Thursday 15 July 2010

युवाओं को बहुत कुछ सिखाता है नारायण मूर्ति का जीवन

Sanmarg, 18 July 2010



पुस्तक : कॉरपोरेट गुरु नारायण मूर्ति/ लेखक: एन.चोक्कन/ प्रकाशक-प्रभात पेपरबैक्स, 4/19 आसफ अली रोड, नयी दिल्ली-110002/मूल्य: 95 रुपये

यह पुस्तक प्रमुख सॉफ्टवेयर कंपनी इन्फोसिस के मुख्य संस्थापक एवं उद्योगपति नारायण मूर्ति के जीवन की एक ऐसी विलक्षण तस्वीर पेश करती है, जो देश के उन युवाओं के लिए प्रेरणादायक हो सकती है जो अपने जीवन में नया कुछ कर गुजरने की चाहत रखते हैं। उनका जीवन विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए एक व्यक्ति की कहानी है जिसने अपना मार्ग स्वयं चुना और बनाया है। गरीबी दिन व्यतीत कर रहे हाईस्कूल के अध्यापक पिता की आठ संतानों में से वे एक थे।
आर्थिक तंगी के कारण आईआईटी की प्रवेश परीक्षा पास करने के बावजूद से प्रवेश नहीं ले पाये थे। शादी से पहले उनकी यह स्थिति नहीं थी कि वे अपनी प्रेमिका के साथ घूम-फिर सकें। शुरू में वे वामपंथी विचारधारा के प्रति उनका झुकाव था। यह वामपंथी विचारधारा ही थी जिससे अभिभूत होकर मूर्ति ने पेरिस में बचाया अपना अधिकतर पैसा वहीं लुटाया और खाली हाथ भारत लौट आये थे। हालांकि उन्हें बुल्गेरिया में वामपंथ को लेकर एक कटु अनुभव हुआ और उनकी अवधारणा बदल गयी। और उन्हीं दिनों वामपंथ, समाजवाद और पूंजीवाद के अच्छे पहलुओं पर आधारित एक कंपनी खोलने का निश्चय किया था। वे अब भी यह मानते हैं कि 'आदमी को खूब पैसा कमाना चाहिए और उससे जरूरतमंदों की मदद करनी चाहिए।'
अच्छी खासी नौकरी छोड़कर उन्होंने नौकरीपेशा अपनी पत्नी सुधा से 10 हजार रुपये उधार लिये और 1981 में अपने छह अन्य दोस्तों के साथ पुणे में इन्फोसिस की आधारशिला रखी। इस टीम के सदस्य इस प्रकार थे-एनआर नारायण मूर्ति, नंदन नीलकेनी, के दिनेश, एस गोपालकृष्णन, एनएस राघवन, एसडी शिबुलाल एवं अशोक अरोड़ा। यह सभी पाटनी कंप्यूटर्स में कार्यरत थे। यह टीम आज भी साथ है हालांकि इनमें से केवल अशोक अरोड़ा कुछ कारणोंवश 1989 में अलग हो गये।
शुरू के दस साल कंपनी के लिए कठिनाइयों के रहे लेकिन उन्होंने और उनके सोच के प्रति विश्वास रखने वाले दोस्तों ने सारी बाधाएं पार कीं और आज यह कंपनी दुनिया की एक जानी मानी सॉफ्टवेयर कंपनी है, बेंगलुरु में जिसका मुख्यालय परिसर विश्व का सबसे बड़ा कंप्यूटर सॉफ्टवेयर परिसर है। 90 हजार कर्मचारियों वाली इस कंपनी का राजस्व 2008 में 4.18 अरब अमरीकी डॉलर के पार पहुंच गया।
इस किताब को पढ़ते हुए हमें एक दृढ़ निश्चयी व्यक्ति को करीब से जानने-समझने का मौका मिलता है। हमें यह भी पता चलता है कि यदि इन्फोसिस कंपनी इतनी बुलंदी तक पहुंची तो उसका कारण मूर्ति का वृहत्तर विजन था-'अपने नहीं देश के लिए धन कमाने का।' वे मानते हैं कि 'कोई कंपनी किसी भी तरह से सफल हो सकती है लेकिन अगर उसमें सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना न हो तो वह सफलता पूरी नहीं हो सकती।' दूसरी तरफ उन्हें ऐसी जीवनसंगीनी सुधा मिली थीं जो टाटा कंपनी समूह के अध्यक्ष जे.आर.डी.टाटा की इस सीख पर अमल करने में विश्वास रखती हैं कि 'हमें वह लाभ समाज को लौटा देना चाहिए, जिसे हम उसी से अर्जित करते हैं।' सुधा स्वयं टाटा की कंपनी टेल्को में कुछ अरसे तक कार्यरत थीं, जिसे उन्होंने पारिवारिक व्यस्तताओं के कारण छोड़ दिया था।
1996 में स्थापित इन्फोसिस फाउंडेशन का नेतृत्व सुधा नारायण मूर्ति के हाथ में है, जो स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक विकास के कार्यों को समर्पित है और वार्षिक पांच करोड़ रुपये इन कार्यों पर खर्च होता है।
मूर्ति और नारायण सुधा आज भी बेंगलुरु के जयनगर इलाके के एक अपार्टमेंट में एक साधारण फ्लैट में रहते हैं जहां कोई नौकर नहीं है और ना रसोइया। घर के काम-काज में तब तब मूर्ति भी सुधा का हाथ बंटाते हैं। यही कारण है कि उन्हें 'कॉरपोरेट गांधी' कहा जाता है। वे गांधीजी के जीवन दर्शन से काफी प्रभावित रहे हैं।
इस पुस्तक का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह भारत में औद्योगिक परिदृश्य के बदलाव को भी चित्रित करती है। 1991 के पहले का भारत भी इसमें है जब औपचारिकताओं के नाम पर तमाम बाधाएं पहुंचायी जाती थीं और बाद का परिदृश्य है जब भारत दुनिया में क्रमशः आर्थिक शक्ति बनता गया। 1991 में नरसिंह राव की सरकार में वित्तमंत्री मनमोहन सिंह थे और दोनों के आर्थिक सुधारों का लाभ इन्फोसिस जैसी तमाम कंपनियों को मिला, जो नये तरह का उद्यम लगाने को तत्पर थीं।
यह पुस्तक व्यवसाय से जुड़े लोगों के लिए ही नहीं बल्कि जनसामान्य के लिए भी पठनीय है। इसके लेखक एन. चोक्कन तमिल के जाने माने लेखक है जिनकी तीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं तथा वे एक सॉफ्टवेयर कंपनी में निदेशक होने के कारण उस दुनिया को करीब से जानते समझते हैं जिसके शीर्ष पुरुषों में मूर्ति का शुमार होता है। पुस्तक का हिन्दी अनुवाद महेश शर्मा ने किया है।

1 comment:

  1. मैं नारायण मूर्ति जी के इस कथन का समर्थन नहीं कर सकता की "वे अब भी यह मानते हैं कि आदमी को खूब पैसा कमाना चाहिए और उससे जरूरतमंदों की मदद करनी चाहिए " मेरा मानना है की इसी विचारधरा ने इंसानियत को खत्म करने का काम किया है | मेरा तर्क ये है की आदमी को अपने तथा अपने परिवार के मूलभूत जरूरत से थोडा ज्यादा कमाना चाहिए जिससे इंसानियत की मदद की जा सके ,खूब पैसा कमाने वाला जरूरतमंदों की मदद नहीं कर सकता वह तो गलत आदतों में पड़कर ऐय्यासी पे पैसा लूटाने लगता है और गरीबों का खून चूसने लगता है जिसका उदाहरण है शरद पवार क्योकि ज्यादा पैसे से अच्छी सोच ही खत्म हो जाती है और पैसे की कभी न खत्म होने वाली भूख पैदा हो जाती है | ज्यादा पैसा बिना कुकर्म किये और गरीबों का खून चूसे बिना कमाया ही नहीं जा सकता ..!

    ReplyDelete

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...