Wednesday 15 January 2014

साहित्य की आलोचना पूरी सभ्यता की आलोचना है

प्रख्यात आलोचक डॉ.शंभुनाथ से डॉ.अभिज्ञात की बातचीत


प्रश्न: सृजनात्मक विधाएं अर्थात कविता, कहानी, उपन्यास आदि की तुलना में आलोचना विधा में सृजनात्मकता की गुंजाइश होती है, ऐसे में रचनात्मक संतोष जैसी मन:स्थिति होती है या नहीं?

उत्तर : मुझे लगता है कि आलोचना और रचना के बीच कोई दीवार खड़ी करना बुद्धिमत्ता का चिह्न नहीं है। हर रचनात्मकता में आलोचना छिपी रहती है। इसी प्रकार हर आलोचना में रचनात्मकता मौजूद होती है। इसलिए मुझे कभी नहीं लगा कि आलोचक के रूप में मुझे कभी रचनात्मकता सम्बंधी असंतोष हुआ हो। यह धारणा ही गलत है कि आलोचना रचना नहीं है। आलोचक भी कल्पना करता है। आलोचक के पास भी विजन होता है। आलोचक भी उसी समय और समाज का सामना करता है जिसका किसी अन्य विधा का रचनाकार सामना करता है। 
प्रश्न: फिर भी आम धारणा यह प्रचलित है कि आलोचना चूंकि किसी रचना पर आधारित होती है इसलिए वह उपजीव्य है। किसी अन्य रचना पर आधारित है..
उत्तर: यह उनके बारे में सच हो सकता है जो पुस्तक समीक्षक हैं। पर आलोचक का अर्थ बड़ा है। हालांकि आज आलोचना का अर्थ सिकुड़ा है। आज आलोचना का अर्थ है निंदा या चाटुकारिता करना। एक तरह का मैनेजमेंट का मामला हो गया है। विरोध न भी करना हो तो भी बात लाभ लोभ को तोल कर होती है। चाहे कोई पद मिला हो, पुरस्कार मिला हो या मिलने की गुंजाइश तो सराहना होती है, यदि ऐसी कोई गुंजाइश न हो तो निंदा होती है। आलोचना का एक तरह से अर्थ है क्रिटिकल एप्रीसिएशन, प्रशंसा करते हैं और आलोचनात्मक भी रहते हैं। सिर्फ आलोचनात्मकता ही पर्याप्त नहीं है। 
प्रश्न: आप ने आलोचना विधा में अरसे तक जम कर काम किया है..लेकिन जो रचनाकार अपनी विधाएं बदलते रहते हैं उनके प्रति आपका क्या नजरिया है?
उत्तर: एक जमाना था जब लेखक एक साथ बहुत सी विधाओं में लिखते थे। प्रसाद, निराला, अज्ञेय ये ऐसे रचनाकार थे जो एक साथ कई विधाओं में लिखते थे। वह एक तरह से बहुज्ञता का युग था। पर आज विशेषज्ञता का युग है। अब तो कई है वह सिर्फ कवि जो कहानीकार है सिर्फ कहानीकार है। आलोचक है तो आम तौर पर सिर्फ आलोचक है। फिर भी यह लेखक की अपनी स्वतंत्रता का मामला है कि वह एक या विभिन्न विधाओं में लिखे।
प्रश्न: साहित्यिक आलोचना अपने समाज की आलोचना से किस प्रकार भिन्न है। क्या समाज से कटकर साहित्य की स्वतंत्र आलोचना संभव है?
उत्तर: साहित्यिक रचनाएं भी समाज से पैदा होती हैं। रचना और आलोचना दोनों समाज से दूर नहीं रह सकती। जो सम्बंध रचना और आलोचना का है वही समाज और साहित्य का है। इसलिए रचना और आलोचना का समाज से समय और सभ्यता से गहरा नाता है। आलोचना है कुछ पुस्तकों की दुनिया तक सीमित नहीं है। वो एक तरह से पूरी सभ्यता की आलोचना है। यदि वह नहीं तो आलोचना एक ढंग से मुकम्मल नहीं हुई है। कुछ रचनाकार यह चाहते हैं कि वे क्रिकेट की पिच पर खेलें पर आलोचक बैठकर के टिप्पणी करे। भाई आलोचक की तो इच्छा होती है पिच पर खेलने की उसे भी तो खेलने दीजिए..
प्रश्न: वामपंथी आंदोलनों के क्षीण होने के राष्ट्रीय कारण क्या हैं? इनके लिए कौन जिम्मेदार है? 
उत्तर: नब्बे साल का कम्युनिस्ट आंदोलन धरा का धरा रह गया और एक साल की बनी आम आदमी पार्टी ने अपना रंग दिखा दिया। मुझे लगता है कि इसके मूल में यह है कि द्वंद्वात्मक भौतिकवादी द्वंद्वात्मक व्यक्तिवाद में बदल गया और इसे वामपंथियों को सोचना चाहिए कि वे कहां चूके हैं। उनके विचार और आचरण में कहां फर्क है। कहां उन्हें नयी स्थितियों के बारे में फिर से विचार करना होगा। क्यूंकि आज अमरीकी साम्राज्यवाद या पूंजीवाद या बड़े-बड़े शब्दों के आधार पर जनता को इकट्ठा नहीं किया जा सकता। आज जनता को बिजली, पानी, रसोई गैस, औरत पर अत्याचार, किसान, पर्यावरण जैसे मुद्दों को रखकर ही इकट्ठा किया जा सकता है और उनके भीतर से ही साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के खिलाफ चेतना पैदा की जा सकती है।
प्रश्न: वामपंथी आंदोलन सैद्धांतिक ज्यादा हो गया था व्यवहारिक कम..
उत्तर: भटकाव तो दोनों जगह आये..चाहे वह सैद्धांतिक स्तर और आचरण के स्तर पर, इसलिए वामपंथी शिविर में आत्मालोचना की बहुत अधिक। माक्र्सवादियों ने आधी ताकत तो अपने ही साथियों को खाने चबाने में खपा दी..खत्म कर दी..यही पूरे देश का परिदृश्य है वरना नब्बे साल का वामपंथी आंदोलन हाशिए पर क्यों होता?
प्रश्न: व्यावहारिक तौर पर साहित्यकार वामपंथी आंदोलन में भी मशाल नहीं थे बल्कि राजनीति करने वालों द्वारा हांके जाने वाले लोग थे इससे आप कहां तक सहमत हैं?
उत्तर: प्रेमचंद ने कहा है कि साहित्य राजनीतिक के आगे रहने वाली मशाल है। जब भी साहित्यकार बाजार तंत्र और संकीर्ण राजनीति का शिकार होता है वह अच्छा साहित्य नहीं दे पाता है। इसलिए यह आवश्यक है कि साहित्यकार कम से कम दो चीजों से मुक्त रहे एक तो लोभ और भय से। लोभ और भय से मुक्त हुए बिना साहित्यकार अच्छी रचना नहीं कर सकता। ये ऐसी चीजें है जो कई जगहों पर रचनाकार को चुप रहने पर मजबूर करती हैं। साहित्यकार को तो निर्भीकता से अपनी बात कहनी होगी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद से ऊपर उठकर। तभी उसका साहित्य जनता को संवेदित कर पायेगा।
प्रश्न: मौजूदा साहित्यिक समय को क्या नाम दिया जा सकता है? जनवादी लेखन का पराभव तो साफ दिखायी दे रहा है.. यह जो उसके बाद का रचना समय है मेरा प्रश्न उसी को लेकर है?
उत्तर : मुझे लगता है विचार का कभी पराभव नहीं होता वह जीवन में बचा होता है और साहित्य में भी। 19वीं-20वीं सदी जो है वह राष्ट्रीय जागरण का समय था। हमारा देश इस समय किसी न किसी तरह के केन्द्रवाद का बुरी तरह शिकार है। इसलिए आम नागरिक के अंदर केन्द्रवाद से घनघोर असंतोष है। जितनी केन्द्रवादी ताकते वे किंकर्तव्य विमूढ़ हैं। देश की जितनी राष्ट्रीय पार्टियां हैं वे किंकर्तव्य विमूढ़ हैं और जो स्थानीय पार्टियां हैं वो ज्यादा असर दिखा रही है। राष्ट्र एक तरह से जाति धर्म क्षेत्रीयता भाषा के आधार पर विघटन के कगार पर है इसलिए वर्तमान दौर में सबसे बड़ी चुनौती राष्ट्रीय पुनर्जागरण की है वर्तमान समय राष्ट्रीय पुनर्जागरण का है। दलित, स्त्री, किसान और आदिवासी राष्ट्र बना रहे हैं। पहले ऊपर से राष्ट्र बना था अब ये नीचे से राष्ट्र बना रहे हैं। वैश्वीकरण का मुकाबला बिना राष्ट्रीय पुनर्जागरण से संभव नहीं। वैश्वीकरण ने बाजार में तो एकता स्थापित कर दी है पर समाज को विभक्त कर दिया है। इसमें नीचे दबे कुचले वंचित लोगों की आवाज असरदार होगी। इससे नीचे से बनता हुआ जो राष्ट्र है, जो नीचे से उभरता राष्ट्रीय पुनर्जागरण है वही चुनौती देगा। 
प्रश्न: कई कवि इधर कथाकार हो गये हैं..., उसके क्या कारण आपको लगते हैं.. इस समय को क्या कथासमय को तौर पर रेखांकित किया जा सकता है। 
उत्तर : यह सही है कि इस समय पाठक उपन्यास की ओर अधिक आकृष्ट है। खासकर अंग्रेजी में उपन्यास का सितारा बुलंद है। अंग्रेजी उपन्यासकारों को बड़े बड़े पुरस्कार दिये जा रहे हैं। और एक तरह से उपन्यास साहित्य की केन्द्रीय विधा स्थापित है। आम पाठक उपन्यास पढ़ते हैं। यह इसका चिह्न कि समाज में किसी न किसी रूप में साहित्य की महत्ता बची हुई है। जीवन को बड़े कोण से जहां देखा जा रहा है वे चीजें पाठक चाहते हैं। वे अब खुदरा अनुभव की चीजें नहीं चाहते। पर यह है कि एक संकट है कि बाजार ने उपन्यास विधा का अपहरण कर लिया है इसलिए बहुत से राजनीतिक खेल उपन्यास विधा में चल रहे हैं। इस समय इतिहास को केन्द्र में रखकर उपन्यास लिखे जा रहे हैं ऐसे उपन्यास में इतिहास और कथा की ऐसी खिचड़ी पक रही है कि इतिहास का दुरुपयोग ज्यादा हो रहा है। वे इतिहास ही नहीं मिथकों से भी खेल रहे हैं। शिव पर तीन खंडों में जो उपन्यास आये लाखों प्रतियां बिकीं उसमें मिथकों का दुरुपयोग हुआ है। ये कृतियां साहित्यिक कम हैं, व्यवसायिक ज्यादा। कविता आज भी एक गैर-व्यावसायिक विधा है। वह बाजार में खरीदी बेची नहीं जा सकती। कविता भी कम बड़ी आवाज नहीं है..कविता में सच्ची आवाज होने की संभावना ज्यादा है। उसकी जगह समाज में बाजार में उसके लिए जगह नहीं है।
प्रश्न: आलोचक के तौर पर आपके रोलमॉडल कौन रहे हैं..आरंभ में किन लेखकों से प्रभावित रहे और अब किसे पढऩे योग्य पाते हैं।
उत्तर: मैं हिन्दी से दो साहित्यकारों से ज्यादा प्रभावित हुआ एक हैं प्रेमचंद दूसरे रामविलास शर्मा। बीसवीं सदी के पूर्वाद्र्ध में जो स्थान प्रेमचंद का है उत्तराद्र्ध में वही स्थान रामविलास शर्मा का है। मैं बेहिचक कह सकता हूं कि मेरे लिए आलोचना में कोई रोलमॉडल है तो वे रामविलास शर्मा हैं। सच्चा व सादा जीवन जिया। भय से मुक्त रहे। एक आलोचक को इससे ज्यादा और क्या चाहिए?
प्रश्न: एक शिक्षक के तौर पर अपनी भूमिका में आपने क्या पाया और क्या दिया?
उत्तर: मुझे लगता है कि एक शिक्षक के रूप में आरंभिक दशकों में विश्वविद्यालय में पढ़ाकर जो सुख मिला वह इधर के वर्षों में दुर्लभ है। इन दिनों विश्वविद्यालय में शिक्षा का वैसा वातावरण नहीं है। मुझे तो कुछ वर्षों में इधर लगा ही नहीं कि में विश्वविद्यालय में कुछ पढ़ा रहा हूं। अब साहित्य पढऩे का वह बड़ा मकसद नहीं रह गया है। अभी भी अच्छे विद्यार्थी हैं पर वे कम होते जा रहे हैं। साहित्य पढऩे का मतलब यह होना चाहिए कि हम कुछ अधिक मनुष्य होना चाहते हैं। अपनी संवेदना और ज्ञान का विस्तार करना चाहते हैं। इस समय रटकर तैयार की गयी चीजें विद्यार्थी की संवेदना और ज्ञान का कितना विस्तार करेंगी। लोग ज्ञान बहुत प्राप्त कर रहे हैं पर भावशून्य होते जा रहे हैं। आज ऐसे कई लोग हैं जो 'ज्ञानसमुद्र हैं पर भावकूप हैं।' फिर भी मुझे विश्वविद्यालय से प्रेम है। मेरा यहां लम्बा जीवन बीता।
प्रश्न: युवा रचनाकारों में क्या नया दिखायी दे रहा है। आप के युवा रचनाकारों के सामने क्या चुनौतियां हैं?
उत्तर : यह गहरे संतोष की बात है कि अब युवा रचनाकार पहले की तुलना में अधिक क्षेत्रों से निकल कर आ रहे हैं। पहले की तुलना में विविध समुदायों से निकल कर आ रहे हैं। एक बड़ी दुनिया बनी है रचनाकारों की। ये साहित्य को लेकर गंभीरता से काम कर रहे हैं।
प्रश्न: साहित्य जगत को आपने क्या दिया और क्या पाया?
उत्तर: साहित्य से पाया लांछना, अपमान, वंचना यही सब ज्यादा मिला..पर इस शहर में मुझे असीम स्नेह और सम्मान मिला। मेरे विद्यार्थियों ने मुझे बहुत आदर दिया।
मैंने साहित्य को क्या दिया यह तो नहीं कह सकता पर कोशिश जरूर की। मैं जब आगरा में केन्द्रीय हिन्दी संस्थान का निदेशक था, मैंने देश भर में हिन्दी के लिए जो काम करना संभव था, वो सब किया। शब्दकोष, सप्तकोष, विश्वकोष, लोकसाहित्य वगैरह की परियोजनाएं वहां शुरू कीं। अभी लिख रहा हूं पर क्या दे पा रहा हूं मुझे पता नहीं।
प्रश्न: सरकारी संस्थान में काम काम में तो बाधाएं आती होंगी..
उत्तर: केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा एक बीहड़ जगह थी। मेरे खिलाफ बड़े बढ़े षड्यंत्र चले। मेरा यह तरीका था कि शेर के मुंह से बचना हो तो उसकी सवारी करो। इसी तरीके से मैंने वहां 3 साल तक जमकर काम किया और लोग मुझे याद करते हैं।

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