Saturday 3 October 2009

कानून व न्याय की वैश्विक अवधारणा

नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की नयी क़िताब आयी है द आइडियाज़ आफ जस्टिस। इस क़िताब के लोकार्पण समारोह में 3 अक्टूबर को उन्होंने जो कहा वह गौरतलब है। उनका कहना है कि वर्तमान कानून प्रणाली न्याय को अपने राष्ट्र तक सीमित न रखे जो 'संकीर्ण समदर्शिता' के नज़रिये के कारण है। उन्होंने उसके स्थान पर 'खुली समदर्शिता' की वकालत की है ताकि राष्ट्र कानून के मामले में अपने को स्थानीयता तक सीमित रखें। जो कुछ
कहा है उससे इस विचार को बल मिला है कि दुनिया भर के कानून को मानवता से जुड़े मसलों में एक होना चाहिए।
मनुष्य की बेहतरी के लिए पूरी दुनिया में एक ऐसा कानून अवश्य बनना चाहिए जो पूरी दुनिया पर लागू हो।
यह कत्तई नहीं होना चाहिए कि एक देश में जिस अपराध की सज़ा हाथ कलम करना हो दूसरे देश में वह चार माह की कैद से अधिक का मसला न हो। यह लोगों को विश्व नागरिक बनने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम होगा। कई ऐसे देश हैं जहां कानून व्यवस्था एकदम आदिम स्थिति में है और उन्हें हम बंद समाज से बाहर ला पाने में तब तक कामयाब नहीं हो सकते जब तक कि उसमें बाहरी पुरज़ोर हस्तक्षेप न हो।
दुनिया भर के लिए ज्ञान के दरवाज़े खोलना अच्छा है, बाज़ार के दरवाज़े खोलने की पहल हो ही चुकी है लेकिन सबसे ज़रूरी है न्याय के दरवाज़े खोलना। भारत जैसे देश में जहां लोकतंत्र के मज़बूत होने की बात कही जा रही है न्याय व्यवस्था का लचर होना बेहद अफसोस का विषय है। न्याय का अधिकार मनुष्य का सबसे बड़ा अधिकार है और वह वैश्विक स्तर पर सबको प्राप्त होना चाहिए। कई देश हैं न्याय के नाम पर मस्त्य न्याय है। कई देश हैं जहां औपनिवेशिक कानून व्यवस्था जस की तस है अथवा उसमें थोड़ी बहुत ही फेरबदल की गयी है। यह जगजाहिर है कि औपनिवेशिक कानून उन लोगों का हितपोषक रहा है, जो सत्ता में रहा है। जो देश औपनिवेशिक दासता से मुक्त हो भी गये तो कानून व्यवस्था में बहुत फेरबदल इसलिए नहीं किया गया ताकि उसका फ़ायदा उस वर्ग को हो जो मज़बूत हैं। इस प्रकार मत्स्यन्याय तमाम देशों में किसी न किसी रूप में जारी है और जो सम्पन्न और सत्ताधारी पक्ष का हितैषी है।
न्यायव्यवस्था जानबूझ कर इतनी लम्बी कर दी गयी है कि कमज़ोर व्यक्ति न्याय के लिए अदालतों के चक्कर काटते काटते थक जाता है बीच में ही सुलह करने को तैयार हो जाता है।
काश ऐसी व्यवस्था दुनिया के तमाम देश मिलकर करते कि कोई साझा कानून बन पाता तो उसके मित्र राष्ट्रों पर समान रूप से लागू हो पाता। जब भारत जैसे तेजी से विकसित हो रहे देश में कई तरह के पर्सनल ला हैं तो इससे कमजोर देशों की क्या स्थिति होगी। यह पर्सनल ला लोकतंत्र में वोटबैंक का हितपोषण करने के काम आते हैं इसलिए उसे ख़त्म करने की बात सोचना मुश्किल है। इससे निजात पाने का कोई और रास्ता नहीं बचा है।


1 comment:

  1. अमर्त्य सेन मानव बिरादरी के लिए भविष्य के लक्ष्य निर्धारित कर रहे हैं। पर इस के पहले तो बहुत काम शेष हैं। दुनिया को भूख, बेरोजगारी और गरीबी से मुक्ति दिलाना सब से अहम काम है। इस सीढ़ी को पार किए बिना आगे बढ़ना संभव नहीं है।

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