Thursday, 20 August 2009

सीढ़ी पर हंस

खबर है कि ब्रिटिश कौंसिल काहिरा में अपनी 70 साल पुरानी लाइब्रेरी बंद करने जा रही है। कहा यह जा रहा है कि मिस्र के लोग अब क़िताबों में दिलचस्पी नहीं लेते। लाइब्रेरी मद में जो खर्च कौंसिल दे सकती है वह इंटरनेट आदि के कार्यक्रमों में खर्च किये जायेंगे। यह सूचना सिर्फ़ मिस्र की होती तो चिन्ता की कोई बात नहीं थी। दुनिया के अधिकतर देशों की यही स्थिति है। पुस्तकालयों में लोगों की दिलचस्पी कम हुई है।
आशंका यह है कि इंटरनेट के विस्तार के साथ पुस्तकों की दुनिया संकुचित होती चली जायेगी। यह संकुचन इसलिए नहीं दिखायी दे रहा क्योंकि भारत जैसे देशों में साक्षरता का विकास हो रहा है। पढ़े लिखे लोंगों की संख्या बढ़ रही है इसलिए पहले से पढ़ रहे लोगों के हाथों से गुम हो रही क़िताबों का अन्दाजा़ नहीं लग पा रहा है।
दरअसल पढ़ने का बहुत सारा समय टीवी के धारावाहिक निगल जा रहे हैं। यहां तक कि आम आदमी के घर की दिनचर्चा को यह धारावाहिक प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित कर रहे हैं। एक ज़माना था जब हिन्दी में लुगदी साहित्य के नाम से अभिहीत उपन्यास थोक के भाव से बिकते थे। इन पाठकों में एक बड़ी संख्या उन औरतों की थी जो कामकाजी नहीं थीं और दोपहर बाद घर का काम काज निपटना कर उपन्यास पढ़ती थीं और वे बुजुर्ग जिनकी आंखें रिटायर होने के बाद भी सही सलामत पढ़ने के क़ाबिल थीं। युवा होती पीढ़ी भी यह उपन्यास पढ़ती थी, और उसे पढ़ने वाले बिगड़ रहे युवकों की पहचान होती थी। अब चालीस पार हो चुके लोगों से पूछिये तो पायेंगे कि कई लोग मिल जायेंगे जिन्होंने अपनी युवावस्था में ओमप्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश काम्बोज, इब्ने सफी बीए, रंजीत, मनोज, प्रेम वाजपेयी, गुलशन नंदा को पढ़ा होगा और विनोद, हमीद, कासिम, टूम्बकू, कर्नल रंजीत आदि उपन्यासों के चरित्र याद होंगे। लेकिन इधर की पीढ़ी का वक्त़ फिल्में, टीवी के धारावाहिक, इंटरनेट लील जा रहा है। फुरसतिया औरतों के हाथों में अब किताब नहीं टीवी का रिमोट है।
किताबों के साथ वक्त़ की कमी का ही संकट नहीं है किताब रखने की ज़गह का भी है। हम जैसे लोगों की क़िताबों को घर में हमारी पत्नियां और हमारे बच्चे एहसान की तरह झेल रहे हैं और जब तक साफ सफाई के नाम पर लगातार स्पेस घटाया जा रहा है। क़िताब जैसी बेमतलब चीज़ के लिए घर में ज़गह नहीं है जैसे जुमले सुनते सुनते हम आजिज आ जाते हैं। मेरी तरह और लोग भी होंगे जिनके घर में हंस बीस बीस साल से पड़ी होंगी और रखने वाले घर वालों के तानों से नवाजे़ जा रहे होंगे। मेरे यहां तो उनकी ज़गह आलमारी से निकल कर सीढ़ी हो गयी और मैं इन्तज़ार करता हूं कि यह हंस उड़ क्यों नहीं जाता! इन में से कुछ अंक वे भी हैं जिन्हें मैंने न्यू मेंस की तत्काल मालकिन दुर्गा डागा जी से अनुरोधपूर्वक मंगवाया था जो, पुराने थे और किन्हीं कारणों वश मुझे प्राप्त नहीं हुए थे। उन दिनों हंस के पुराने अंक भी मिल जायें तो एक उपलब्धि सी महसूस होती थी।
पत्रिकाओं को आख़िर इतनी महत्वपूर्ण होने की ज़रूरत क्या है कि वे बरसों तक फेंकते न बनें। काश वे आजकल के अख़बार की तरह रोज रद्दी में तोलने लायक हो जायें तो हम जैसों की मुश्किलें कम हों। डाक से आने वाली हर महत्वपूर्ण पत्रिका डरा देती है कि अब इसे कहां जगह देंगे।
मुझे याद है आठ-नौ साल पहले की घटना। वेबदुनिया डाट काम इंदौर में प्रधान सम्पादक रवीन्द्र शाह ने बताया कि मेरे लिए वे एक खजाना लाये हैं जो मेरे चैनल के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है। मैं उन दिनों सिटी चैनलों के एडीटर के साथ-साथ साहित्य सम्पादक भी था। मैंने उत्सुकता से वह तोहफा देखा जो वे अपने घर से लाये थे। एक वैन पर लदी जनसत्ता अखबार की कई बरसों की प्रतियां, जिन्हें उन्होंने अपने घर में बड़े जतन से सहेज रखा था। अब तो अपनी ही लिखी क़िताब की अधिक प्रतियां प्रकाशक से मांगते डर लगता है कि पता नहीं उनके लिए घर में स्पेस मिलेगा या नहीं!
ग़लती मेरी भी है ज़िन्दगी भर क़िताबें बटोरते रहने की लत जो पाल रखी है। घर में जितनी आलमारियां समा सकती थीं समा चुकी हैं। जिनमें क़िताबों के लिए चार हैं और वे ठस हो चुकी हैं और उनमें दोहरी पंक्ति में क़िताबें हैं जिसके चलते अक्सर घर में क़िताब होने के फ़ायदे से वंचित हो चला हूं क्योंकि सामने की रो वाली क़िताबें तो दिखायी देती हैं किन्तु उनके पीछे की पंक्ति में कौन सी क़िताब कहां से नहीं पता चलता है और कभी कुछ लिखते समय संदर्भ के लिए किसी क़िताब की ज़रूरत पड़ती है तो कई बार चार-छह घंटे निकल जाते हैं और उन्हें खोजने में। मशक्कत के बाद जब कि़ताब मिलती है तो लिखने का मिज़ाज बदल चुका होता है। इस प्रकार समय खाऊ हो जाती है क़िताब। आलमारियों के ठस होने के बाद मेरे कम्प्यूटर के बाद क़िताबों ने आवश्यक संदर्भ होने के बाद घोंसला बनाया और वह घोंसला चिन्ताजनक रूप से बढ़ने लगा। सप्ताह में आठ-दस पत्रिकाएं ख़रीदने से अपने को रोक पाना मुश्क़िल हो जाता है और उतनी ही यार दोस्त भेज-भिजवा देते हैं, यह सब उसी का नतीज़ा है। हाल की गर्मियों में बेटी ने मेरे कम्प्यूटर वाले कमरे में ही लगावा दिया और एसी चालू करने से पहले फ़रमान ज़ारी हो गया आलमारियों के बाहर कोई क़िताब नहीं रहेगी। और फिर शुरू हुई कवायद किसे आलमारी में ठूसें किसे बाहर करें। क़िताबों को बचाने की कोशिश में पत्रिकाएं बाहर हुई जिनमें सारिका, रविवार, हंस, आलोचना, सांचा, भाषा, पूर्वग्रह के कई महत्वपूर्ण पुराने अंक हैं। फिलहाल वे अस्थायी तौर पर सीढ़ियों पर हैं और मैं पत्नी वे बेटी को आश्वस्त करता रहता हूं कि मैं इसी हफ़्ते किसी लाइब्रेरी से बात कर लूंगा कि वे इन्हें मु़फ्त में रख लें और हर सप्ताह आकर मेरे घर से पत्रिकाएं और क़िताबें ले जायें। मुझे याद है किशोरावस्था में मैं जब अपने मामा जी के यहां भागलपुर जाता था तो उनकी क़िताबों को देखकर ललचता रहता था। अपनी ज़िन्दगी की पूरी कमाई उन्होंने क़िताबें ख़रीदने में लगायी थी। वे पेशे से धान अनुसंधान अधिकारी थे और धान की वैज्ञानिक खेती पर शोधपरक पुस्तकें भी लिखी थीं। उनकी मौत होते ही मेरी मामी ने जो पहला काम किया वह यह कि कालेज की लाइब्रेरी को फ़ोन कर दिया और मामा जी की सारी पुस्तकें लाइब्रेरी को चली गयीं।
मुझे भी कोई लाइब्रेरी तय कर लेनी होगी वरना मेरे यहां तो रद्दी वाले को बुलवा लिया जायेगा और पांच रुपये किलो के भाव से सारी क़िताबें चली जायेंगी। हालांकि लाइब्रेरी में भी क़िताबों को स्थान जल्द मिलेगा भी कि नहीं यह कहना मुश्क़िल है।

इसी संदर्भ में अमित प्रकाश सिंह की बातें याद आ रही हैं। उनके यहां ट्रंकनुमा कई बक्से देखकर मैंने पूछा था कि इनमें क्या है, उनका जवाब था क़िताबें हैं। यह त्रिलोचन शास्त्री जी को भेंट में मिली हैं। वह उन्हें किसी पुस्तकालय को दान करना चाहते थे लेकिन जिन पुस्तकालयों से उन्होंने बात की वे उन्हें लेने के तैयार नहीं हुई थीं। मुझे यह नहीं पता है कि कोलकाता से लखनऊ तबादले और वहां से दिल्ली जाने के बाद त्रिलोचन जी की उन पुस्तकों का क्या हुआ, या वे अब भी अमित जी के पास ट्रंक में पड़ी हैं।

2 comments:

  1. अभिज्ञात भाई..क्यों छेड़ दिया यह फसाना ? किराये का मकान था जब मै पत्रिकाओं और पुस्तको से घिरा अपनी टेबल पर लिखता पढ़ता रहता था फिर सफाई के नाम पर एक बार श्रीमती जी ने 100 किलो रद्दी पत्रिकायें(?) बिकवा दी .मै कई दिनो तक दुखी रहा तो सापेक्ष के सम्पादक महावीर अग्रवाल जी ने समझाया " वत्स इन पत्रिकाओं का क्या मोह और आ जायेंगी " अब अपने मकान मे आ गया हूँ और किताबों पत्रिकाओं कम्प्यूटर आदि के लिये एक अलग कमरा बनवाया है । यहाँ मैने नूह की नाव मे बची हुई दुनिया की तरह जो पत्रिकाएँ बचा रखी थी फिरसे सजा ली हैं । इनमे 20-25 साल पुरानी सारिका हंस भी हैं । गृहप्रवेश के अवसर पर बड़ोदा से मित्र नरेश चन्द्रकर ने पत्रिकाओं का एक 60 किलो का पार्सल भी भेज दिया है । तो ऐसा नही है हर जगह हंस सीढ़ी पर नही है । आपके हमारे जैसे लोग जब तक जीवित है वे ऐसे लोगो को प्रेरणा देते रहेंगे । यह चिंता तो लुगदी साहित्य के दौर मे भी थी तभी हमारे धमतरी के वरिष्ठ कवि त्रिभुवन पाण्डेय ने लिखा था " मुक्तिबोध को कौन खरीदे,कौन करे घाटे का धन्धा /प्रेमचन्द अजनबी यहाँ पर बिके ठाठ से गुलशन नन्दा शरद कोकास

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  2. मुंबई में वैसे भी जगह की शॉर्टेज चलती है। अमूमन यह तो हर जगह होता है पर मुंबई में कुछ ज्यादा ही। सो मैंने हंस को ठिकाने लगाने का नया तरीका खोज लिया है। पुरानी प्रतियों को गांव भेज देता हूँ। वहां रखने की परेशानी नहीं है। सो जब भी गांव जाता हूँ हंस के पुराने अंक को निकाल लेता हूँ और जब तक रहूँ कुछ पढ भी लेता हूँ। वरना यहां तो नये अंक तक पढने का समय नहीं मिल पाता :) ( पर पढता जरूर हूँ)

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