साभारः सन्मार्ग, कोलकाता, 26.11.2017 |
लघुकथाकार के रूप में पुख्ता पहचान बना चुके अशोक मिश्र का पहला कहानी संग्रह ‘दीनानाथ की चक्की’ ग्रामीण परिवेश को जीवंत करता हुआ पाठकों के आस्वाद में एक सकारात्मक और ज़रूरी हस्तक्षेप करता है। हालांकि इसमें संग्रहीत कहानियां देश की प्रमुख पत्रिकाओं में पहले ही प्रकाशित हो चुकी हैं किन्तु एक साथ इनको पढ़ना उनकी मुकम्मल दस्तानगोई से वाकिफ होना है। उनकी कहानियों में कस्बाई और शहरी परिवेश है किन्तु वह ग्रामीण दृश्य से देखा गया शहर है। उनकी कहानियां गांव से उठती हैं और उसके विषाक्त होते परिवेश और वहां ध्वस्त होते जीवन मूल्यों को बेबाक ढंग से पाठक के समक्ष रखती हैं। जातिवाद का घुन किस कदर देश की सारी व्यवस्था को कमज़ोर कर रहा है, इसकी शिनाख्त इन कहानियों से की जा सकती है। यह कहानियां कहानी भर ही नहीं हैं, बल्कि उससे आगे जाकर एक समाजशास्त्रीय अध्ययन और विमर्श बन जाती हैं।
संग्रह की पहली कहानी ‘बुद्धिराम@पत्रकारिता डॉट कॉम’ पत्रकारिता की दुनिया में जातिवादी गठजोड़ और देश की तमाम घटनाओं को जातीय दृष्टिकोण से देखने-दिखाने को बेनकाब करती है लेकिन वह जातीय विमर्श तथा समाज में दलित और स्त्री की स्थिति तक ही नहीं रुकती बल्कि मीडिया के पतनोन्मुख यथार्थ को भी बयां करती है। मीडिया के मिशन से प्रोफेशन बन जाने की टीस भी इसमें है। बीस साल तक पत्रकार के तौर पर सक्रिय रहे इस कथाकार ने इस दुनिया को करीब से देखा है, जो कथन को अतिरिक्त विश्वसनीयता प्रदान करता है। शीर्षक कहानी ‘दीनानाथ की चक्की’ भी आज की ग्रामीण व्यवस्था का आईना है और ग्राम विकास के नाम पर चलाई जा रही योजनाओं पर गहरा व्यंग्य है। शिक्षा जगत में व्याप्त विसंगतियां तो उनकी कई कहानियों में उजागर हुई हैं। अशोक मिश्र की कहानियां परास्त, पस्त और निराश लोगों के घुटन का दस्तावेज हैं। हर चौथी पंक्ति कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी प्रकार व्यवस्था की खामियों पर एक तल्ख टिप्पणी है और यह विनय की भाषा में नहीं है। उनकी कहानियों में संवाद कम हैं लेकिन जब भी कोई पात्र मुख खोलता है, उसमें तीखा कटाक्ष है। इसी प्रकार गांव की मौत कहानी में मौजूदा विडम्बनाओं के हमारा साबका पड़ता है। संग्रह की सत्रह नयी- पुरानी कहानियों में अशोक मिश्र ने क्रमशः लेखन -शिल्प को मांजा, कटाक्ष को तीव्रतर और यथार्थ पर अपनी पकड़ को मज़बूत किया है।
डॉ.अभिज्ञात
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