Saturday 15 July 2017

प्रकृति से अप्रतिम संवादशीलता और गहन तादात्म्य



समीक्षा-डॉ.अभिज्ञात
पुस्तक का नामः प्रकृति राग/ लेखक : मानिक बच्छावत

 प्रकाशक : समकालीन सृजन, 20 बालमुकुंद रोड, कोलकाता-700007/मूल्यः 150/-

लगभग साठ वर्षों से सतत रचनाशील वरिष्ठ साहित्यकार मानिक बच्छावत की प्रकृति से घनी आत्मीयता की रचनाओं का साक्ष्य उनका काव्य-संग्रह 'प्रकृति राग' है। उनकी प्रकृति पर लिखी कविताओं का चयन पीयूषकांति राय ने किया है। मानिक जी का प्रकृति के प्रति मैत्री भाव रहा है, जिससे वे लगातार संवादशील रहे हैं। उसके द्वंद्व को समझते हैं और उससे अपनी मानसिक ऊर्जा व संवेदनशीलता भी ग्रहण करते हैं। ऐसे दौर में जबकि वैश्विक स्तर पर पर्यावरण के बचाव की चिन्ता की जा रही है, ये रचनाएं उस मनोभूमि का निर्माण करती हैं, जहां प्रकृति का साहचर्य सुखद, विस्मयकारी और आह्लादकारी है। प्रकृति से मनुष्य के रिश्ते की पड़ताल इन कविताओं में है। कहना न होगा कि मानिक जी प्रकृति प्रेम से भी अपनी रचनात्मक खूराक प्राप्त करते हैं और ये रचनाएं उस ऋण का स्वीकार भी हैं।
इन रचनाओं में प्रकृति को उजाड़ने की साजिशों की ओर भी उन्होंने इशारा किया है। 'पहाड़ों पर आग कविता' में उन्होंने लिखा है-'सब कुछ खाक होता/दिखा/नंगे होते दिखे पहाड़/पहाड़ों पर न होंगे/पेड़ न फूल न फल/न घास घसियारे/न पशु न पक्षी/आस-पास क्यारियों में/बस खाली ज़मीन होगी/उस पर उठने लगेंगे/मकान दुकान/कारखाने/पहाड़ों पर लगी है आग/ या लगायी गयी है आग।' यह जो 'लगायी गयी है' का ज़िक्र है वही बताता है कि कवि का प्रकृति के प्रति कैसा अनुराग है तथा प्रकृति का संकट कितना गहरा है। एक ओर प्रकृति के बचाने की नारेबाजी है, दूसरी ओर मनुष्य की स्वार्थपरता प्रकृति की नैसर्गिक सुषमा को तहस- नहस करने में जुटी हुई है।
ऐसा नहीं है कि उनकी कविताओं में केवल तार्किकता है, बल्कि वे प्रकृति से गहन साहचर्य रखने वालों पर भी रीझते हैं-'वन कन्या कविता में वे लिखते हैं-'उसके पास/फुलदानी के/पुष्प नहीं/जूड़े में/पूरे वन की श्री है/उसे कृत्रिम प्रसाधनों की/ कोई ज़रूरत नहीं/अंग अंग में/ नैसर्गिंक महक है।' वन के पंछी के प्रति भी उनका अनुराग कम नहीं-'बस्तर की मैना' कविता की बानगी यूं है-'उसका बदन/रेशम की तरह/चमक रहा था/पक्षियों का अंतर्ज्ञान/नहीं बदला है/न मंद हुआ है/न बंद हुआ है/बदले हैं मनुष्य/जो उनके संकेतों को/ पढ़ नहीं पाते।' इस कविता में मनुष्य के प्रकृति से अलग-थलग पड़ जाने की टीस व्यक्त होती है।
प्रकृति की उपेक्षा और दुर्दशा से कवि दुःखी और चिन्तित है-'रेत की नदी' कविता में वे कहते हैं-'वर्षों से पड़ी हूं/अछूती/पीतवर्णी/दर्दीले मरुस्थल की/छाती पर पसरी/स्वर्ण झरी/मर्म भरी/परी-सी लेटी/निर्वसना/पीताभ रेत कणों की/ झर-झर कन्था/अपने निष्कासन के/दुख की परत कथा/सहती रही व्योम का ताप।'
प्रकृति की तमाम हलचलें उनके इस संग्रह में पूरी गरिमा के साथ उपस्थित हैं-'पका धान' कविता का एक अंश यूं है-'धरती के बेटों का/मन खुश है/अभी-अभी जो धान पका है/जीवन में जैसे मान पका है/और उमंगें नाच रही हैं/पके धान पर।' इन कविताओं में एक आंतरिक छंद है, जो भाषा को और नम करता है और उन भावों तक पहुंचने में और सुगम्यता प्रदान करता है।

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