Monday 21 October 2019
Monday 16 September 2019
Sunday 1 September 2019
उदित वाणी में डॉ.अभिज्ञात का समकालीन पत्रकारिता पर इंटरव्यू
पत्रकार अब हाशिए पर हैं और सम्पादक कंटेंट व कांटेक्ट
मैनेजरः डॉ.अभिज्ञात
पंजाब के जालंधर व अमृतसर में अमर उजाला, इंदौर में
वेब दुनिया डॉट काम, जमशेदपुर में 2003 में दैनिक जागरण में पत्रकारिता करने के
बाद गत 16 वर्षों से सन्मार्ग,
कोलकाता में कार्यरत वरिष्ठ
पत्रकार डॉ.हृदय नारायण सिंह साहित्य की दुनिया में अभिज्ञात के नाम से जाने जाते हैं।
कविता, कहानी व उपन्यास विधाओं में उनकी एक दर्जन क़िताबें प्रकाशित
हैं। वर्तमान पत्रकारिता को लेकर प्रस्तुत है विनय पूर्ति से उनकी संक्षिप्त बातचीत
सवाल : 1. समकालीन हिन्दी पत्रकारिता (प्रिंट) का भविष्य
क्या है?
प्रिंट मीडिया इन दिनों विभिन्न चुनौतियों से घिर गया है।
इलैक्ट्रानिक मीडिया ने उसकी आवश्यकता और तेवर को बुरी तरह से प्रभावित किया है। लगतार
खबरें उगलने वाले संचार माध्यमों के बरक्स इसकी ज़रूरत को लेकर ही कई लोग प्रिंट मीडिया
की आसन्न मौत की मातमपूर्सी में लग गये हैं तो कई ने महंगे हुए न्यूज़प्रिंट पेपर की
बढ़ती क़ीमत और छिनते जा रहे विज्ञापनों का हवाला दिया है। वेबसाइट, सोशल मीडिया
एवं कुकुरमुत्ता और भोंपू टीवी चैनलों की अंधी दौड़ में प्रिंट मीडिया अपनी ठसक कब
तक बरकरार रख पायेगा यह चिन्तनीय है। जिन लोगों ने अपनी युवावस्था में प्रिंट मीडिया
को प्रमुख समाचार माध्यम के तौर पर अपनाया था वह पीढ़ी तो इससे विरत नहीं होगी किन्तु
इलैक्ट्रानिक मीडिया के विकास के बीच पढ़ना- लिखना और दुनिया को समझना शुरू करने वाली
पीढ़ी प्रिंट मीडिया को ढोयेगी या नहीं कहना मुश्किल है। प्रिंट मीडिया को अपना स्थान
सुरक्षित करने के लिए अतिरिक्त प्रयास करना होगा क्योंकि वह मुख्य मीडिया नहीं रह जायेगा
यह तय है। हां, यह बाद दीगर है कि विश्वसनीयता के मामले में वह अब भी शीर्ष पर है और
बाद में भी शीर्ष पर ही रहेगा। वह एक नयी केटेगरी होगी मीडिया और साहित्य के बीच की।
तुरत- फुरत की प्रतिक्रियाओं व अपुष्ट खबरों के बीच विश्वसनीय, खोजी और घटनाक्रमों
को दिशानिर्देश देने वाली सामग्री व विवेक ही उसे बचायेगा। प्रिंट मीडिया को आंखों
देखी पत्रकारिता भर से ही संतोष नहीं करना होगा क्योंकि उसका प्लेटफार्म इलैक्ट्रानिक
मीडिया है। प्रिंट मीडिया को विवेकदृष्टि से संचालित होना होगा..आंखों देखी के खोट
को उजागर करना होगा, परदे के पीछे क्या है यह बताना होगा। प्रिंट मीडिया में अपढ़
पत्रकारों से काम नहीं चलेगा। मूल्य से जुड़े जुझारू लोग जुड़ेगे तभी बचेगा। उसे फिर
सोदेश्य पत्रकारिता से अपना सम्बंध जोड़ना होगा।
2. क्या प्रिंट
मीडिया निष्पक्ष नजर आ रहा है?
अब जबकि टीवी चैनल मीडिया के बदले किस एक पक्ष का प्रवक्ता
हो जायें तो निष्पक्षता तो प्रभावित होगी ही। वे तटस्थ नहीं रहते। वे जिस तरह से सवाल
उठाते हैं उसमें ही उनकी पक्षधरता स्पष्ट नज़र आती है। जबकि प्रिंट मीडिया में इस अनुशासन
पर बड़ा ज़ोर रहा है कि ख़बरें लिखते समय पत्रकार का नज़रिया या पक्षधरता नहीं दिखनी
चाहिए। यदि किसी पर कोई आरोप लगे हैं तो उसका पक्ष भी समाचार में होना चाहिए। लेकिन
टीवी चैनलों में खबरों की जिस तरह प्रस्तुति होती है उसमें पक्षधरता अतिरिक्त उत्साह
में दिखती है और कहना न होगा कि इससे प्रिंट मीडिया भी परोक्ष तौर पर निर्देशित होता
है। प्रलोभन व दमन के बीच झूलते अखबार किसी का मुखपत्र हो जायें यह स्वाभाविक है। ऐसे
में अपने पाठकों का होकर और उनका विश्वास अर्जित कर ही प्रिंट मीडिया अपने को उबार
सकता है। प्रिंट मीडिया को क्लोन बनने से बचने की भी ज़रूरत है। आम तौर पर जो ख़बरें
आती हैं उसके प्रकाशन के कुछ अघोषित मानदंड हैं, जिनसे अखबार का कलेवर तय होता है और
हम पाते हैं कि अगले दिन प्रकाशित होने वाले अखबारों में एक सी खबरें फ्रंट पेज पर
होती हैं और लगभग उनकी भाषा और लहजा भी। कई बार तो सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख
भी क्योंकि सेंडिकेट राइटिंग का दौर चल रहा है। फीचर एजेंसी की सेवाओं भी इस संकट को
और गहरा करती हैं और वे पृष्ठ भी कई बार एक ही सामग्री से लैस होते हैं। एक सी खबरें
एक सी प्रस्तुति के बीच प्रिंट मीडिया अपना कितने दिन तक बचाव करेगा। जाहिर है कि जो
बड़े मीडिया हाउस हैं, वे छोटों को निगल जायेंगे। दूसरे यह कि निष्पक्षता कभी समाज
में एक मूल्य हुआ करती थी। अब बदलते संदर्भों में वह मूल्य क्षरित हो चुके हैं। अब
पक्षधरता का दौर है और आप किसके साथ खड़ें हैं स्पष्ट कीजिए। आप जिसके साथ हैं, वही
आप हैं। दुर्भाग्य से इस प्रवृत्ति का शिकार प्रिंट मीडिया भी हो रहा है। राजनीति में
तो कभी एक दूसरे को गाली-गलौज करने वाले मौका पाकर गलबहियां करने लग जाते हैं। पार्टी
बदलते ही तमाम मामलों में अभियुक्त रहे नेता दूध के धुले हो जाते हैं किन्तु मीडिया
ऐसा नहीं कर सकता। उसे दूरगामी लक्ष्य तय करके ही चलना होता है। खबरों की प्रस्तुति
में प्रिंट मीडिया को तटस्थ ही रहना चाहिए। प्रिंट मीडिया को अपना नजरिया अपने सम्पादकीय
लेखों के जरिये ही व्यक्त करना चाहिए।
3. कस्बाई और
नागरीय पत्रकारों की चुनौतियां क्या हैं?
कस्बाई पत्रकारिता को स्थानीय मुद्दे प्रभावित करते हैं लेकिन
उनकी अनुगूंज दूर तक जाती है। यदि कस्बाई मुद्दे को संजीदगी से उठाया जाये को वह केन्द्रीय
मुद्दा बन जाता है। उन्नाव बलात्कार कांड इसका पुख्ता उदाहरण है। कहना न होगा कि कस्बों
को पत्रकारिता इसलिए कठिन है कि पत्रकार सुरक्षित नहीं हैं। और आर्थिक विपन्नता भी
उन्हें ग्रसती है। उन पर आसानी से दबाव डाला जाता रहा है और खबरों का स्वरूप दबाव के
कारण वह नहीं रह जाता, जो था। कस्बों में खबरें लिखी कम जाती हैं दबाई अधिक जाती हैं।
नागरीय पत्रकारों के सामने होड़ का संकट है। दबाव के कारण अपुष्ट खबरें भी देनी पड़
जाती हैं। नागरीय पत्रकारों के लिए विश्वस्त सूत्र बहुत बड़ा फैक्टर हैं। जोड़- तोड़
के बगैर खबरें ब्रेक करना मुश्किल है। अंदरखाने तक पैठ यूं ही नहीं बन जाती उसके लिए
शीर्ष अधिकारियों व नेताओं का भरोसमंद बनना पड़ता है। ऐसे में तटस्थता नहीं रह जाती।
ऐसा न करें तो प्रेस कांफ्रेंस, प्रेस ब्रीफिंग और प्रेस रिलीज की ही पत्रकारिता होगी।
नागरीय पत्रकारों को कई बार किसी नेता से अप्रिय सवाल पूछने पर नौकरी से हाथ धोना भी
पड़ सकता है। जिस तरह अर्थव्यवस्था बैठ रही है पत्रकारों को मीडिया संस्थान के हर तरह
के हुक्म का पालन करने को तैयार रहना पड़ रहा है, वरना इस्तीफे का विकल्प तो है ही।
4. देश के वर्तमान
माहौल में क्या पत्रकारिता निरपेक्ष नज़र आती है?
पत्रकारिता क्या देश के वर्तमान माहौल में कोई निरपेक्ष नहीं
रह पायेगा। अब असहमति मूल्य नहीं रह गयी है। विरोध अब किसी न किसी साजिश के हिस्से
के तौर पर देखा जा रहा है। यह दौर संवाद नहीं जयकारे का है। सौभाग्य से हिन्दी पत्रकारिता
ने अपनी शैशवावस्था में ही आंदोलनकारियों का संगसाथ पाया और वह बड़े मूल्यों से जुड़ी।
लोगों में सचेतनता पैदा करना और देशभक्ति की भावना को भरना उसका उद्देश्य था। इसलिए
उस समय के प्रखर साहित्यकार व आंदोलनकारी पत्रकारिता से जुड़े। अब पत्रकारिता के मूल्य
बदल गये हैं। मार्केटिंग हावी हो गयी है। अब मीडिया ने पीआर को ही अपनी भूमिका मान
ली है। मीडिया अब शुद्ध रूप से व्यवसाय बनता जा रहा है। कहने को तो वह उदात्त मूल्यों
से जुड़ा हुआ है, किन्तु वह एक आड़ भर है। अन्य व्यवसाय से जुड़े लोगों ने
इसे भी अपना एक व्यवसाय बना लिया है। पत्रकार भले मुगालते में रहें कि वे कोई बहुत
बड़ा काम कर रहे हैं, किन्तु उसका संचालक समाचार पत्र को एक व्यवसायिक प्रतिष्ठान ही
मानता है। ऐसे में निरपेक्षता का प्रश्न बेमानी है। पत्रकार हाशिए पर रहकर चुपचाप सार्थक
काम करते हैं, जितना भी बन पड़ता है। और सम्पादक कंटेंट और कांटेक्ट मैनेजर बन चुके
हैं। प्रिंट मीडिया में एक संकट भाषा को लेकर भी है। ऐसी भाषा कम लिखी जा रही है जो
पाठक को बांध ले। कभी प्रभाष जोशी के लम्बे लम्बे लेखों को हम पढ़ते थे और आनंदित व
मोहित होते थे। भले उनके लिखे विषयों में हमारी दिलचस्पी न हो। हम उनके लेखों से जीना
भी सीखते थे और संघर्ष करना भी। जीवन के मूल्य भी। अखबार केवल सूचना नहीं देते। जीवन
में सकारात्मक सोच भी दे सकते हैं। वह भूमिका कम होती जा रही है।
5. जमशेदपुर
में पत्रकारिता की वर्तमान स्थिति और भविष्य का स्कोप
जमशेदपुर में पत्रकारिता में झारखंड के आदिवासी समुदाय के
संघर्ष और उनकी समस्याओं को उजागर करने व उनके अधिकारों के संरक्षण को स्वर देने की चुनौती है दूसरी ओर आधुनिक शिक्षित कामकाजी वर्ग
और व्यवसायिक गतिविधियां हैं। दोनों का तालमेल बैठना आम बात है। जिन दिनों झारखंड के
तीन शहरों से दैनिक जागरण लांच करने की तैयारी चल रही थी मैं वर्ष 2003 में जमशेदपुर
में फ़ीचर डेस्क प्रभारी बनकर पहुंचा था। मैंने महसूस किया था कि एक गहरी समझ व जनहित
के प्रति संवेदनशील रुख की पत्रकारिता जमेशपुर व झारखंड की पत्रकारिता के लिए आवश्यक
है। क्योंकि यहां दो विपरीत ध्रुव हैं जिन्हें साधना कठिन चुनौती है। मैंने तमाम साहित्यकारों
का सहयोग लिया। बार-बार उनके घर गया। उनकी रुचियों को जाना व उन्हें प्रेरित किया कि
वे साहित्येतर विषयों पर लिखें। आज की पत्रकारिता की एक चुनौती यह है कि साहित्येतर
विषयों पर साहित्यकार नहीं लिखते हैं। कविता, कहानी व साहित्यिक
विषयों पर आलोचना उनके केन्द्र में हैं। लेकिन उनसे बार -बार तकादा कर साहित्येतर विषयों
पर लिखवाया जाये तो वे पत्रकारों से अच्छा लिख सकते हैं। क्योंकि साहित्यकारों की चिन्ताएं
समष्टिगत होती हैं। वे साहित्य पर लिखते हुए भी व्यापक सरोकारों से जुड़े होते हैं।
प्रिंट मीडिया की पत्रकारिता का भविष्य ऐसे लोगों के बूते सुरक्षित किया जा सकता है।
धर्मयुग में धर्मवीर भारतीय ने ऐसा किया था। उन्होंने विष्णुकांत शास्त्री से रिपोर्ताज
लिखवाये थे। मुझे याद है जमशेदपुर के प्रख्यात कथाकार जयनंदन जी ने वहां की नदियों
पर जो लिखा था, वह एक बेहतरीन रिपोर्ताज का उदाहरण बन सकता है। मुझे नहीं
लगता कि जमेशपुर का कोई भी साहित्यकार ऐसा होगा जो उन दिनों दैनिक जागरण से न जुड़ा
हो। आर्थिक मसलों पर मैंने अर्थशास्त्र के प्रोफेसरों से और नाट्य समीक्षाएं वरिष्ठ
रंगकर्मियों से लिखवायी थी।
Sunday 3 February 2019
अपराजेय जिजीविषा के दस्तावेज
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम : सरगम के सुर साधे/लेखक : ध्रुवदेव मिश्र पाषाण/प्रकाशक : प्रतिवाद प्रकाशन, 1/5 पी.के.राय चौधुरी सेकेण्ड बाई लेन, पो. : बी. गार्डेन, हावड़ा-711103
वरिष्ठ ध्रुवदेव मिश्र 'पाषाण' पहली ही कविता पढ़ते हुए जैसे महाप्राण निराला को पढ़ने का भ्रम होता है। जामुन के पेड़ पर लिखी कविता है -'सरगम के सुर सधे।' नाम भी संगीत से जुड़ा है और कविता छंदबद्ध -'धरती में/गहरे धंसी जड़ों की फांस-फांस/शिरा-शिरा ऊपर चढ़ता/तरु की नस-नस/जीवन-जल। उगते शाख-शाख पत्ते/हवा-हवा झूम झूम/हिलते पत्ते/जुड़ते-जुड़ते पाखी/पांख-पांख/फर-फर/सर-सर/सरगम के सुर साधे पाखी।' इस कविता में उनकी अपराजेय जिजीविषा, प्रकृति प्रेम और उसका संगीत पाठक को अपनी गिरफ्त में ले लेता है... और हम आश्वस्त होते हैं कि-'नहीं चुकेगा/धरती का/जीवन-जल।/नहीं रुकेगा/शाख-शाख/उगते-झरने का क्रम/प्रलय कीच में/खिला करेगा/सृष्टि-कमल हरदम।' यह अनायास नहीं है कि दूसरी कविता मुक्तिबोध से सम्बद्ध है। उसका नाम ही है-'एक हर्फनामा: मुक्तिबोध से जुड़ते हुए'। इस कविता में वामपंथी चेतना पर विश्वास और मेहनकशों की विजय के स्वप्न अब भी जीवित हैं-'गांव-शहर उमड़ती भीड़/बदलेगी/सत्ता-समाज का जीर्ण-शीर्ण/व्याकरण/धरती की रक्ताक्त हथेली पर/रचेगी हरियाली की भाषा।'
पाषाण जी सदैव हमारे समक्ष एक ऐसे रचनाकार के तौर पर उपस्थित रहते हैं जिसने सांस्कृतिक मोर्चे पर हर पराजय के बाद अपने को नयी ऊर्जा से लैस किया है। इस संग्रह की कविता 'मृत्युंजय' से उन्हीं के शब्दों में-'जरा से अभय/मरण से निर्भय/काल/महाकाल/कालातीत को/ठेंगा दिखाता/अनंत का आक्लांत यात्री।' और यही मूल स्वर है कवि का। संग्रह की हर कविता से झांकता मिलेगा उसका अपना व्यक्तित्व, काव्य -सम्बंधी उनकी अवधारणाएं और मूल प्रतिज्ञाएं। हालांकि यह कविताएं एक गहरे अर्थ में आत्मपरक नहीं हैं क्योंकि इसमें किसी भी रचनाकार की अवचेतना में अपनी रचनाशीलता को लेकर जो अमूर्त प्रश्न हैं, यहां उनके उत्तर सहित मौजूद हैं।
'सुनामी' कविता में पाषाण जी लिखते हैं-'सुनामी-दर-सुनामी/जारी है/नयी सृष्टि के प्रसव का स्राव।' 'एक वह' कविता में लिखते हैं-'उगना ही नहीं/ढलना भी है उसे/हर रोज/गोया/हर रोज एक मरण/ मगर/न रुकता है/न ऊबता है/पूरब की चढ़ाई से/न शिथिल पड़ती है/ चलने की रफ्तार।' कविता में जगह जगह वही हार न मानने की जिद वह नव निर्माण की तैयारी।
अपनी भूमिका में पाषाण जी ने जिन बातों का उल्लेख किया है। उसे आप उनकी काव्य सर्जना में विस्तार से फलीभूत होता हुआ पायेंगे। यथा-जो विचार और किताबें जीवन को घेरते हैं-'उनकी घेरेबंदी और जकड़बंदी के मकड़जाल को सोच-समझ कर कविता तोड़ती है। व्यापक जनजीवन की अगली हलचलों को आलोड़ित करने वाले आंदोलनों से नाभिनालबद्ध होकर कविता अपना कलेवर तैयार करती है। कविता जीर्ण-शीर्ण प्राचीन को जीवन के ताप से तपाती है, जलाती है। ऐसी कविता ही मशाल बनती है, जीवन को रोशनी देती है। कविता मानव आत्मा को मुक्ति का रास्ता बुहारती है'... आदि-आदि। अंतिम बात में आत्मा का जिक्र है। क्रांति से आध्यात्मिकता की ओर उनका उन्मुख होना एक नयी दिशा की ओर उनका काव्य- प्रस्थान नहीं है। पहले भी वे आध्यात्मिक प्रश्नों से पौराणिक पात्रों पर लिखते हुए भिड़ चुके हैं। वाल्मीकि की चिन्ता, चौराहे पर कृष्ण उनकी परवर्ती काव्य कृतियां हैं। वे जिस समाज और समुदाय को मुखातिब हैं और जिसके जीवन-मरण और संघर्ष में सहभागिता का उन्होंने बीड़ा उठाया है वह आत्मा के प्रश्न से बेतरह जुड़ा हुआ है। उसकी बोली -बाली और चिन्तन के तौर तरीकों को अपनाये बिना उस तक पहुंचने का मार्ग भी कहां है? उनके इस संग्रह में पवित्रता जैसी अवधारणा भी हैं। इस संग्रह में कुछ प्रेम कविताएं भी हैं। जिनमें एक शीर्षक ही है 'पवित्र हो तुम। 'प्लेटोनिक लव की स्थिति है इस कविता में। यह नवम्बर 2013 में लिखी गयी है। सन् 2004 की लिखी कुछ प्रेम कविताएं भी हैं। और पुस्तक के अंत में निराला से अपने जीवन की घटनाओं की प्रकारांतर में तुलना भी है। उस वेदना के संदर्भ में जो अपनी बेटी पर लिखे उनके प्रसिद्ध शोक काव्य 'सरोज स्मृति' की रचना का कारण बनी। पाषाण जी ने संदिग्ध परिस्थियों में मृत अपनी पौत्री को याद किया है और वैसी ही किसी रचना के सृजन के प्रति आशान्वित हैं।
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