कांग्रेस महासचिव व युवा सांसद राहुल गांधी ने मध्य प्रदेश में नक्सल समस्या के लिए प्रशासन व स्थानीय समस्या के लिए ज़िम्मेदार क्या ठहराया भाजपा की स्थानीय सरकार की भौंहें तन गयी हैं। नक्सल समस्या क्यों पैदा हुई है यह इस समय पूरे में विचारणीय विषय है क्योंकि इससे जुड़ी हिंसक घटनाओं में आये दिन आम नागरिक और पुलिसकर्मी दोनों मारे जाते रहे हैं। राहुल यदि कहते हैं कि केन्द्र से चले हुए रुपये दूर दराज़ के गांव के लोगों को तक नहीं पहुंचते तो उनकी चिन्ता वाज़िब है और उनकी चिन्ता सही। लेकिन यह भी सही है कि उग्रवाद आर्दर्शों को लेकर चलता है और गुमराह हो जाना और उसका ग़लत लोगों के हाथों का खिलौना बना जाना उसकी नियति।
एक दशक पहले गुलज़ार ने इस उग्रवाद की कार्यपद्धति पर विचारणीय फिल्म बनायी थी माचिस, हालांकि कलात्मकता के फेर में वह अपने उद्देश्य से भटकती नज़र आयी किन्तु उसमें जो हमने देखा वह साफ था सिद्धांतों के नाम पर पढ़े लिखे लोगों तक की सहानुभूति उग्रवादी आंदोलन चलाने वाले हासिल करने में क़ामयाब हो जाते हैं किन्तु उनसे प्रति सहानुभूति रखने वाले और उनकी हिमायत करने वाले बुद्धिजीवी भी इस बात की कोई गारंटी नहीं ले सकते कि उग्रवादी कब कौन सा कदम उठायेंगे।प्रायः उग्रवाद बुद्धिजीवियों का भी इस्तेमाल कर पाने में सफल रहता आया है। अख़बार में काम करते समय यह अजीब संयोग भी जुटा कि एक तरफ़ पश्चिम बंगाल में नक्सलियों के आंदोलन को कुचलने के खिलाफ महाश्वेता देवी और कुछ अन्य बुद्धिजीवी आंदोलन कर रहे थे उनकी लालगढ़ से फोटो आयी थी वहीं दूसरी तरफ़ छत्तीसगढ़ से लगभग दो दर्ज़न पुलिसकर्मियों नक्सली हिंसा में शहीद होने की ख़बर भी थी। क्या मेरी हमदर्दी मारे जाने वाले पुलिसकर्मियों के प्रति उमड़ती है तो ग़लत है। क्या व्यवस्था बदलने का कोई और तरीक़ा नहीं है हथियार उठाने के अलावा। यदि नक्सल आंदोलन के पीछे सुचिन्तित दृष्टि और विचारधारा है तो विचारधारा की धार उन विचारों को क्यों नहीं कुंद करती, जो सत्ता में हैं। विचार यदि जनपक्षधर हैं तो जनता उसी विचार को मानने वालों को ही चुनेगी, इसमें क्या दो राय हो सकती है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबको अवसर है कि वे अपनी बात कहें और सत्ता पर काबिज़ हों। क्या यह तथ्य नहीं है कि हथियार मनुष्य की सभ्यता का विरोधी है और आधुनिक समाज में हथियार का स्थान विचार ने ले लिया है जहां ऐसा नहीं हुआ है वह समाज अब भी विकसित नहीं हुआ है। विकसित समाजों में परिवर्तन का कार्य हथियार के बदले विचार से सार्थक ढंग से किया गया है। क्या इसका उदाहरण स्वयं हमारा स्वतंत्रता संग्राम नहीं है और क्या उसमें महात्मा गांधी के अंहिसक सत्याग्रहों के योगदान से इनकार किया जा सकता है। जो लोग विचारों की शक्ति और लोकतांत्रिक पद्धतियों पर यक़ीन नहीं करते उनके साथ विचार की दुनिया से जुड़े लोगों की सहानुभूति क्या विडम्बनापूर्ण नहीं है। विकास कार्यों की राह में अड़चन पैदा करके दबाव बनाने का कार्यउग्रवादी संगठन किसी न किसी रूप में करते हैं और कुछ बुद्धिजीवी भी जो, जिनका दुनिया में प्रसिद्धि पाने का यह शार्टकट बनता जा रहा है। विकास की राह में रोड़े बनकर उन लोगों के हाथों पुरस्कृत हुआ ही जा सकता है, जो हमारे विकास को नहीं सह सकते।
इसी सदर्भ में वामपंथी दलों का उदाहरण भी हमारे सामने हैं। भारत-अमरीका परमाणु करार की राह में अड़चनें पैदा करके वे वही करना चाहते थे जो हमारा प्रतिस्पर्धी देश चीन और हमारा पड़ोसी दुश्मन देश पाकिस्तान चाहता है। क्या आदर्श बघारते हुए वामपंथियों ने वही नहीं किया जो हमारे दुश्मनों का अभिप्रेय है। वामपंथी दल फ़रमाते हैं कि साहब परमाणु संयंत्रों से जो बिजली तैयार होगी वह बहुत महंगी होती और हमारे पास जो ईंधन का स्टाक है उससे देश की बिजली समस्या का निदान हो जायेगा। तो यह बताइये कि आज़मगढ़ जिले के मेरे कम्हरियां गांव में चौबीसों घंटे बिजली कब और कितने में पहुंचायेंगे! मैं अपने गांव-जवार से दूर बंगाल में चौबीसों घंटे बिजली का उपभोग कर रहा हूं और वहां मेरे बूढ़े मां-बाप मुश्क़िल से आठ-दस घंटे बिजली पर गुजारा करने को विवश हैं और बिजली हर समय नहीं रहने के कारण उनकी जीवन कठिन हो गया है और उन्हें मज़बूरन कभी मेरे यहां तो कभी मेरे अन्य भाइयों के यहां रहना पड़ता है। क्यों नहीं बराबरी की बात करते कि जितने घंटे किसी भी मेट्रो शहर में है उतनी गांव में क्यों नहीं होगी। आप क्यों बराबरी नहीं चाहते। होना तो यही चाहिए कि बिजली जितनी भी हो सभी को बराबर मिले, चाहे वे गांव हों या शहर। फिर चाहे बिजली का जो ख़र्च आए। केवल भूमि और अनाज के समान वितरण ही पर्याप्त नहीं हैं बल्कि हर क्षेत्र में विकास के समान अवसर मिलने चाहिए। परमाणु बिजली चाहे जितनी महंगी पड़े दीजिए गांवों को भी बिजली दीजिए। उन्हें भी एसी में रहने का हक़ हो, वे भी टीवी देखें, वे भी कम्प्यूटर पर चैट करें। यदि आप शहर में इन सबके बिना जीवन की कल्पना नहीं कर सकते तो गांव वाले इसके लिए विवश क्यों किये जाये! इसके बिना विकास की बराबरी की बात नहीं की जा सकती। राहुल गांधी यदि कहते हैं कि गांव और शहर दोनों का विकास समान रूप से होना चाहिए तो एकदम वाजिब बात है। और जो वे इंटरनेट के ब्राडबैंड की बात कहते हैं वह भी। आखिर गांव तक सूचना के तत्काल प्रसार का इससे बेहतर रास्ता और कौन सा हो सकता है।
बतौर लेखक मैं अपने आप को खुशनसीब पाता हूं कि मेरे पास समाज की बेहतरी के सपने हैं और मेरे पास नायक भी हैं दो-दो। मनमोहन सिंह और राहुल गांधी जैसे। मैं इनसे निराश कत्तई नहीं हूं बल्कि आश्वस्त हूं कि यह दोनों ही देश को बेहतर बनाने के तरीके सोच रहे हैं और लगन से अपने काम को अंजाम दे रहे हैं। वे अपने क्षेत्र में वही कर रहे हैं जो मैं अपने क्षेत्र में। मनुष्य को और बेहतर बनाने के ख्वाब देखने का काम हमारा साझा काम है, अपने-अपने औज़ारों से।
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