों में भागीदारी करें. भारत इसका विरोध कर रहा है. डरबन में 2001 में संरा की ऐसी ही एक कोशिश थी. संरा मानवाधिकार परिषद ने जाति के आधार पर भेदभाव के मामलों को मानवाधिकार उल्लंघन के दायरे में लाने का मन बना लिया है। पिछले दिनों इसके लिए परिषद ने तर्क दिया कि जाति एक ऐसा पहलू है जिसके आधार पर तकरीबन बीस करोड़ लोगों को भेदभाव का शिकार होना पड़ता है।
यह सर्वविदित है कि स्वाधीनता संग्राम के साथ ही जातिगत और लैंगिक समानता की मांग उठने लगी थी. यह मूल्य भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के अभिन्न हिस्से थे. शूद्रों की समानता के पैरोकारों ने मनुस्मृति को जलाया लेकिन अब असमानता कि चिंगारियों को हवा देकर उस पर वोटबैंक की रोटियां सेकीं जा रही हैं.
संविधान सभा के सदस्यों ने आमराय से समान मताधिकार और एक ही मतदाता सूची का प्रावधान करने के साथ ही अछूत कहे जाने वाले दलित वर्गों को बेहतर अवसर उपलब्ध कराने को दस साल के लिए आरक्षण का प्रावधान किया था, ताकि उनकी दशा सुधर सके.संविधान के अनुच्छेद 334 के तहत लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को उनकी आबादी के अनुपात के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गयी थी.संविधान निर्माताओं ने 'कानून के समक्ष सब बराबर हैं' के बजाय और अधिक सकारात्मक और समावेशी 'कानून के समक्ष समान संरक्षण' रास्ता अपनाया जो आज संरक्षणभोगियों के लिए दूसरों से अधिक सुविधा का सबब बन गया है.
संविधान के 26 जनवरी 1950 को लागू होने के बाद से आरक्षण की अवधि दस दस वर्ष करके पांच बार बढाने के बावजूद कहा जा रहा है कि वह अब तक अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाया है इसलिए आरक्षण दस साल और बढाने की जरूरत है तो यह एक विडम्बना ही है.और यही चलता रहा तो इस बात की क्या गारंटी है कि दस साल बाद वर्ष 2019 में संविधान के अनुच्छेद 334 के प्रावधान को दस साल और बढा़ने की जरूरत नहीं पडे़गी. लोकसभा और राज्य विधान सभाओं में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं एग्लोइंडियन समुदाय के लिए आरक्षण की व्यवस्था दस वर्ष के लिए और बढ़ाने संबंधी संविधान संशोधन विधेयक को 5 अगस्त 2009 को लोकसभा में एक के मुकाबले 375 मतों से पारित कर दिया. राज्य सभा इस विधेयक को पहले ही पारित कर चुकी थी. संविधान के 109 वें संशोधन विधेयक 2009 में अनुसूचित जाति, जनजाति और एग्लो इंडियन समुदाय के लिए विधायिका में आरक्षण की व्यवस्था 25 जनवरी 2010 के बाद दस वर्ष के लिए बढ़ाने का प्रावधान किया गया है. कानून मंत्री वीरप्पा मोइली द्वारा पेश इस विधेयक के जरिए संविधान के अनुच्छेद 334 में संशोधन किया गया है. इस अनुच्छेद में मूल रूप से 60 वर्षों के लिए आरक्षण की व्यवस्था थी, जो 25 जनवरी 2010 को पूरी हो रही है. यहां यह गौरतलब है कि आरक्षण व्यवस्था का फायदा उठाने वाले वर्ग के प्रतिनिधियों, जो जाति की राजनीति के आधार पर नेता बने हुए हैं, ने ही इसका समर्थन नहीं किया बल्कि उन्होंने भी नहीं किया जो सवर्ण समुदाय से हैं, उनके समर्थन का कारण यह कि वे जाति आधारित दबाव समूहों के बीच अलोकप्रिय नहीं होना चाहते. इस विधेयक का किसी भी सदस्य ने विरोध नहीं किया, लेकिन संविधान संशोधन विधेयक होने के कारण मत विभाजन की औपचारिकता पूरी करनी पड़ी.
अब जबकि गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) के लोगों को आधार बनाकर सरकार ने कई योजनाएं शुरू की हैं जिसका लाभ एससी, एसटी वर्ग तक पहुंच रहा है तो ऐसे में जाति पर आधारित आरक्षण की आवश्यकता और औचित्य क्या है यह किसी ने नहीं पूछा. है. क्या महज यह दलील पर्याप्त है कि एससी, एसटी को आरक्षण की सुविधा तो दी गई है लेकिन इस पर ठीक से अमल नहीं हो पाया है. यही वजह है कि आजादी के 60 साल बीतने के बाद भी इन वर्गों के लोगों की स्थिति में काई खास सुधार नहीं आया है.
देश में दलितों को सवर्णों के बराबरी में लाने के लिए शुरू की गयी आरक्षण व्यवस्था आरक्षण से मिली सुविधाओं के कारण जातिवाद को ख़त्म करने में सबसे बड़ी बाधक बन गयी है. जाति के आधार पर राजनीतिक समीकरण तैयार हो गये जिसके कारण अब जाति आधारित आरक्षण ख़त्म करना मुश्किल होता जा रहा है. देश को आज़ाद हुए इतने वर्ष हो चुके हैं कि अब न तो वह लोग रहे जिन्होंने जाति के आधार पर शोषण किया और न वह हैं जिनका शोषण हुआ. अब जो पीढ़ी है उसके साथ विपरीत हो रहा है. समान प्रतिभा रखने वाले छात्र और शिक्षित युवक उन लोगों से आरक्षण के कारण पिछड़ जाते हैं जो आरक्षण की सुविधा पाते हैं. एक नये दलित वर्ग का सृजन सरकार की समानता की अभिप्सा के विरुद्ध है. ऐसे में आरक्षण को समाप्त करने के लिए सरकार में जिस दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है उसका अभाव दिखायी देता है. दूसरे चुनाव में जातीय समीकरणों के कारण भी सरकार ऐसे अलोकप्रिय कदम उठाने का साहस नहीं जुटा पा रही है.
दलित वर्ग से जुड़ी लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार जाति आधारित आरक्षण को समाप्त करने के सवाल पर कहती हैं कि समाज में जाति आधारित आरक्षण को समाप्त करने से पूर्व जाति प्रथा को समाप्त किया जाना जरुरी है. मीरा कुमार ने बुधवार 9 सितम्बर 2009 को नई दिल्ली में इंडियन वीमन्स प्रेस कोर में प्रेस से मिलिए कार्यक्रम में कहा कि हर व्यक्ति पूछता है कि आरक्षण कब खत्म होगा लेकिन मैं पूछती हूं कि जाति व्यवस्था कब खत्म होगी? क्योंकि जब तक जाति प्रथा खत्म नहीं होती तब तक सामाजिक आरक्षण खत्म नहीं हो सकता. यहां यह याद दिलाना कम विडम्बनापूर्ण नहीं है कि स्वयं मीरा कुमार को लोकसभा अध्यक्ष बनाये जाने को एक दलित के उत्कर्ष के तौर पर देखा गया.
यह गौर करने की बात है कि यदि हमने जाति प्रथा को समाप्त नहीं किया तो इस मुद्दे के अन्तर्राष्ट्रीयण को रोकना मुश्किल हो जायेगा और पाकिस्तान जैसे मुल्कों को भी भारत में जाति के नाम पर भेदभाव अपनाने वाले राष्ट्र की तानाकशी का शिकार होना पड़ेगा. जाति आधारित अन्याय के मामलों को लेकर अंतरराष्ट्रीय दखल बढऩे का अंदेशा बना रहेगा, जो हमारी गरिमा के अनुकूल न होगा.
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