Monday, 5 October 2009

साहित्य में भी 'सिंह इज किंग'!

क्षय कुमार की फिल्म 'सिंह इज किंग' क्या चर्चा में आयी यह मुहावरा चल निकला और मुहावरे में जान तब आयी जब डा.मनमोहन सिंह ने न्यूक्लियर डील पर सील ही नहीं लगायी बल्कि पं.जवाहरलाल नेहरू के बाद दुबारा सत्ता में आने वाले प्रधानमंत्री बन गये। इधर साहित्य में भी यह मुहावर अब चल निकलेगा ऐसा कयास लगाया जा रहा है। उसका कारण है 'आउटलुक' हिन्दी पत्रिका का नया अंक। आउटलुक की ओर से कराये गये साहित्यकारों के सर्वेक्षण में कहानी और कविता दोनों के शीर्ष पदों सिंहा का कब्जा हो गया है।
पत्रिका की ओर से पत्रों और इंटरनेट आदि विभिन्न माध्यमों से आम लोगों के कहानी व कविता में तीन तीन नामों की संस्तुति मांगी गयी थी जिसके नतीजे 'सिंह इज किंग' को पुष्ट करते हैं। पाठकों की राय में कहानी में उदय प्रकाश और कविता में केदारनाथ सिंह शीर्ष रचनाकार हैं। जबकि कहानी में दूसरे नम्बर पर मन्नू भंडारी और तीसरे नम्बर पर अमरकान्त हैं वहां कविता में दूसरे नम्बर पर राजेश जोशी और तीसरे नम्बर पर कुंवर नारायण हैं। यह तो अच्छा हुआ कि आलोचना विधा में यह नाम नहीं मांगे गये थे वरना उस पर भी शीर्ष पद पर सिंह का कब्जा प्रमाणित हो जाता। कहने वाले कहते हैं हिन्दी आलोचना में अब तक 'दूसरा' नामवर सिंह पैदा नहीं हो पाया है।
यहां यह गौरतलब है कि यह पसंद किसी आलोचक की नहीं बल्कि पाठकों की है। वह दलित साहित्य जिसकी प्रमुखता से चर्चा साहित्य में होती रहती है उसकी वकालत करने वाला कोई लेखक इस सूची में नहीं है। मन्नू भंडारी का लेखन राजेन्द्र यादव के 'दलित पर वारी वारी जाऊं' वाले नज़रिये से अलग रहा है। सम्प्रति दलित लेखन की अलोकप्रियता का एक कारण उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती भी हैं, जिन पर पता नहीं किसी दलित लेखक ने जार्ज आर्वेल के तर्ज़ पर इस ज़माने का 'एनीमल फार्म' लिखा है या नहीं इसकी पड़ताल होनी चाहिए। अपने लोगों के निवाले छीनकर अपनी मूर्तियां बनवाने का जो कृत्य उन्होंने किया है वह दलित उत्थान को थुक्का फज़ीहत कराने के लिए काफी है पता नहीं इतिहास उन्हें उस डा.भीमराव अम्बेडकर के साथ किस प्रकार जोड़कर देखेगा जिनके साथ वह अपनी मूर्तियां बनावने में जुटी हुई हैं। दूसरे साहित्यिक हलके में इस सूचना से भी दलित लेखन की कलई खुली है कि किसी भी साहित्यिक पत्रिका में यदि दलित साहित्य पर 40 प्रतिशत पृष्ठों से अधिक सामग्री हो तो उसे अमरीकी फोर्ड फाउंडेशन से आर्थिक सहायता मिलती है और पत्रिकाओं के आये दिन प्रकाशित होने वाले दलित विशेषांक उसी का हिस्सा हैं। यहां यह गौरतलब है भारत के उन्हीं लेखकों की कृतियों की विदेशों में विशेष चर्चा होती है जिनमें भारतीय समाज की कटु निन्दा होती है और उसका नकारात्मक छवि प्रस्तुत की जाती है। उस क्रम में अरविन्द अडिगा के उपन्यास ' द ह्वाइट टाइगर' को मिले बुकर पुरस्कार का उल्लेख किया जा सकता है। और भारत की झोपड़पट्टियों पर विकास स्वरूप के लिखे उपन्यास बनी फिल्म 'स्लमडाग मिलिनेयर' को अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया। जो देश स्वयं नस्लवाद की समस्याओं से जूझ रहे हों, उन्हें भारतीय समाज का दलित विमर्श भाता है क्योंकि इससे वह भारत का छवि को कमतर आंकी जाने की वकालत कर सकते हैं इसलिए दूसरे देशों में भारत के दलित विमर्श की खासी डिमांड है। दलित चर्चा के जरिए वह उन भारतीयों को नीचा दिखाने का अवसर खोज लेते हैं जिनके आगे वे कामकाज में प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं पाते।

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