Thursday 13 May 2010

मुहावरों से सावधान!


भाषा से मुहावरों के लोप के खतरे लगातार महसूस किये जाते रहे हैं कहा जाता रहा है कि आज जो भाषा चल रही है उसमें पहले जैसी मुहावरेदारी नहीं है। बात को तरीके से कहने के बदले अब जोर इस बात पर दिया जा रहा है कि वह सम्प्रेषित हो रही है कि यदि बात सम्प्रेषित हो गयी तो मान लिया जाता है कि काम हो गया। खास तौर पर जब से विश्वबाजार के प्रभाव के बढऩे के साथ भूमंडलीकरण का जो दौर आया उसमें सम्प्रेषणीयता बड़ा मूल्य हो गया और भाषा के इस्तेमाल के तौर तरीकों में लापरवाही आयी। भाषा की बनावट के प्रति गंभीरता कम हुई। ऐसा कई भाषाओं के एक दूसरे के करीब आने के कारण हुआ। भाषाएं जब करीब आती हैं तो मुहावरों का महत्व गिरने ही नहीं लगता बल्कि कई बार तो वह अनर्थकारी हो जाता है क्योंकि मुहावरों में शाब्दिक अर्थ से उसका निहितार्थ अलग होता है। भाषा सीधी-सरल सपाट हो तो वह दूसरी भाषा में अनूदित होने में सुविधाजनक हो जाती है।
हालांकि भाषाओं से मुहावरेदारी के कम होने का खामियाजा भी समाज को भुगतना पड़ता है। कभी शशि थरूर को 'कैटल क्लासÓ शब्द को इस्तेमाल करने पर निन्दा झेलनी पड़ी तो उससे पहले अपने को वाचडाग कहने वाले वामपंथियों का खासा माखौल उड़ाया गया। अब भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी की बातों पर मचा है। उनके आशय को समझने के बजाय शब्दों को लेकर बतंगड़ बनाया जा रहा है। लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव के बारे में उनके दिये बयान का अनर्थ निकाला जा रहा है, जिसके लिए वे माफी भी मांग चुके हैं किन्तु बवाल खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। मुहावरों से सावधान! !

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