समीक्षा
साभारःसन्मार्ग, 6 नवम्बर 2011
पुस्तक का नाम: हारिल/लेखक-हितेन्द्र पटेल/ अंतिका प्रकाशन, सी-56/यूजीएफ-4, शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-2, गाजियाबाद-2010005(उप्र)/मूल्य-सौ रुपये।
हितेन्द्र पटेल का पहला उपन्यास 'हारिल' अपने रचना-शिल्प, कथन और कहने की भंगिमा की उत्कृष्टता के कारण पाठकों पर अपना प्रभाव छोडऩे में कामयाब है। इस कृति में लेखक की जो बात मुझे खास तौर पर रेखांकित करने योग्य लगी, वह है रचना में शब्दों के प्रयोग की सीमा का भान। अतिकथन अच्छी-अच्छी कृतियों के प्रभाव को क्षीण कर देता है। खास तौर पर किसी के पहले उपन्यास में यह खतरे बहुत होते हैं, जिससे यह कृति बची हुई है। घटनाक्रम के ब्यौरों को उन्होंने इतने संतुलित ढंग से रखा है कि वे पाठकों को अनावश्यक कहीं नहीं लगते। यही बात कथा प्रसंगों के निर्वाह में भी कही जा सकती है, बल्कि इस मामले में तो वे और चुस्त-दुरुस्त हैं। वे घटनाओं को उसी मोड़ पर लाकर खत्म कर देते हैं, जहां से कई दिशाएं दिखायी देती हैं और पाठक के पास बस यही विकल्प बचता है कि वह कथासूत्र को अपनी कल्पना के आधार पर मनचाही परिणति तक ले जाये। लेखक का काम वहीं खत्म हो जाता है, जहां वह पाठक का अपनी कथावस्तु के साथ तादात्म्य स्थापित करवा दे। वे घटनाओं को वहां छोड़ते हैं, जहां उनका निहितार्थ है। यह सामान्य पाठकों को पहले-पहल तो आधी-अधूरी कृति का एहसास दिलाता है किन्तु आगे क्या हुआ होगा कि प्यास जगाकर छोड़ देना किसी रचनाकार के वैशिष्ट्य के तौर पर देखना अधिक समीचीन लगता है। यह रचना स्वभाव और कहने का अंदाज कम ही लेखकों के पास है।
हारिल उपन्यास में नैतिक मूल्यों के ह्नास की बात जिस सादगी से उठायी गयी है, वह इस रचना की उपलब्धि है क्योंकि वह उसकी अर्थवत्ता को अनेकार्थता तक ले जाने में सहायक है। लम्बे-चौड़े भाषण, बड़े-बड़े दावे और आक्रांत करने वाली मुद्रा यहां नहीं है। यहां वेधक कटाक्ष हैं, जो हमें अपनी परिपाटी का हिस्सा हो चले समझौतों के प्रति सचेत करते हैं। किस चतुराई और उदात्तता से पूंजी लोगों को अपना गुलाम बनाती है, उसकी गहरी शिनाख्त इस कृति में मिलेगी। प्रकृति, दर्शन, विचार, इतिहास, प्रेम, पूंजीवाद का धूर्त चेहरा इसमें रह- रह कर अपने अपने अलग-अलग रूपों में सामने आता है और हमें चमत्कृत, मोहित और आक्रांत करता है। यह आभास होता है कि यह कृति एक लम्बी तैयारी के साथ लिखी गयी है किन्तु हर शब्द मितव्ययिता के साथ खर्च हुए हैं। एक एक शब्द जरूरी और वाजिब।
एक फ्रीलांसर पत्रकार की यह दास्तान उसके एक पुराने मित्र, मित्र की पत्नी, मित्र की साली और मित्र के पत्नी के प्रेमी के इर्द-गिर्द घूमती है लेकिन इसके बीच वह एकाएक जटिल शहरी सम्बंधों से दूर प्रकृति के करीब पहाड़ पर चला जाता है ताकि अपने भीतर की आवाज को सुन सके। वहां कुछ ऐसे लोग और एक ऐसी दुनिया से उसका साबका होता है, जहां से जीने के नये अर्थ उसे मिलते हैं। बदली हुई जीवन दृष्टि के साथ जब वह तीन माह बाद वह अपनी पुरानी दुनिया में लौटता है तो एक बदली हुई दुनिया उसके सामने होती है। बदली हुई परिस्थितियों का सामना वह जिस प्रकार करता है, क्या वह सही है, उपन्यास के खत्म होने के बाद भी पाठक के पास सवाल बचा रह जाता है, जो नैतिक भी है और टाला जाने वाला भी नहीं है। आज की नैतिकता से मुठभेड़ के लिए यह उपन्यास अलग से जाना जायेगा। पाठक को भी इस उपन्यास से गुजरने के बाद चीजों को अपने देखने-समझने के नजरिये में बदलाव महसूस हो सकता है।
उत्सुकता जगाने वाली टिप्पणी. यह सुखद सूचना भी यहीं मिली कि हितेंद्र ने उपन्यास लिखा है. पढूं तो कुछ और कहूं.
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