पुस्तक का नाम-समुद्र में नदियां/लेखक-स्वाधीन/प्रकाशक-स्वाधीन साहित्य प्रकाशन समिति, 150/4, एलआईजी, 4 फेज, केपीएचबी कालोनी, हैदराबाद-500072/मूल्य-85 रुपये।
पिछले ढाई दशकों में स्वाधीन ने अपनी कविताओं और गजलों ने अपनी एक विशिष्ट पहचान बना ली है। उनकी रचनाओं में हिन्दू और उर्दू दोनों जुबानों की मिठास और उसके भाषिक संस्कार मिले हुए हैं, जो पाठक को कविता के एक नये आस्वाद से परिचित कराती हैं। स्वाधीन की कविताएं पढ़कर यह भरोसा होता है कि यह बदतर होती दुनिया कभी बेहतर होगी, निराश होने की जरूरत नहीं है। जरूरत है तो बस मिल जुल कर बदलाव की कोशिश करने की। उनकी कविताओं में बदलाव और मुश्किलों से निजात का रास्ता अकेले के प्रयासों से संभव होता नहीं दीखता। वे सामूहिक प्रयासों के हामी रहे हैं और इस संग्रह में भी बदलाव के सामूहिक प्रयासों के प्रति उनकी भरोसा कायम है। मौजूदा दौर में आदर्शों का हश्र देखने के बाद उनकी कविताओं में बदलाव का भरोसा लगभग रोमांटिक लगने लगता है किन्तु वही उन्हें एक सच्चा और बड़ा कवि भी बनाता है। उनकी रचनाओं कब अपना दर्द समूह का दर्द और समूह का दर्द अपना बन जाता है कहना मुश्किल है। एक बानगी देखें- 'इक रोज तुम्हें अपने ही घर याद करेंगे।/बिछड़े हुए आंगन के शजर याद करेंगे।/तुम अपने लहू रंग के परचम तो उठाओ/ ये सुर्ख सबेरों के नगर याद करेंगे।'
व्यक्ति और समूह उनके यहां एक है। माक्र्सवादी प्रतिबद्धता उनकी रचनाओं को रसद पहुंचाती है किन्तु वे विचारों की नारेबाजी करते नहीं दिखायी देते जो उनकी रचनाओं के उथला और इकहरा होने से बचाती है- 'खुद बन गये जब आईने पत्थर कई दिन तक।/ बेचेहरा रहे हम भी तो अक्सर कई दिन तक।/वो अपने वतन के थे, बसाना था उन्हें भी/ मिलते रहे हम उन से बराबर कई दिन तक।'
इस संग्रह में गजलों अलावा कुछ कविताएं भी हैं। वे संवेदनशीलता और वैचारिकता से हमें बांधती हैं-'नदियों के बंटवारे को लेकर/कोर्ट के फैसले के विरुद्ध/लगा दी गयी है पानी में आग/और जला दी गयी हैं बसें.../इस आहूत बंद में/यह जलती हुई कावेरी, कृष्णा और गोदावरी/कहां जाकर करेगी फरियाद?/क्या इन सब की सुनवाई/समुद्र करेगा।/फिलहाल समुद्र में नदियां/अपने अपने हिस्से का पानी तलाश रही हैं/अपनी अपनी नदियों के पक्ष में/रहनुमा खटखटा रहे हैं आंदोलन का द्वार/और पानी में मछलियां/लामबंद हो रही हैं इन के खिलाफ।'
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