अर्थ व्यवस्था के नियमों के बाहर होते हैं परोपकार के कामकाज। लेकिन इससे आॢथक असमानता को पाटने में अवश्य कुछ मदद मिल सकती है। बशर्ते परोपकार किसी अंधविश्वास के तहत न किया जा रहा हो। हमारे यहां मंदिरों में अकूत खजाने पड़े हुए हैं और उसका उपभोग निठल्ले करते हैं। इन मंदिरों में चढऩे वाले चढ़ावे अंधविश्वास से प्रेरित होते हैं जो अभिलाषाओं की पूॢत की चाह में पूरी होने पर ऋण के तौर पर चढ़ाये जाते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपनी सम्पन्नता और खुशहाली के लिए ईश्वरीय शक्तियों के प्रति आभारी होते हैं और आभार स्वरूप वे दान करते हैं। चाहे वह नगदी हो, आभूषण हो या जमीन। कुछ दान कर्मकांडों की वजह से भयस्वरूप भी लोग करते रहते हैं किन्तु इसके पीछे परोपकार की भावना नहींं होती है और ना ही दान देने वाला यह सोचता है कि हमारी दी गयी दौलत का उपयोग सही तरीके से हो रहा है नहीं। पंडे पुजारी महंतों की चांदी कटती कटती है। मंदिरों में आने वाले चढ़ावों और संचित सम्पदा का परोपकार के कारर्यों मेंं खर्च करने की व्यवस्था की जाये तो इस देश के हजारों लोगों को आसानी से भुखमरी से बचाया जा सकता है।
आॢथक असमानता दूर करने में माक्र्सवाद की थ्योरी है वह किसी हद तक ही कारगर है क्योंकि वह वर्ग संघर्ष पर आधारित है। वह छीनने के नकारात्मक भाव पर टिकी है और उसमें हिंसा मूल अस्त्र है। उसकी विसंगतियां भी सामने आती हैं क्योंकि समानता एक यूटोपिया है। इन विसंगतियों को जार्ज आरवेल ने अपनी किताब एनीमल फार्म में उजागर किया है। परोपकार के सम्बंध में सभी धर्मों की धारणाएं किसी हद तक सकारात्मक हैं जिनमें फेरबदल कर आज की नैतिकताओं से जोड़े जाने की आवश्यकता है।
आॢथक असमानता को मिटाने के लिए जहां माक्र्सवाद पर जोर दिया जाता रहा है वहीं पूंजीवाद ने परोकार के अस्त्र से उस खायी को पाटने की कोशिशें शुरू की हैं। इससे हिंसा वह रूप नहीं दिखायी देगा जो माक्र्सवाद के चलते दिखायी देता है। आॢथक दूरी को पाटने के लिए पूंजीवादी रवैये का विकास वक्त की मांग है। जिसमें बिल गेट्स और वारेन बफे लगे हुए हैं। इसका अनुसरण कर ही माक्र्सवादी रवैये के विकास को रोका जा सकता है। औद्योगिक जगत में बिजनेस एथिक्स का विकास इन्हीं उद्देश्यों से किया जा रहा है। अब वह दिन दूर नहीं जब हर चौथा पूंजीपति परोपकार की बातें करता नजर आयेगा और जमकर माल कमाने वाले समाज सुधार से जुड़े तमाम कार्यक्रमों के सर्वेसर्वा नजर आयेंगे। वह जिनके पास दुनिया की तमाम पूंजी एकत्रित हो रही है गरीबों को भुखमरी से जूझ रहे लोगों के लिए कार्यक्रम भी उन्हीं द्वारा संचालित होंगे। यदि ऐसा नहीं हुआ तो बगावत होगी और निशाना वे ही बनेंगे। बेहतर रास्ता है परोपकार का। इसमें भूखों ने छीन लिया से बेहतर है हमने भूखों में बांट दिया। चीन के पूंजीपतियों को अमरीका से यह सबक सीखने से नहीं हिचकना चाहिए। चीन के अरबपति परोपकारी कार्यों के लिए अपनी धन संपदा दान देने के इच्छुक नहीं हैं। दुनिया के दो प्रमुख अरबपतियों बिल गेट्स और वारेन बफे ने इन दिनों दुनिया भर के अमीरों से अपनी संपत्ति का एक हिस्सा परोपकारी कार्यों के लिए दान करने को कह रहे हैं। इसी अभियान के तहत गेट्स और बफे ने चीन के 50 सबसे बड़े अमीरों को 29 सितंबर को बीजिंग में एक रात्रि भोज में शामिल होने का आमंत्रण दिया है। पर ज्यादातर चीनी अरबपतियों ने गेट्स और बफे के साथ इस आयोजन में शामिल होने के आमंत्रण को ठुकरा दिया है। उन्हें आशंका है कि इस मौके पर उनसे अपनी संपत्ति दान करने की प्रतिबद्धता ली जा सकती है। अमरीका में अरबपतियों की संख्या 117 है, वहीं चीन में यह 64 है। गेट्स और बफे की यह जोड़ी अब तक दुनिया के 40 अरबपतियों को अपनी आधी संपत्ति दान करने के लिए भरोसे में ले चुकी है। इस संपत्ति का मूल्य 125 अरब डालर बैठता है।
अपने देश की सर्वोच्च न्यायालय कहती है यदि अनाज को गोदामों में नहीं रख सकते तो गरीबों में बांट दो। ठीक कहा गया है। इससे सरकार का मानवीय चेहरा भी बचा रहेगा। स्ट्रेस मैनेजमेंट के ये आधुनिक गुर हैं इन्हें सीखना ही होगा। यदि किसानों के लिए हुए कर्ज की वसूली में अधिक पैसा खर्च होता है तो उससे अच्छा है उनके कर्ज माफ कर दो। यह मौजूदा सम्प्रग सरकार कर चुकी है। उसे ऐसा करना भी चाहिए।
विचारणीय लेख ....
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