Thursday 26 June 2014

हमारे जीवन में उत्सव का स्थान मनोरंजन ने ले लिया है

 

प्रख्यात कथाकार, उपन्यासकार एवं यात्रा वृत्तान्तकार डॉ.कुसुम खेमानी से 

डॉ.अभिज्ञात की बातचीत

प्रश्न-साहित्य सृजन की शुरुआत कैसे हुई? प्रेरणा कैसे मिली? उस दौर में किन लेखकों को जानती थीं या किसका लिखा पढ़ती थीं?
उत्तर-इस प्रश्न का उत्तर मेरे लिए बहुत ही मुश्किल है और इसकी सीधी-सी वजह यह है कि मैंने न कभी यह जाना, न कभी माना कि मैं लेखिका हूँ या अच्छा लिख सकती हूँ। हाँ, किताबें पढऩे का बेहद शौक बचपन से ही रहा। यहाँ तक कि वे रिसाले जो एक आठ वर्षीय लड़की के लिए भारी माने जाते, उन्हें भी मैं चुपके से ताक से उतार कर पढ़ लिया करती थी। लिखने की शुरुआत की उम्र इतनी कम थी कि हँसी आ सकती है। मैं जब तीसरी-चौथी कक्षा में पढ़ रही थी, उस व$क्त एक दैनिक अखबार में बहस चली थी विषय था 'प्रणय या परिणय', मैं उसमें अंशु जैन के छद्म नाम से बराबर लिखती थी। एक दिन घरवालों को इसका पता चल गया। उन्होंने खूब मजाक उड़ाया, उसी दिन से लिखना ठप्प हो गया।
वैसे मैं बाद में भी कुछ ना कुछ लिखती रहती थी। दिनमान, धर्मयुग, कादम्बिनी में एकाधिक आलेख छपे भी थे, लेकिन लेखन का क्रम टूटने का कोई $खास दु:ख नहीं है, क्योंकि मैं नियति को मानती हूँ और मेरा विश्वास है कि मैं अब जो लिखूँगी वह पहले के लिखे से बेहतर होगा। मेरे लिखे के छपने की शुरुआत का श्रेय पूर्णत: श्री रवीन्द्र कालिया को है, जिन्होंने मुझे लिखने की हिम्मत दी और मुझसे लगातार वागर्थ में लिखवाया।
प्रश्न-किनका लिखा पढ़ा है?
उत्तर-पूछिए किसे नहीं पढ़ा? छोटी उम्र से ही किताबों का शौक होने के कारण मारवाड़ी घर के सारे पैसे किताबों में ही लगते थे। किताबें पढऩे का यह हाल था कि एम.ए का इम्तहान केवल बाहरी किताबों के बल पर फस्र्ट क्लास में पास कर लिया। सोलह साल की उम्र में ही कई लेखकों को करीब से देखा। ससुराल में बच्चन, नीरज, बैरागी आदि का का$फी आना-जाना था और सत्रह-अठारह तक तो मैं सीताराम जी सेकसरिया के प्रभाव क्षेत्र में आ गयी थी इसीलिए अधिकतर समाज सुधारकों, राजनीतिज्ञों और लेखकों से मिलना-जुलना होता ही रहता था। मुझे लेखक ही प्रिय हैं
और मैं उन सभी की श्रद्धा करती हूँ। बीस की उम्र के बाद मेरे प्रिय रचनाकार रहे अज्ञेय, कुंवरनारायण, भवानी प्रसाद मिश्र, धर्मवीर भारती, कृष्णा सोबती, धूमिल, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना,  केदारनाथ ङ्क्षसंह, मनोहर श्याम जोशी, इस्मत चुगतई, कुरतुल-एन-हैदर, राही मासूम रजा और विनोद कुमार शुक्ल ढेरों हैं पर जिनके नाम अभी याद नहीं आ रहे हैं।
प्रश्न-साहित्य में दृष्टि, विचार और अनुभव की परिपक्वता हासिल करने के बाद प्रवेश करने वाले मनोहर श्याम जोशी आदि के साथ आपका नाम लिया जा सकता है? विलम्ब से इस क्षेत्र में प्रवेश के क्या कारण रहे? इससे क्या खोया और क्या पाया?
उत्तर-आपका यह प्रश्न बहुत ही भारी है। हकीकत यह है कि शायद मुझमें  अब भी काफी बचपना है। और हे देवता! कहाँ प्रात: स्मरणीय मनोहर श्याम जोशी और कहाँ मैं? भाई, उनकी तो कलम क्या थी संगतराश की नोकीली छेनी थी, जो हर शब्द को छील-तराश कर चमका देती थी और मैं तो अभी लिखना सीख रही हूँ। अपने लेखन से मैंने क्या खोया है यह तो पता नहीं, पर अभी जो पहचान बनी है, वह बहुत ही प्यारी है।
प्रश्न-परवर्ती काल में क्या लिखने की वजह बदली..लेखन के उद्देश्य में क्या कोई बदलाव आया?
उत्तर-पहले मैं जो मन में आया वह लिख देती थी, पर अब मन करता है, कुछ ऐसा लिखूँ जो जीवन को अर्थ दे। मेरी कहानियों में भी यह अन्तध्र्वनि छिपी रहती है और मेरे पात्र भी अन्तत: बुराई को नकार कर अच्छाई को ही अपनाते हुए दिखते हैं।
प्रश्न-आपके लेखन की ऊर्जा का उत्स क्या है? सोद्देश्य लेखन और स्वांत: सुखाय में से आपका पथ कौन सा है?
उत्तर-मेरे पाठकों का प्रेम ही मेरी ऊर्जा का उत्स और अन्तिम सत्य है। जानबूझ कर कैसे लिखा जाता है.. यह मैं नहीं जानती। लेकिन मन में कोई भव आने पर या कुछ अच्छी-बुरी घटना देख कर एक मानसिक उद्वेग होता है, जिसे कागज पर उतार देने के बाद हल्कापन महसूस करती हूँ। ऐसे लिखे भाव हर बार ही कोई आकार ले लें यह $जरूरी नहीं लेकिन उन्हीं में से कई बार किसी कहानी या किसी आलेख की संरचना हो जाती है।
प्रश्न-साहित्य में प्रतिबद्धता शब्द प्रचलित और प्रतिष्ठित है.. खास तौर पर वामपंथी रुझान वाले लेखकों में, आप अपने लिए इससे क्या अर्थग्रहण करती हैं?
उत्तर-मेरी प्रतिबद्धता सिर्फ एक भाव के प्रति है  और वह है : प्रेम। मैं अपने जीवन का मूल, मध्य और अन्त सब प्रेममय रखना चाहती हूँ। चँूकि मेरे पात्र अधिकतर 'सच्चे' हैं इसलिए मेरी प्रतिबद्धता और सम्मान बेमानी है। मुझे तो जैसा वे कहते हैं, करना पड़ता है! अत: 'इज्म' और 'वाद' स्वत: ही मेरे लेखन का हिस्सा बन जाते हैं।
प्रश्न-आपके साहित्य में पूँजी, सम्पन्नता और समृद्धि का एक मानवीय चेहरा दिखायी देता है, जो हिन्दी सहित्य में प्रचलित ढर्रे से अलग ही नहीं, बल्कि विपरीत है। जो वर्ग शोषक के तौर पर साहित्य में स्थापित था आपने उसकी उदारता, करुणा और परोपकार पर फोकस किया है.. इसमें आपको झिझक नहीं हुई.. आलोचकों का कोई खौफ महसूस नहीं किया.. रिजेक्ट कर दिये जाने की चिन्ता पास नहीं फटकी?
उत्तर-दरअस्ल यह मेरे पात्रों का काम है, मेरा नहीं। और चूँकि मेरे सारे पात्र मेरे अनुभव से उपजते हैं इसलिए वे उस मिट्टी और खाद का प्रतिनिधित्व करते हैं जो उनकी अ$ज्म में पिन्हा है। मेरे हितैषियों ने मुझे सुझाया भी;  नारी विमर्श पर, दलितों पर, फलां पर, ढिमका पर, लिखो.. पर मैं अक्षम थी। जो सत्य मैंने भोगा नहीं उसे कैसे लिखूँ? मेरा मानना है कि मनुष्य हर जगह मनुष्य है! न तो आभिजात्य वर्ग के ही सारे लोग बुरे होते हैं और ना ही अन्य वर्गों के सब भले! मैं समझ नहीं पाती कि मुझे सच्चाई से क्यों डरना चाहिए? फिर भी यदि कोई व्यक्ति विशेष या वर्ग, मुझसे नाराज है तो मा$फी चाहती हूँ पर मैं अवश हूँ।
प्रश्न-साहित्य में आपके रोल मॉडल कौन हैं.. किसका लिखा आपको अधिक पसंद है.. किसके जैसा लिखना चाहती हैं.. कौन -सी कृतियाँ पसन्द हैं.. देशी-विदेशी.. हिन्दी.. अन्य किसी भाषा का..।
उत्तर-कई हैं, फिर भी कृष्णा सोबती, अज्ञेय, कुंवर नारायण, इस्मत चुगताई, भीष्मू साहनी, मंटो, राही मासूम रजा, मनोहर श्याम जोशी, भवानी प्रसाद मिश्र आदि मुझे बेहद पसन्द हैं। मैं कई नये लेखकों को भी पढ़ती रहती हूँ और मुझे उनके लेखन का ताजापन और जमीनी हकीकत से जड़ाव लुभाता है। अमिताभ घोष, विक्रम सेठ, आर.के.नारायण, वी.एस.नायपॉल, अरुन्धति रॉय, आशापूर्णा देवी, जीवनानंद, सुनील गंगोपाध्याय, विमल मित्र, टॉलस्टाय, शेक्सपीयर, चेखव, बॉलजॉक, गैब्रियल मार्खेज आदि... पर क्या चाहने मात्र से मैं इनमें से किसी के भी जैसा लिख सकती हूँ? इसलिए बेहतर यही है कि मैं अपने जैसा ही लिखूँ..चाहे वह एकदम साधारण ही हो।
प्रश्न-विचार और संवेदना, शिल्प और कथ्य में से किसे अधिक तरजीह देती है..?
उत्तर-वैसे तो ये चारों ही किसी भी रचना के स्तम्भ हैं पर मैं संवेदना और कथ्य को ज्यादा अहमियत देना चाहती हूँ। कितना दे पाती हूँ! यह तो पाठक ही जानें...।
प्रश्न-महिला लेखक के प्रति आपका क्या नजरिया है, आप अपने को जोड़कर देखतीं हैं या उसको कोई महत्त्व नहीं देतीं..
उत्तर-क्या आप अभी भी महिला और पुरुष लेखक की गलियों में भटक रहे हैं? मुझे तो न पुरुष से चिढ़ है न महिला से। हाँ, मेरे चाहनेवालों का मानना है कि मैं स्त्रियों की विशेष पक्षधर हूँ। दरअस्ल मैं 'अद्र्धनारीश्वर' की भक्त हूँ। मुझे पुरुष में प्रेम और ममता और स्त्री में कर्मठता और जुझारूपन प्रिय है। मैं इन्हेें ही अपने जीवन का दर्शन भी मानती हूँ।
प्रश्न-आपके उपन्यास और कहानियों में नारी पात्रों को नयी गरिमा मिली है और उनकी समस्याओं को संवेदनशीलता के साथ रेखांकित किया गया है.. इसके सम्बन्ध में आप अलग से कुछ कहना चाहेंगी..
उत्तर-यदि ऐसा है तो बहुत ही अच्छा हुआ है। ह$जारों सालों से अग्नि में जलती नारी को कभी तो.. कोई तो.. ठंडे जल की गंगा से सराबोर करता! मैं नाची$ज तो ऐसा क्या कर पायी होऊँगी.. पर मुझे लग रहा है कि इन दिनों स्त्रियों को समझने की कोशिश की जा रही है। हालाँकि इन दिनों स्त्री ने भी स्वयं को सिद्ध किया है, पर बहुतेरे पुरुषों ने भी उन्हें मान-सम्मान, गरिमा और बराबरी का दर्जा दिया है। स्वाभाविक है यह बदलाव साहित्य में भी प्रतिबिम्बित होगा ही। अलग से न कहकर मैं सि$र्फ यह दोहराना चाहूँगी कि जैसा महसूस करती हूँ वैसा लिखती हूँ। यह स्वीकार करते हुए भी कि मुझे स्त्री सर्वदा लुटी-पिटी लगती है। मेरी दो-चार कहानियों की स्त्रियाँ बहुत ही भौतिकवादी, कर्कश और और उच्छृंखल भी हैं.. पर यह तका$जा उनके चरित्र का था, इसलिए उन्हें उसी तरह व्यक्त करना पड़ा।
प्रश्न-आपने कई देशों की यात्राएँ की हैं जिन पर आपकी पुस्तक भी आयी है, किन्तु दुनिया की तमाम अच्छी चीजों की चर्चा के दौरान आप अपने देश की चर्चा करने से नहीं रोक पाती हैं.. यह कई बार कसक के रूप में व्यक्त हुआ है... यह तटस्थ लेखन तो हुआ नहीं.. तुलना के दौरान आपने अपने देश के मूल्यों, प्राकृतिक सौन्दर्य और कलाकृतियों को अधिक महिमामंडित किया है..
उत्तर-आपको यह भ्रांति हुई है या हो सकता है यह मेरे लेखन की कमजोरी हो! प्रथमत:, तो मेरे यात्रा वृत्तान्त की पुस्तक का नाम है 'कहानियाँ सुनाती यात्राएँ' है अर्थात् वे देश जैसे मेरे मन में उगे। इसलिए $जरूरी तो नहीं है कि मैं एकदम रूखेपन से वहाँ के हवा-पानी और बारिश के आँकड़ पेश करती रहती। रिपोर्ताज और वृत्तान्त में कुछ तो अन्तर होना ही चाहिए! जहाँ तक मेरा ख्याल है मैंने अपने वर्णनों में कोई बेईमानी नहीं की है। यदि कश्मीर में कोई विदेशी सैलानी मुझसे यह कहे कि स्विट्जरलैंड कश्मीर के पासंग भी नहीं है... तो मेरे हृदय में कसक नहीं उठेगी? मैं यदि रोम की 'पियेता' के साथ रो सकती हूँ , तो इस बात पर भी दु:खी होने का ह$क है मेरा कि दूर क्यों कलकत्ते के ही इंडियन म्यूजियम में विशाल और विराट मूर्तियाँ यों ही पड़ी हैं। यदि हम मनुष्य हैं, तो राग-विराग, दु:ख-कष्ट से मुक्त कैसे हो सकते हैं? क्या हमें इस बात पर शर्म नहीं आनी चाहिए कि हम हमारे प्राकृतिक संसाधनों और हजारों वर्षों की ऐतिहासिक धरोहरों से बेखबर रहते हैं? यह तो खैर मनाइये कि मैं कोई पुरातत्त्विद् या इतिहासकार नहीं, वर्ना रात से सुबह हो जाती और हमारे देश की एक मूर्ति की भी पूरी व्याख्या पूरी तरह नहीं कर पाती! मेरी कोशिश रही है कि मैं अधिक से अधिक सच लिख पाऊँ वर्ना स्विट्जरलैंड, डर्बन, वैंकयूवर, रोम आदि पर वृत्तान्त पाठकों को इतने प्रिय कैसे हुए?
प्रश्न-आपने कहानी, उपन्यास एवं यात्रा वृत्तान्त इन तीन विधाओं में लिखा है.. आपका मन किसमें रमता है..? अपनी मूल रचनाविधा किसे मानती हैं?
उत्तर-हालाँकि उपन्यास की बजाय कहानी लिखना अधिक कठिन है, क्योंकि कहानी का $फलक छोटा होता है, पर पता नहीं क्यों इन दिनों मेरा अधिक रुझान कहानी की ओर हो रहा है। परिणामस्वरूप हंस, नया ज्ञानोदय, कथादेश, पाखी, परिकथा और वागर्थ में मेरी कहानियाँ छप रही हैं। चित्रा जीजी (मुद्गल) के आदेश से एक उपन्यास राजस्थानी पृष्ठभूमि पर लिखना शुरू किया है, पर कहानियों के पात्र भूत की तरह मुझसे चिमटे रहते हैं। अब जब उनसे निजात मिलेगी तभी कहानी के अलावा कुछ और लिख पाऊँगी।
प्रश्न-लेखन की भावी योजनाएँ क्या हैं?
उत्तर-जिसने आज तक सारा काम देर से और बिना योजना के किया है, वह भला अब क्या सोचेगा? क्या योजना बनायेगा? सब कुछ मन के हवाले हैं, वह जिधर बहेगा उसके साथ बहना होगा।
प्रश्न-आपकी रचनाशीलता में परिपक्वता के साथ-साथ एक युवता भी है.. उसे बचाये रखने के लिए आपने क्या यत्न किये हैं?
उत्तर-क्या कोई चाह कर परिपक्व या नासमझ बन सकता है? क्या कोई जान लगाकर भी युवता को बचा सकता है? ययाति को भी अपने बेटे की जवानी उधार माँगनी पड़ी थी क्योंकि ध्रुव सत्य है कि जवानी कभी लौटती नहीं! फिर मैं क्या कोई आकाश से उतरा अजूबा हूँ जो एक मुट्ठी में जवानी और एक में समय को बन्द रख सकती हूँ? मेरा ख्याल है मेरी नासमझी भरी भरी बातें ही आपको मेरी युवता का परिचायक लगी होंगी। वैसे न तो मैं लाओत्से हूँ! और ना ही बुद्ध।
प्रश्न-इस समय कौन-सी चुनौतियाँ हैं जिनसे इस समय के रचनाकार को टकराना चाहिए.. जिससे टकराये बिना रचनाशीलता के मूलधर्म से पलायन कहा जाएगा?
उत्तर-मेरी समझ से आज के दिन की सबसे बड़ी विडम्बना है-लालच। विज्ञान ने अपने अनेकानेक भौतिक प्रकारों से सामग्रियों का ऐसा अम्बार लगा दिया है कि मनुष्य उस आडम्बर में कहीं खो गया है। सुबह से शाम सिर्फ दौडना! उन्हें पाना! भोगना! और नष्ट करना! बस उसने अपनी जीवन-पद्धति यही बना ली है। उसकी भोगसामग्री की सूची दिनोंदिन लम्बी होती जा रही है और सब कुछ भोगते हुए भी उसे कहीं भी रस नहीं मिलता। हमारे जीवन से 'आस्वाद' शब्द मिट गया है। अपनी लम्बी फेहरिश्त पर 'टिक' लगाता हुआ वह अन्त में थक कर खत्म हो जाता है।
यह गहन विषय है इस पर मैं तो क्या $खाक लिख पाऊँगी पर मेरी हार्दिक इच्छा है कि बढि़या रचनाकारों को इस अदृश्य दौड़ से मानवमात्र को बचाना चाहिए और अपने लेखन से उनकी तन्द्रा भंग करनी चाहिए। सात्विक जीवन के खूबसूरत पहलुओं का लय भरा वर्णन कर, उन्हें कोशिश करनी चाहिए कि वे अपने पाठकों को समझा पायें कि 'देखो! देने में कितना आनन्द है।'
प्रश्न-प्रेमचन्द ने साहित्य को समाज के आगे चलने वाली मशाल कहा था.. आज साहित्य के लिए लोगों को जीवन में कितनी जगह बची है.. साहित्यकार हाशिए पर क्यों हैं?
उत्तर-साहित्य की तो छोडि़ये! पर जरा यह तो बताइये आज के लोगों को कौन सी ची$ज में आनन्द आता है? आज हमारे जीवन में उत्सव का स्थान मनोरंजन ने ले लिया है और अब ऐसे उखड़े-पुखड़े समय में किसे फुर्सत है कि वह यह देखे कि कौन हाशिए पर है, कौन नहीं? मुझे नहीं पता आप हाशिये का इस्तेमाल किस सन्दर्भ में कर रहे हैं, पर शायद थोड़ा बहुत यह पता है कि हर दूसरा आदमी, पहले को धकिया कर हाशिये पर डालना चाहता है। अब ऐसे घटाटोप में तो वे ही नक्षत्र की तरह चमक कर ऊपर उठ पाएँगे, जो अपना सर्वस्व उलीच कर अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ेंगे।
प्रश्न-अंग्रेजी के लेखक साहित्य से पर्याप्त कमा रहे हैं और वे लगभग फुलटाइमर हैं, जबकि हिन्दी का लेखक साहित्य के बल पर अपना परिवार नहीं चला सकता.. उसके क्या कारण हैं?
उत्तर-क्या अंगे्रजी के सारे लेखक मजे में हैं या सिर्फ वे 'बेस्ट सेलर! जो कूद-फांद कर किस तरह सुर्खियों में आ गये हैं। मेरे हिसाब से भारत में भी बहुतेरे प्रकाशन संस्थान हैं, जो खूब कमा रहे हैं, तो फिर कमी कहाँ है! हमें  इसे खोजना चाहिए। आ$िखर वह कड़ी कौन सी है? जो बड़े-बड़े लेखकों तक को उनका प्राप्य नहीं देती?
प्रश्न-भारतीय भाषा परिषद की महत्त्वपूर्ण पदाधिकारी होने के कारण देश भर के तमाम लेखकों के सम्पर्क में आप बराबर रही हैं, किनके व्यक्तित्व से आप प्रभावित हुईं। किस-किस ने आपके रचनात्मक व्यक्तित्व को बनने में मदद की। किसने आपके जीवन की दशा और दिशा को निर्देशित किया?
उत्तर-बड़े लोगों से मिलना-जुलना एक बात है और उनसे गढ़ा जाना कुछ और। मैंने ऐसा कौन सा तीर मार लिया है, जो मुझे कोई द्रोणाचार्य मिल जाते? जहाँ तक व्यक्तियों से प्रभावित होने का सवाल है मेरे लिए विष्णुकांत जी शास्त्री, दद्दा (भवानी प्रसाद मिश्र), अज्ञेय जी और कृष्णा सोबती बेजोड़ हैं। वैसे मेरा मैं दावा है कि मैं आज तक किसी बुरे आदमी से नहीं मिली। प्रत्येक लेखक की अपनी बानगी, अपनी मिठास, अपना सादापन और अपना वैशिष्ट्य होता है, जो मुझे प्रभावित ही नहीं सम्मोहित कर लेता है।
प्रश्न-साहित्य से समाज में क्या और कितना बदलाव लाया जा सकता है?
उत्तर-मेरा मानना है कि साहित्य ही वह औजार है जो समाज को बदल सकता है। मुझे बचपन से आजतक अपने पिताजी (97 वर्ष) के सुनाये हुए अनेक प्रेरक प्रसंग याद आते हैं जिसने मेरे जीवन में जो भी अच्छा है, उसे रचा है। वे दर्शन की बारीक सूक्तियों को उर्दू, संस्कृत, हिन्दी, हरियाणवी, ब्रज आदि अनेकानेक भाषाओं के दोहे, साखी, शेर, सोरठा में यों कह देते हैं कि हम कुछ भी करने से पहले रुक कर उसके सही या गलत पर विचार करने लगते हैं। इसका एक छोटा सा उदाहरण है कि 'प्रत्येक तानाशाह सबसे पहले देश के साहित्यकारों को कुचलता है, क्योंकि वह जानता है कि साहित्य के पलटवार को वह नहीं झेल पाएगा।'
प्रश्न-साहित्य के अलावा आपकी दिलचस्पी के क्षेत्र क्या हैं और उनसे आप किस प्रकार जुड़ी हैं?
उत्तर-मैंने अपने समय का एक हिस्सा उन संस्थाओं को दे रखा है जिन्हें मेरी आवश्यकता है। मैं एक लम्बे अर्से तक मदर टेरेसा के कार्यों से भी जुड़ी रही। एक समय ऐसा था जब मैं सुबह दस बजे से शाम तक विभिन्न संस्थाओं में का ही काम करती रहती थी.. पर अब मैं शारीरिक रूप से, मानसिक और आर्थिक रूप से तो कई संस्थाओं का काम करती हूँ, पर उन चल निकली संस्थाओं में अनावश्यक ही अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं कराती। एक लाइन में कहा जा सकता है कि मेरी दिलचस्पी झाँकावाले, झलनी वाले, खोंचेवाले, मर्सीउीज सवार काले चोगे में, अपढ़ वृद्धा, बच्चों में सबसे अधिक है। मैं राह चलते सबसे मुस्कुराकर बोलती-बतियाती रहती हूँ! और शायद मैं उनकी मुस्कुराहटें लेकर अपने आनन्द में इतना इजाफा कर लेती हूँ कि सदा मुस्कुराती रहती हूँ।

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