Monday, 21 September 2009

जटिल यथार्थ की रोचक अभिव्यक्ति

विकास स्वरूप का उपन्यास 'कौन बनेगा अरबपती' अंग्रेजी में 'क्यू एंड ए' नाम से प्रकाशित है, जिस पर 'स्लमडाग मिलिनियर' फ़िल्म बनी है जिस पर आस्कर पुरस्कार भी मिले हैं। इस उपन्यास में उन्होंने जिस परिदृश्य को अपनी विषयवस्तु बनायी है, वह भारत का है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए जो बात हमारे जेहन में सबसे अधिक आती है वह यह कि लेखक एक जबर्दस्त किस्सागो है और कथात्मकता को रोचक बनाने के लिए जहां वह ठोस यथार्थ से बार-बार टकराता है वहीं चमत्कारों से भी उसे परहेज नहीं है।
उपन्यास में लगातार ऐसे संयोगों का क्रम चलता रहता है जिसका आम ज़िन्दगी में प्राय: कम ही अवसर होता है किन्तु यह कथानक को नयी ऊंचाई देने में सहायक है और पाठक सच और झूठ के चक्कर में न पड़कर कथानक के रोमांचकारी घटनाक्रम के साथ आगे बढ़ता रहता है। कथानक का केन्द्र हालांकि भारत की झुग्गी-झोपडिय़ों में जानवरों की सी जि़न्दगी जी रहे लोग हैं फिर भी रचनाकार अपनी रचनात्मक कुशलता के बूते उस जीवन को भी अनावृत्त करता चलता है, जो बेहतर जि़न्दगी जैसा लगता है। इस क्रम में रचनाकार न तो चर्च के जीवन को बख्शता है न फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध भरी ज़िन्दगी को। फ़िल्म का नाम राम मुहम्मद थामस फादर टिमथी के पास जन्म के कुछ दिन बाद तक रहा था और उसकी क्रम में वह चर्च की कड़वी सच्चाइयों से भी वाक़िफ़ होता है। रियासतों और हवेलियों की हृदयहीनता इसमें है, तो चकलाघर में वेश्यावृत्ति करने को मज़बूर की गयी मध्य प्रदेश के बेडिय़ा कबीले की नीता की ज़िन्दगी की दिल दहला देने वाली सच्चाइयां। इस कबीले के हर परिवार की एक बेटी को वेश्यावृत्ति करनी पड़ती है। रियासतों से जुड़े लोगों की तल्ख हक़ीकत को लेखक ने स्वप्न महल हवेली में रहने वाली स्वप्ना देवी के जीवन के माध्यम से व्यक्त किया है। देवर से अवैध सम्बंध के चलते वह अपने बेटे शंकर की पहचान ही गुप्त नहीं रखती बल्क़ि उसकी हृदयहीनता की हदें तब पार कर जाती हैं जब कुत्ता काटने से रैबीज के शिकार उसके बेटे शंकर की मौत हो जाती है किन्तु वह उसे बचाने के लिए चार लाख रुपये का इंजेक्शन खरीदने के लिए राम मुहम्मद थामस को पैसे नहीं देती, जबकि झोपड़पट्टी का किशोर चार लाख रुपये चोरी करके अपनी प्रेमिका को बचाने ले जाता है किन्तु उन रुपयों को रैबीज का इंजेक्शन ख़रीदने के लिए एक अनजान व्यक्ति को अपने बेटे की ज़िन्दगी बचाने के लिए दे देता है।
पुस्तक का नामः कौन बनेगा अरबपति/ लेखक-विकास स्वरूप/अनुवादक-ऋषि माथुर/प्रकाशक-प्रभात पेपरबैक्स,4/19 आसफ अली रोड, नयी दिल्ली-110002/मूल्य-125/संस्करण- 2009

यह उपन्यास धारावी की झोपड़पट्टी के एक वृहद जीवन का कारुणिक महाआख्यान बन पड़ा है। इसमें कोई संदेह नहीं और उसके बरक्स बाकी जीवन भी है जो किन्हीं मायनों में झोपड़पट्टी के जीवन से अधिक दयनीय और वहां की जीवन-स्थितियों के कारण संवेदनहीन होते जाते लोगों की तुलना में अधिक संवेदनशून्य है, अधिक दयनीय। लेखक ने इसे बार-बार व्यक्त किया है चाहे ट्रेन में डकैती के दौरान डकैत से जूझने की साहसिक घटना हो या झोपड़पट्टी में रहने आये खगोलविद पिता के यौनशोषण से उसकी बेटी को बचाने के लिए किया गया उपक्रम।


उपन्यास में झोपड़पट्टी के जीवन के बरक्स बाकी जीवन पर कटाक्ष है। यह झुग्गी-
झोपड़ी वालों पर व्यंग्य नहीं बल्कि उनके प्रति संवेदनशील मनोभूमि के साथ उसमें रहने वालों के जीवट और उनमें छिपी करुणा, संवेदनशीलता की शिनाख़्त का महती उपक्रम है। यह बात पाठक को अधिक आकृष्ट करती है कि किस्सों की पूरी थान यहां मौजूद है। एक-एक के बाद एक किस्सों की शृंखला है किन्तु उसकी कडिय़ां बड़ी खूबसूरती से जुड़ी हैं कि वे एक बड़े कथानक का हिस्सा बन जाती हैं। यह खूबसूरत कड़ी वे सवाल हैं जो झोपड़पट्टी में रहने वाले 18 वर्षीय किशोर से पूछे जाते हैं। वह अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर उन सवालों के जवाब देता। यह सवाल ही वे दरवाज़े हैं जहां से पाठक बार-बार सुपरिचित हो चले परिवेश से एक नये कथाजगत में प्रवेश करता है और फिर नये अनुभवों में लौट आता है। सबसे बड़ी बात इस उपन्यास की यह है कि कुछेक बातों को छोड़कर दोहराव नहीं है। दोहराव के स्थल वे हैं जहां बाल यौन शोषण है और रह-रह कर झोपड़पट्टी के जीवन का वर्णन है। उपन्यास के अंग्रेजी में होने से यह जरूर हुआ है कि लेखक उस दायरे से बाहर है जो हिन्दी कथाजगत की परिपाटी बन चुका है और लेखक भी बने-बनाये दायरों से बाहर जाने से यह सोचकर प्राय: हिचकते हैं कि उन्हें कहीं लुगदी साहित्य वाला न मान लिया जाये। यह उपन्यास हिन्दी में आता तो शायद वेदप्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक के बीच कहीं उन्हें स्थान मिलता। क्रिकेट पर सट्टा लगाने वाला सुपारी किलर अहमद, हैती में लौआ को पूजने वाली महिला द्वारा वूडू तंत्र क्रिया से लोगों को यातना देने व हत्या करने की घटना, एक किशोर द्वारा डकैत की रिवाल्वर छीनकर उसे ही गोली मार देने जैसे कारनामे वेदप्रकाश शर्मा और सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यासों में ही संभव हैं। हालांकि हमारे यहां के लुगदी साहित्य में यथार्थ का वैसा विश्वसनीय चित्रण नहीं है जो विकास स्वरूप के यहां संभव हो सका है। उपन्यासकार के पास एक व्यापक दृष्टि है और तथ्यों के मामले में भी वे बेहद चौकन्ने हैं। इस मामले में हम हिन्दी के साहित्यकार मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास 'कुरु कुरु स्वाहा', सुरेन्द्र वर्मा के उपन्यास 'मुझे चांद चाहिए' और उदय प्रकाश के उपन्यास 'और अन्तमें प्रार्थना' का नाम ले सकते हैं, जो विषयवस्तु के विस्तार के लिहाज़ से भी महत्त्वपूर्ण हैं और किस्सागोई से भी ओतप्रोत। हालांकि जिस तरह के रहस्य, रोमांच और जादुई यथार्थवाद का चित्रण विकास स्वरूप ने किया है वह हिन्दी के उस लुगदी साहित्य से मेल खाता है, जो साहित्य की श्रेणी न तो गिना जाता है और ना ही उसकी कोई संभावना नजर आती है। फिर भी अविश्वसनीय घटनाओं को जोडऩे से यथार्थ की विद्रूपता और निखर कर सामने आयी और यह भी संभव हो सका है कि हालात बदलने के लिए करिश्मा ही सही, कोई रास्ता तो निकला। यथार्थ को अविश्वसनीय ढंग से ठेंगा दिखाते हुए भी कहानीपन को बचाने में विकास स्वरूप इस उपन्यास में कामयाब रहे हैं, जो इसकी पठनीयता को बढ़ाता है।

उपन्यास के नायक को नयी दिल्ली के सेंट मैरी के चर्च में पुराने कपड़े दान करने के लिए बनाये गये डिब्बे में कोई छोड़ गया था। वहां से शुरू हुई यतीम बच्चे की जि़न्दगी में कई रोचक मोड़ आये जहां कुछ वर्ष चर्च में गुजारने के बाद वह कभी झोपड़पट्टी की जि़न्दगी जीता तो कभी किसी जासूस के यहां नौकर बन गया। कभी फिल्म अभिनेत्री के यहां काम करता तो कभी बार में शराब सर्व करने लगता। कभी ताजमहल आने वाले पर्यटकों के लिए गाइड बना तो कभी बाल सुधार गृह से भीख मांगने के लिए बच्चों को विकलांग करने वाले गिरोह के हाथों लगा। बार-बार उसका सामना नयी और मुश्किल जीवन स्थितियों से पड़ा। नये लोग नयी स्थितियां उसे सिखाती रहीं। यह बच्चा 18 साल की उम्र में ही अपने अनुभवों से इतना परिपक्व होता चला गया कि उसका जीवन ही उसकी पाठशाला बन गया। वह ऐसे सवालों के जवाब जान गया जिसका जवाब कई बार कोई बहुत पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी आसानी से न दे पाये क्योंकि उसके जीवन में एकरसता नहीं थी, वैविध्य था। और उस वैविध्यपूर्ण जीवन की तहों को यह उपन्यास परत-दर-परत खोलता है। इस तेज़ रफ़्तार उपन्यास की खासियत यह है पाठक को हमेशा यह उत्सुकता रहती है कि जाने अब आगे क्या होने वाला है। विविधता को समेटने के लिए उन्होंने क्विज शो फार्मेट का इस्तेमाल किया है।

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