Friday 20 September 2013

किसी की दो-चार पंक्तियां भी जीवित रह गयीं, तो उसका लिखना सार्थक

प्रख्यात नवगीतकार डॉ.बुद्धिनाथ मिश्र से डॉ.अभिज्ञात की बातचीत 
प्रश्न: ऐसे में जबकि छंदों की वापसी की बात की जा रही है ऐसे में नवगीतों की भूमिका के बारे में क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर: नवगीत आंदोलन के पहले जो गीत लिखे जाते थे उसमें प्रकृति जिस तरह से आधार बनकर आती है उससे आधुनिक पीढिय़ों दूर हो गयी हैं। गीतकारों से नगरीय जीवन उससे छूट रहा था। आज जीवन में जटिलता ज्यादा आ गयी। जो आधुनिक चेतना व जीवन की विडम्बनाएं हैं, जो कुंठा है उन्हें पुराने ढंग के गीत व्यक्त नहीं कर पा रहे थे। उन्हें अभिव्यक्ति देना नवगीत का पहला मकसद था। दूसरा यह कि पहले लिखे गये गीतों से अलग पहचान कैसे बनायें। जहां छायावाद के एक से एक रचनाकार हैं, उससे पहले भी गीतकार थे। उसके अलावा भी उस समय कई रचनाकार लिख रहे थे, जिनमें दिनकर व बच्चन जी थे। तो गीतों का एक विशाल भंडार था, उसमें अपनी अलग पहचान कैसे बनायें, यह चुनौती थी। आधुनिक चेतना का कर्ज नवगीत उतार रहे थे। मैं कलकत्ता आया था। सड़क पर दुर्घटना हो गयी थी..सड़क पर शीशे की किरचें बिखरीं हुई थीं.. मैंने एक गीत में शब्द दिया 'सड़कों पर शीशे की किरचें हैं, और नंगे पांव हमें चलना है, सर्कस के बाघ की तरह हमको, लपटों के बीच गुजरना है।' जो तीन-चार विशेषताएं थी उनमें आंचलिक जीवन की जो संस्कृति और शब्द हैं उन्हें भी लिया जाये। वह एक दौर था। आंचलिक शब्दों और संस्कृति को रेणु ने अपनाया, बाबा नागार्जुन, प्रेमचंद ने तमाम शब्दों को पहले ही लिया था। निराला ने लिया था। बाबा नागार्जुन ने अपने उपन्यासों बाबा बटेश्वर नाथ में तथा बिल्लेसुर बकरिहा में लिया था। उनके गांव में बिल्लेश्वर हैं महादेव। उनकी पूजा होती है। उसी की लोग बिल्लेसुर कहने लगे। यह प्रवृत्ति है उसे नवगीतकारों ने स्थान दिया। मेरा एक नवगीत संग्रह आया है 'ऋतुराज एक पल का'। उसमें मैंने छंद पर विस्तार से बात की है। इस बात को भी रखा है कि अभियान जिस तरह से चला था वह कुछ शिथिल हुआ है। उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि नवगीतकार आत्मकेंद्रित हो गया। यह बहुत दुखद है। वे दूसरे को स्वीकार नहीं करना चाहते, पढ़ते भी नहीं हैं। अपने सामने दूसरे को कुछ नहीं समझते। आत्ममुग्धता और आत्म-केंद्रीयता है। आपको जानकर बेहद आश्चर्य होगा कि मेरे जो घनिष्ठ मित्र हैं जब नवगीतकार की चर्चा करते हैं तो अपनी ही चर्चा करते हैं मेरा नाम भी भूल जाते हैं। सबको साथ लेकर चलने का जो काम डॉ.शंभुनाथ सिंह ने किया उसमें उन्होंने अपनी पसंद-नापसंद को अधिक तरजीह दी। जो नायक को नहीं करना चाहिए था। मैंने कोशिश की अपने को पीछे करके अन्य गीतकारों को प्रकाशित-प्रचारित करने का अवसर दिया जाये। कलकत्ता में रहते हुए मैंने कई गीतकारों का जिनका कोई कविता संग्रह नहीं था प्रकाशित किया था..सोम ठाकुर, माहेश्वर तिवारी के नवगीत संग्रह मैंने एक संस्था 'वांगमय विकास' बनाकर प्रकाशित करवाया। रामचंद्र चंद्रभूषण का संग्रह भी प्रकाशित किया जो अस्सी साल के हो गये थे उनका एक भी नवगीत नहीं आया था, जबकि वे शीर्षस्थ नवगीतकार माने जाते हैं। आत्ममुग्धता के विपरीत मैंने यह किया। उससे मुझे व्यक्तिगत घाटा हुआ किन्तु नवगीत विधा को फायदा हुआ।

बुद्धिनाथ मिश्र
जीवन-परिचय
1 मई,1949 को मिथिलांचल में समस्तीपुर(बिहार) के देवधा गाँव में  मैथिल ब्राह्मण परिवार में जन्म। गाँव के मिडिल स्कूल और रेवतीपुर(गाज़ीपुर) की संस्कृत पाठशाला में प्रारम्भिक शिक्षा। वाराणसी के डीएवी कालेज और बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के आर्ट्स कालेज में उच्च शिक्षा। अंग्रेज़ी व हिन्दी में एम.ए.,एम.ए.(हिन्दी),'यथार्थवाद और हिन्दी नवगीत' प्रबंध पर पी.एच.डी. की उपाधि। 1966 से हिन्दी और मातृभाषा मैथिली के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में निबंध,कहानी,गीत,रिपोर्ताज़ आदि का नियमित प्रकाशन। 'प्रभात वार्ता' दैनिक में 'साप्ताहिक कोना', 'सद्भावना दर्पण' में 'पुरैन पात' और 'सृजनगाथाडॉटकॉम' पर 'जाग मछन्दर गोरख आया' स्तम्भ लेखन। देश के शीर्षस्थ नवगीतकार और राजभाषा विशेषज्ञ।मधुर स्वर,खनकते शब्द,सुरीले बिम्बात्मक गीत,ऋजु व्यक्तित्व। राष्ट्रीय -अन्तरराष्ट्रीय काव्यमंचों के अग्रगण्य गीत-कवि। 1969 से आकाशवाणी और दूरदर्शन के सभी केन्द्रों पर काव्यपाठ, वार्ता,संगीत रूपकों का प्रसारण।बीबीसी,रेडियो मास्को आदि से भी काव्यपाठ,भेंटवार्ता  प्रसारित।दूरदर्शन के राष्ट्रीय धारावाहिक 'क्यों और कैसे?' का पटकथा लेखन।वीनस कम्पनी से 'काव्यमाला' और 'जाल फेंक रे मछेरे' कैसेट,मैथिली संस्कार गीतों के दो ई.पी. रिकार्ड और संगीतबद्ध गीतों का कैसेट 'अनन्या'। डीवीडी 'राग लाया हूँ' निर्माणाधीन। 'जाल फेंक रे मछेरे' 'शिखरिणी' 'जाड़े में पहाड़' गीत संग्रह,'नोहर के नाहर' 'स्वयंप्रभ' 'स्वान्त: सुखाय' 'नवगीत दशक' 'विश्व हिन्दी दर्पण' तथा सात मूर्धन्य कवियों के काव्य संकलनों का सम्पादन।'अक्षत' पत्रिका और 'खबर इंडिया' ई-पत्रिका में कर्तृत्व पर केन्द्रित विशेषांक और 'बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता' पुस्तक(सं. डॉ. अवनीश चौहान) प्रकाशित।
अन्तरराष्ट्रीय पुश्किन सम्मान, दुष्यन्त कुमार अलंकरण,परिवार सम्मान, निराला,दिनकर और बच्चन सम्मान।'कविरत्न' और 'साहित्य सारस्वत' उपाधि।रूस,अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, नीदरलैंड, जापान, मारिशस, उज़बेकिस्तान, दक्षिण अफ्रीका, थाईलैंड, सिंगापुर,यूएई आदि अनेक देशों की साहित्यिक यात्रा।न्यूयार्क और जोहान्सबर्ग विश्व हिन्दी सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व। सार्क देशों में बेहद लोकप्रिय कवि। 'आज' दैनिक में साहित्य और समाचार सम्पादन,यूको बैंक,हिन्दुस्तान कॉपर लि. और ऑयल एण्ड नेचुरल गैस कार्पोरेशन(ओएनजीसी) मुख्यालय में वरिष्ठ पद पर राजभाषा-सेवा। सम्प्रति 'स्वयंप्रभा' और 'अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन' के अध्यक्ष। सम्पर्क: देवधा हाउस, 5/2 वसंत विहार एन्क्लेव,देहरादून-248006, फोन: 0135-2767979, मो. 09412992244

प्रश्न :एक विधा से बंध जाना कहां तक उचित है। क्या उसका अतिक्रमण किया जाना चाहिए। आपने किया या नहीं किया और व्यक्तिगत तौर पर उसके बारे में क्या सोचते हैं? उत्तर-मनुष्य हैं और सीमाएं हैं रचनाधर्मिता की सीमाएं। अपने को सकारात्मक है या नहीं
उत्तर: पहली बात है कि हम लोग खुद सीमित हैं। अगर हम नि:सीम नहीं हैं, हमारी सीमाएं हैं। और यदि हमारी सीमाएं हैं तो हमारी रचनाधर्मिता की भी सीमाएं हैं। यदि सीमा न होती तो मनुष्य न होते..ईश्वर होते। ये आपको आइटेंटीफाई करना है कि आप अपने को किस विधा में अच्छी तरह से अभिव्यक्त करते हैं। शुरू में मैंने अखबारों में निबंध लिखे। कभी-कभार गीत भी आ जाया करता था। फिर कहानियां भी लिखीं। रिपोर्ताज लिखे, नाटक भी लिखा। नृत्यनाटिकाएं लिखीं आकाशवाणी के लिए। मंच पर जो मेरा रूप है फ्रंट पर है वह दीख पड़ता है नवगीतकार का। मैंने एक अखबार में दो साल से अधिक समय तक स्तम्भ लिखा, वह भी एक रूप है रचना का। नवगीत में मुझे लगता है कि रचनाकार का लक्ष्य है कम से कम शब्द में अधिक से अधिक अभिव्यक्त कर दे। यह गुण गीत में है। मेरा एक मुक्तक है-'आदमी गुम जायेगा/ उसका पता रह जायेगा/ और नदी के तीर पर/ जलता दिया रह जायेगा। आज तक हमने कहा जो, भूल जायेंगे सभी/याद दुनिया को हमारा, अनकहा रह जायेगा।' यह अनकही बातें गीत में ज्यादा होती हैं इसलिए मैं लिखता हूं। मैंने देखा है एक से एक लोग जो छंदहीन कविता के हैं, सब धराशायी हो जाते हैं..सब अपने को वीर, बामन अवतार ही मानते हैं लेकिन कहीं उनका अता-पता नहीं हैं। आम आदमी उन्हें नहीं जानता। वे अपना ब्रांडनेम जरूर बना लेते हैं। अज्ञेय बड़े कवि हैं पर उनकी कविता कितने लोगों तक पहुंची.. मैं यह प्रश्न पूछना चाहता हूं। उससे अच्छा तो बुद्धिनाथ मिश्र जैसा छोटा कवि है, जिसकी बात अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समाज तक पहुंचती है लेकिन इतने प्रचार के बावजूद अज्ञेय की एक भी पंक्ति आम लोगों तक नहीं पहुंची। मैं वहां पर सार्थक हूं। और किसी की दो-चार पंक्तियां भी जीवित रह गयीं, तो उसका लिखना सार्थक हो गया।
प्रश्न: आपका गीत 'एक बार और जाल फेंक रे मछेरे' बहुचर्चित है। लोग कवि-सम्मेलनों में उसे बार-बार सुनना चाहते हैं। मंच की दुनिया पर लगभग कालजयी कृति मानी जाती है, उसकी रचनाप्रक्रिया के बारे में बतायें। आपकी नजर में उसकी क्या विशेषता है..।
उत्तर: निराला की तरह मैं भी हिन्दी कविता के लिए गैर-पारम्परिक था। मेरी मातृभाषा मैथिली है, प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृत में हुई थी, जिससे संस्कृत के काव्यवैभव को मैं अत्यन्त समीप से निहार चुका था और मेरी स्नातकोत्तर शिक्षा अंग्रेजी साहित्य में हुई थी, जिससे यूरोपीय साहित्य की नवीनतम प्रवृत्तियों की पूरी जानकारी मुझे थी। यह एक दुर्लभ मणि-कांचन संयोग था। जानकी वल्लभ शास्त्री संस्कृत के उद्भट विद्वान थे, मगर अंग्रेजी साहित्य से दूर थे। बच्चन जी अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर थे, मगर संस्कृत में शून्य थे। इसलिए, मेरे गीत भारतीय संस्कारों के साथ-साथ पाश्चात्य तेवर लेकर आये थे। मैं उस समय 20 साल का था। मेरे पास इमेजरी या तो संस्कृत की थी या अंग्रेजी की जो एक खजाना था। उससे मैंने गीत लिखना शुरू किया। मैं उस समय लिखी जब मैं बेरोजगारी के दौर से गुजर रहा था। उस दौर मैंने यह कविता लिखी थी-'एक बार और जाल फेंक रे मछेरे' यह एक सामान्य बात है। कविता दूसरी पंक्ति में है-'जाने किस मछली में बंधन की चाह हो'.. और जो इस चीज को नहीं जानते उन्होंने इसकी प्रतिद्वंद्विता में नकल भी की, नकल भी की तो भोंडी नकल की...हमारे देश की एक अच्छी कवियत्री ने कविता लिखी थी-'जाल फेंकता रहा मछेरा, मछली फंसी नहीं मछली।' .बंधन की चाह और फंसी हुई मछली.. कहां राजा भोज और कहां बुधिवा तेली..उससे प्रेरित होकर छंदहीन कविता भी लिखी गयी..पक्ष-विपक्ष में चर्चा हुई ..विरोध में लिखा गया कि भला कोई मछली फंसना क्यों चाहेगी।...भाई अभिधा में कविता नहीं समझी जा सकती। अभिधा में तो अखबार में कहा जाता है..कविता समझनी हो तो व्यंजना समझनी ही होगी। हमारे सामने करोड़ों श्रोता हैं उसका आस्वाद ले रहे हैं। पहला ही गीत लेकर मैं आया था-'नाच गुजरिया नाच की आयी कजरारी बरसात री ....।' उन दिनों मैं बनारस में रहता था। तभी आचार्य विष्णुकांत शास्त्री बनारस गये थे और प्रसाद जी के घर पर हम मिले थे। पद्मधर त्रिपाठी ने मुझे उनसे मिलवाया था। वे बड़े अच्छे रचनाकार थे। उन्होंने शास्त्री जी से कहा कि यह अच्छा गीत लिखते हैं मैं उन्हें आपको सुनवाना चाहता हूं। प्रसाद जी का एक बड़ा सा अहाता था जिसमें एक शिवालय था, वहीं काव्यपाठ रखा गया। मैंने यही गीत सुनाया था। उन्हें पसंद आया। जो कविता उन्हें पसंद आती थी वह उन्हें याद हो जाती थी। उन्होंने पूछा- 'कहीं छपी तो नहीं है?' जब मैंने बताया कि अभी तो लिखी है छपी नहीं है तो मुझे आदेश दिया-'लिखकर दो।'  उन्होंने वह कविता 'धर्मयुग' में धर्मवीर भारती के पास भेज दी और साथ में यह भी लिखा कि कविता मेरी काशी यात्री की उपलब्धि है। उन दिनों धर्मयुग का चार लाख-पांच लाख सर्कुलेशन था। धर्मयुग में उन दिनों बंगलादेश पर रिपोर्ताज छप रहे थे। छपा तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बिजली सी चमक गयी। 'एक बार जाल और फेंक रे मछेरे' के लिए बुद्धिनाथ को जाना जाता है। बुद्धिनाथ मिश्र के लिए वह गीत नहीं जाना जाता। मेरा नाम ही कुछ ऐसा है कि लोकप्रिय नहीं हो सकता। वो मछेरे वाला गीत ही मेरी पहचान है। उन दिनों जीवन में किसी की एक रचना एक बार धर्मयुग में छप जाये तो अपने रचनाजीवन को सार्थक मानता था। उसमें 20 साल की उम्र में मेरी रचना छपी तो बधाई देने त्रिलोचन शास्त्री मेरे घर आये।
प्रश्न-साहित्य में एक विरोधाभासी प्रक्रिया चल रही है। जो लोग साहित्य को जनता से जोड़ते हैं और लोकप्रिय हैं उन्हें साहित्यकार माना ही नहीं जाता और जो साहित्यकार माने जाते हैं उनकी पहुंच आम जनता तक नहीं है। इस विडम्बना का कारण क्या है? कवि-सम्मेलनों के सदर्भ में क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर-हिन्दी साहित्य का पठन-पाठन कुछ राजनीतिक प्रोफेसरों के चंगुल में फंस कर निष्प्राण हो गया। साहित्य को नेस्तनाबूद कर दिया गया है। जो कविता पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाई जाती है उससे छात्र आतंकित हो जाते हैं। साहित्य छात्रों को आकृष्ट करने के लिए होता है या उन्हें आतंकित करने के लिए। उन्हें बुझौव्वल परोस दिया गया है। हमने पाठ्यपुस्तकों में ऐसी हिन्दी कविता दी जिसने हिन्दी को नयी पीढ़ी से काट दिया है। यदि दोष मढ़ा जाये तो उन प्रोफेसर महामहिम के सिर, जो हिन्दी को मारने वाले कसाई हैं, हिन्दी को चौपट करने वाले। छन्दमुक्त कविता जितना भी आम आदमी का नाम लेती है, आम आदमी उतना ही उससे दूर भागता है। नयी कविता के कवियों को शेखी बघारने या जुगाड़ से पाठ्यपुस्तकों में घुसने के बजाय इस विडम्बना का विश्लेषण करना चाहिए कि आम आदमी क्यों पिछले 70 साल से नीरज की कविताई पर फिदा है, जबकि वे जन सरोकार के कवि नहीं माने जाते। स्कूल-कॉलेजों में कविता का रस लेना सिखानेवाले अध्यापक नहीं रहे। वहां भी नयी कविता के विषधर प्रोफ़ेसर के रूप में कुंडली मारकर बैठे हैं। यूजीसी कवियों को आमन्त्रित कर कविता का रस लेना सिखाने की आवश्यकता नहीं समझती, इसलिए सेमिनार के नाम पर बतकही में लाखों रुपये बहाने का उसके पास प्रावधान है, लेकिन किसी वरिष्ठ कवि को कालेज में बुलाकर कविता पढ़ाने और इस प्रकार बच्चों को कविता से जोडऩे की उसके पास कोई व्यवस्था नहीं है।
उधर, कवि-सम्मेलन के मंचों को शंभुनाथ सिंह, माहेश्वर तिवारी, उमाकान्त मालवीय आदि ने समृद्ध किया था। उन्हें सुनने लोग बड़े चाव से जाते थे। पिछले 25-30 वर्षों में धीरे-धीरे ऐसे गीतकार कुछ कारणों से कम होते गये..उनकी जगह पर चुटकुलेबाज आ गये, वे हास्य-कवि भी नहीं है। वे लतीफों को तोड़कर मंच पर कलाकारी दिखानेवाले हैं..जिसके कारण कविता सुनने के लिए जो श्रोता आते थे, वे मंच से दूर हो गये। कवि-सम्मेलन अब उतने नहीं होते इसके बावजूद हम लोग जाते हैं अपनी शर्तों पर। मैं यह मानता हूं की जो 50 हजार लोगों की भीड़ है उसमें कम से कम एक हजार लोग ऐसे ज़रूर हैं, जो मुझे सुनने आये हैं। और वे कम से कम मुझे साल भर याद रखेंगे। बाकी भूल जाते हैं। कोई तीस साल बाद मिलता है तो कहता है कि मैंने आपको किशोरावस्था में सुना था। कई साल पहले और पाता हूं कि उसे मेरे गीत की कुछ पंक्तियां याद हैं। लतीफेबाज कितनों को याद रहते हैं। लतीफा पहली बार अच्छा लगता है, दूसरी बार सिरदर्द होता है तीसरी बार तो लोग उसे सुनना कत्तई पसंद नहीं करते, वहीं गीतकार को जितनी बार सुनेंगे उतनी बार अच्छा लगेगा। वह ऐसी खटाई है कि जिसमें से रस बंद ही नहीं होता।
प्रश्न: आप गीत विधा की क्या विशेषताएं पाते हैं?
उत्तर-गीत लिखना सबसे कठिन काम है। कम शब्दों में एक केन्द्रीय भाव को तीन-चार अन्तराओं में समेटने के लिए भावावेश भी चाहिए, शब्द-सम्पदा भी और कहन का नयापन भी। गजल में हर शेर स्वतन्त्र होता है, इसलिए वहां मन की एकरसता या लेखनी की अविरलता जरूरी नहीं है। गीत-रचना में गहन अध्ययन, श्रेष्ठ प्रतिभा, विलक्षण दृष्टि और शब्दों की मितव्ययिता आवश्यक है। बात नये बिम्बों-प्रतीकों की हो या नयी शब्दावली की, गीतकार को हमेशा जाग्रत रहना पड़ता है। इसमें धैर्य और संयम का विशेष महत्त्व है।
प्रश्न: गीत की अपनी रचनाप्रक्रिया के संबंध में कुछ बतायें?
उत्तर-मैंने कलकत्ता में प्राइवेट बसों की भीड़ में खड़े रहकर भी प्रेमगीत लिखे हैं-प्यास हरे,कोई घन बरसे। तुम बरसो या सावन बरसे। अपने विश्वविख्यात गीत एक बार और जाल फेंक रे मछेरे/ जाने किस मछली में बंधन की चाह हो में सबसे पहली पंक्ति मैंने चंदा के इर्द-गिर्द मेघों के घेरे/ऐसे में क्यों न कोई मौसमी गुनाह हो लिखी थी। आश्विन का महीना था। इस ऋतु में सड़कों पर कुछ मौसमी गुनाह होते मैंने देखा था। यही तो सब्लिमेशन (उन्नयन) है, जो श्रेष्ठ कविता करती है। किसी कवि के मन में गीत कैसे, किस क्षण जन्म लेता है, इसका पता उसे नहीं होता। किसी विषय में वह गहरे डूबा रहता है या यों ही मटरगश्ती करता रहता है कि कोई पंक्ति उसके मन में कौंधती है, जो गीत का बीज बनती है। बाद में उसी का विस्तार होता है।
प्रश्न: आपने कविता से क्या पाया?
उत्तर-सन 1970 के आसपास बनारस के गोदौलिया चौराहे पर अनेक कवि एक पान की दूकान पर शाम को अड्डा जमाते थे। वहां हम जैसे गीतकवि भी थे और सुदामा पांडेय धूमिल जैसे छन्दमुक्त कविता के पक्षधर भी। सभी अपनी-अपनी नयी कविता सुनाते थे। हम सभी ने अपनी क्षमता और पसन्द के अनुसार अभिव्यक्ति का अपना रास्ता ढूँढ़ा था। आपस में कोई वैमनस्य नहीं था। यह तो तब शुरू हुआ, जब दिल्ली की राजनीति ने साहित्य के आकाश में ग्रहण लगाया। एक प्रकार से, मैं जीवन के हर क्षेत्र में अण्डरपेड रहा, यानी रोज पानी पीने के लिए रोज कुआँ खोदता रहा। वह आजीविका में भी रहा, लेखन में भी। इसके बावजूद मैने कविता से बहुत कुछ पाया। आज मैं जो कुछ हूं, सब कविता की देन है। गीत लिखने का मेरा मकसद ख्याति या पुरस्कार पाना नहीं रहा। यह कुल मिलाकर स्वान्त:सुखाय ही था, मगर जब किसी सुदूर गांव में जाता हूं और वहां अपनी पंक्तियों को लोगों के अधरों पर पाता हूं, तब मुझे गौरव की अनुभूति होती है। एक अच्छा गीत लिखकर जो सुख की अनुभूति मेरे अन्त:करण में होती है, उसके सामने हजारों अलंकरण और पुरस्कार बेकार हैं। जोड़-तोड़ से प्राप्त राजकीय पुरस्कार संवेदनशील व्यक्तियों के मन में ग्लानि ही पैदा करते हैं।
प्रश्न: गीतों से नवगीत किस माने में अलग है?
उत्तर-नवगीत को मैं गीत की ही एक शैली मानता हूं, कविता की नवीनतम प्रशाखा। नगरीय जीवन के वैशिष्ट्य ने ग्रामीण बिम्बों और प्रतीकों को धुंधला कर दिया है। नवगीत में उसी नगर के बोध को महत्त्व दिया गया है। नवगीतकार प्राकृतिक दृश्यों को भी अपने नजरिये से प्रस्तुत करता है। आज का शहरी कवि जिस जीवन को भोग रहा है, उसमें अम्बर पनघट में डुबो रही/ तारा-घट ऊषा नागरी की परिकल्पना असम्भव है। लेकिन सारा देश अभी नगर नहीं बना है। अभी भी भारत की आत्मा गांव में ही बसती है। नवगीत में उसकी अभिव्यक्ति भी हुई है। आधुनिकता शब्द समय-सापेक्ष है; वह हर नये दौर में केंचुल बदलता है। जिस समय आदिकवि वाल्मीकि ने रामायण रची थी,या व्यास ने महाभारत, या कालिदास ने मेघदूत या शुद्रक ने मृच्छकटिक–  सभी अपने समय में नवीनतम और आधुनिकतम थे। इसलिए जीवन-शैली या साहित्य में यूरोप से आयी आधुनिकता को ही आधुनिकता मानना मूढ़ता है। ठाकुर प्रसाद जी के संथाली परिवेश के गीतों में भी गजब की आधुनिकता है। कोई जवाब है प्यार के इस आदिम रंग का? जामुन की कोंपल-सी चिकनी ओ! मुझे छिपा आंचल में/जाड़ा लगता है, क्या भीतर आ जाऊं? इसी प्रकार मेरा एक गीत है-धान जब भी फूटता है गाँव में/एक बच्चा दुधमुंहा,किलकारियां भरता हुआ/आ लिपट जाता हमारे पांव में। यह नवगीत की नवाभिव्यक्ति। इस तरह की नवाभिव्यक्तियों ने ही भारती जी जैसे वरेण्य सम्पादक को गीत का पक्षधर बनाया।
प्रश्न: क्या आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि में साहित्य था? प्रारंभिक प्रभाव के विषय में कुछ बतायें।
उत्तर: मेरा परिवार मैथिल ब्राह्मण परिवार था, सरस्वती का दुलारा और लक्ष्मी का दुत्कारा जो मैथिल ब्राह्मणों की पुश्तैनी पहचान है। परिवार में ही नहीं, पूरे गांव पर संस्कृत का वर्चस्व था। पिताजी ज्योतिष के प्रकांड पंडित थे। वे अत्यन्त भावुक और उदात्त विचारों वाले व्यक्ति थे। गांव में खेती बहुत थोड़ी-सी थी। पौरोहित्य और ज्योतिष-कार्य से ही घर चलता था। पिताजी तीन बजे सबेरे जाग जाते थे और विभिन्न देवी-देवताओं के स्तोत्र पढऩे के बाद विद्यापति-सूर -तुलसी के पद गाया करते थे। उनका कंठ भी बहुत सुरीला था। मुझे भी वे बीच में जगा दिया करते थे। नींद के मारे मुंदी आंखों से पिताजी का संग देते हुए पंक्तिओं को दुहराना पड़ता था। तमाम श्लोक मैंने ऐसे ही उनके साथ गाकर सीखे थे। उन स्तोत्रों के ध्वनि-सौन्दर्य ने मेरे मानस में काव्य के प्रति आकर्षण पैदा किया। बचपन में विद्यापति जैसे महाकवियों के पदों का जो वर्चस्व मैंने अपने समाज पर देखा, उसने मेरे भीतर कवित्व के बीज अंकुरित किये। एक सपना कि मेरे गीत भी इसी तरह लोग गायें। 1957 में लगभग 10 वर्ष की आयु में मैं बड़े भाई पं.विद्यानाथ मिश्र के साथ संस्कृत पढऩे काशी चला आया था। हम लोग दशाश्वमेध घाट के पास किराये के मकान में रहते थे। उस मकान में भाई साहब के और भी कई सहपाठी मित्र रमाकान्त जी, शक्तिनाथ जी आदि रहते थे। सबेरे गंगा स्नान के लिए जाने से पहले वे अपने मित्रों  के साथ, तेल मालिश करते हुए जोर-जोर से हिन्दी के समकालीन गीतों को गाया करते थे। उनके पास नये साहित्यिक गीतों का अच्छा संकलन था। वे संस्कृत के काव्य-मर्मज्ञ थे और उनका स्वर भी हजार में एक था। बाद में हमलोग सूर्यकुण्ड स्थित ब्रह्यर्षि संस्कृत छात्रावास में जाकर रहने लगे। उन्हीं दिनों मैं भक्ति के पद लिखने लगा था। जब मैं 1961 में गाजीपुर जनपद के रेवतीपुर गांव के गुरुकुलनुमा संस्कृत पाठशाला में पढऩे गया, तब मुझे हिन्दी के तमाम नवीन साहित्य से परिचय हुआ। अपनी पाठ्य-पुस्तक जयद्रथ वध के छन्द में मैंने दुर्गा सप्तशती का एक-दो सर्ग काव्यानुवाद भी कर लिया था। 1962 में भारत-चीन युद्ध हुआ, तब मैंने एक कविता लिखी थी-आँखें लाल दिखाते क्यों? मैं बनारस-प्रवास के दौरान ही आज दैनिक की बाल संसद का सदस्य हो गया था जिसमें  बच्चों की कविताएं छपती थीं। उसी सूत्र से मैंने अपनी कविता आज में छपने भेज दी- अवधेश के नाम से.. क्योंकि कविताई वहां विषय से भटकने का पर्याय मानी जाती थी। कोई अध्यापक नहीं चाहता था कि मैं अपने विषय पाणिनीय व्याकरण से भटकूं। वह कविता छप भी गयी, मगर मुझे कोपभाजन नहीं बनना पड़ा। किशोरावस्था में मैंने छायावादी कवियों को बहुत सुना, अध्यापकों के मुंह से। पाठशाला के पुस्तकालय में हिन्दी का विशाल साहित्य उपलब्ध था। मैंने बहुत सारे उपन्यास भी छुप-छुप कर पढ़े थे, जिनका भावनात्मक प्रभाव मुझ पर पड़ा। विद्यापति और तुलसी तो हमारे लिए सर्वव्यापी थे ही, दिनकर जी के अनुसरण में मैने अपना उपनाम छबिकर रख लिया था, मगर इस नाम से कोई कविता नहीं छपी।
प्रश्न: नवगीत विधा का नामकरण किसने किया था?
 उत्तर-नवगीत नामकरण उसी तरह है,जैसे छायावादी काव्य इससे नवगीत गीत -परिवार से पृथक नहीं हो गया। बहुत दिनों तक यही विवाद चलता रहा कि नवगीत नामकरण किसने किया? यह भी कोई विवाद का विषय है? बच्चा किसका है, इसपर तो विवाद हो सकता है; मगर बच्चे का नामकरण किसने किया,इसपर विवाद हास्यास्पद है। राजेन्द्र प्रसाद जी ने यह दावा किया था,मगर शम्भुनाथ जी ने नवगीत को जिस प्रकार परिभाषित किया, वही बाद में सर्वमान्य हुआ। निस्सन्देह, कुछ कमियों के बावजूद, नवगीत दशक अभियान नवगीत धारा के विकास में मील का पत्थर है। इसे समसामयिक काव्य-प्रवृत्ति का प्रथमप्रतिनिधि और आधिकारिक संकलन माना गया है।
प्रश्न:इस संदर्भ में क्या निराला को याद किया जाना चाहिए?
 उत्तर-निराला को नवगीत का प्रथम पुरुष इसलिए माना जाता है कि उन्होंने हिन्दी गीत के परम्परागत छन्द-विधान को तोड़कर नये साँचे बनाने की दिशा प्रशस्त की। वे बंगाल से आये थे और बंगला के समकालीन काव्य-वैभव को हिन्दी में उतारना चाहते थे। वे छन्द से मुक्ति नहीं,छन्द की मुक्ति के पक्षधर थे। वे संगीत कई गहरी समझ रखते थे,इसलिए छन्दों को तोड़कर नये सांचे में ढाल सकते थे। पंत ने भी छंद तोडऩे की कोशिश की, मगर बहर से बाहर हो गये।
प्रश्न :कविता में गीतिकाव्य का क्या महत्व है?
उत्तर:गीतिकाव्य निरन्तर प्रयोगशील काव्यधारा है। छन्द, प्रतीक, बिम्ब और शब्द के क्षेत्र में कुछ नयापन लाने का प्रयास हर गीतकार करता ही है। वैसे गीत में छन्द किसी न किसी रूप में रहेगा ही। यह छन्द संगीत का वह गणित है, जो कविता को आकार-प्रकार देता है।
प्रश्न: छंद तो गज़ल और दोहे में भी होता है?
उत्तर:गज़ल और दोहे हिन्दी कवियों में काफ़ी लोकप्रिय रहे हैं। शेर और दोहे के सांचे लगभग एक से हैं। दो पंक्तियों में एक बात कहनी है। गज़़ल अगर हिन्दी की है,तो उसकी आत्मा भी हिन्दी की होनी चाहिए, अरबी-फारसी की नहीं लेकिन अधिकतर कवि गज़़ल लिखते समय हिन्दी के कवि रह ही नहीं जाते।
प्रश्न :कविता क्या केवल गरीबी के चित्रण से ही महत्वपूर्ण बनती है?
उत्तर: सच्चा कवि जीवन को समग्रता में देखता है। मुझे लगता है कि गरीबों के जीवन की बारीकियों को परखने के साथ-साथ अमीरों के जीवन को भी सहज ढंग से हमें परखना चाहिए तभी दुनिया को समग्रता से देखने का दावा किया जा सकता है। गीतों में लिजलिजी भावुकता आज भी मंचों पर छायी हुई है। इस समय जिन्दगी जितनी परेशानियों से भरी है,उसमें अच्छे प्रेम और शृंगार के साहित्यिक गीतों को संगीतबद्ध कर समाज में प्रस्तुत करने की दरकार है। ऐसे गीत उपलब्ध न होने कारण ही सामान्य लोग फि़ल्मी गीतों की ओर भाग रहे हैं। 

Tuesday 10 September 2013

आंदोलित करती हैं कविताएं : डॉ सिंह


डॉ केदारनाथ सिंह, रामकुमार मुखोपाध्याय, लक्ष्मण केडिया, डॉ शंभुनाथ, प्रियंकर पालीवाल व नंदलाल शाह, एकांत श्रीवास्तव, डॉ अभिज्ञात, डॉ राजश्री शुक्ला, राहुल सिंह.भवानी प्रसाद मिश्र की कविता का विवेक से मूल्यांकन बाकी
साभार - प्रभात खबर, कोलकाता, 8 सितम्बर 2013

पुरुषोत्तम तिवारी, कोलकाता
जी हां मैं गीत बेचता हूं’ भवानी प्रसाद मिश्र की यह कविता बाजारवाद के खिलाफ पहली चोट है. यह पहला काव्यात्मक रूप है. उनकी कविताएं लोगों को आंदोलित करती थी. जब वो कविता पढते तो उनके आंख से आंसू बरबस झरने लगते. उनकी आवाज में ऐसा जादू था कि बात सीधे दिल तक पहुंचती थी. दुर्भाग्य है उनकी कविता को कोई अच्छा आलोचक नहीं मिल सका. विवेक व सहानुभूति के साथ उनकी कविता का मूल्यांकन होना बाकी है. वे कहन शैली के कवि हैं. लिखित व वाचिक कविता के फासले को उन्होंने कम किया है. कवि सम्मेलनों में जहां जाते उनकी आवाज सब पर भारी हो जाती. ये बातें भारतीय भाषा परिषद के तत्वावधान में कवि भवानी प्रसाद मिश्र की जन्मशती समारोह में बीज भाषण देते हुए वरिष्ठ कवि डॉ केदारनाथ सिंह ने परिषद के सीताराम सेकसरिया सभागार में कहीं. डॉ सिंह ने कहा कि मेरा यह सौभाग्य है कि भवानी भाई का स्नेह मुझे मिला. उनके आग्रह पर मैं कवि सम्मेलनों में भी शामिल हुआ. प्रियंकर पालीवाल ने कहा कि डॉ मिश्र की कविता को आज सस्वर पढ.ने की जरूरत है, तभी उनके शब्द बजते हैं और उनके अर्थ खुल कर सामने आते हैं. लक्ष्मण केडिया ने कहा कि कवि के साथ वे एक बडे. मनुष्य भी थे. पहले सत्र की अध्यक्षता करते हुए डॉ शंभुनाथ ने कहा कि भवानी भाई की कविता में अलंकरण नहीं है. उनकी कविता सीधी व सरल है. अपनी बात कहने में सर्मथ्य है. भक्त कवियों की तरह भवानी भाई जिस विषय पर कविता लिखते उसमें डूब जाते. उनकी कविताओं में स्थानीयता की खुशबू बिखरी हुई है. उन्होंने आश्‍चर्य जताया कि आज मनुष्य कविता से नहीं बाजार और राजनीति से जीना सीख रहा है. स्वागत भाषण करते हुए मंत्री नंदलाल शाह ने भवानी प्रसाद  : जैसे मेरे मन में उगे विषय का परिवर्तन करते हुए कहा कि उनकी कविताएं आज भी हमारी चेतना को झकझोरती है. भवानी भाई को गांधीवादी कवि भी माना जाता है. उन्होंने कभी गांधी की आलोचना नहीं की है. पहले सत्र का संचालन श्रद्धांजलि सिंह ने किया. संस्था के मंत्री डॉ कुसुम खेमानी ने अतिथियों का पुष्प गुच्छ देकर सम्मानित किया एवं धन्यवाद ज्ञापित किया.दूसरे सत्र की अध्यक्षता करते हुए डॉ राजश्री शुक्ला ने कहा कि उनके जीवन व साहित्य, प्रकृति और लोक के बीच कोई अंतर नहीं है. मेरी कविता की समझ बनी है उनकी कविता को पढ.के. नयी पीढ़ी को उनकी कविता पढ.नी चाहिए. उनकी कविता को आलोचकीय भाषा में न समझायी जाये बल्कि कविता स्वयं उनके सामने बहे. उपभोक्तावाद के समय भवानी भाई की कविताएं संवेदनाओं को जागृत करने में सक्षम है. कवि व पत्रकार अभिज्ञात ने कहा कि भवानी भाई की सरलता सहज नहीं है. वह विरल है. उन्होंने गांधी के रूप में एक वृहद जीवन मूल्य और आदर्श को पा लिये थे. ये बातें उनकी कविताओं में दिखती है. एकांत श्रीवास्तव ने कहा कि मिश्र जी वस्तुत: लोक मन के कवि हैं और कुलीनता के सारे तामझाम से बाहर हैं. राहुल सिंह ने कहा कि उनकी कविताएं आज भी हमारे लिए प्रासंगिक हैं. दूसरे सत्र का संचालन पीयूष कांत राय ने किया. इस मौके पर विश्‍वंभर दयाल सुरेका, निर्मला तोदी, सीमी तलवार, सेराज खां बातिश सहित अन्य गणमान्य लोग मौजूद थे.

Wednesday 4 September 2013

वृत्त्तांत से बढ़कर


साभार: द पब्लिक एजेंडा
15 सितम्बर 2013


अपनी गज़लों के लिए भी अलग से पहचाने जायेंगे महेंद्र शंकर

समीक्षा

-डॉ.अभिज्ञात

पुस्तक का नाम-मतला अर्ज़ है/लेखक-महेंद्र शंकर/प्रकाशक-प्रज्ञा प्रकाशन, 1/सी/4 शिमला शतघड़ा रोड, एक्सटेंशन रिसड़ा, पो.-प्रभास नगर, जिला-हुगली-712249/मूल्य-60 रुपये 

सुपरिचित नवगीतकार महेंद्र शंकर 'मंदिर में शंख बजे' के प्रकाशन के साथ खासे चर्चित हुए थे। इस संग्रह के लिए उन्हें उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ का पुरस्कार भी मिला था। उनके मरणोपरांत उनकी गज़लों का संग्रह आया है-मतला अर्ज़ है। इस संग्रह से उनके काव्य व्यक्तित्व को एक नयी आभा और एक और विशिष्ट पहचान बनती है। उनके प्रशंसकों के लिए यह संग्रह एक नायाब उपहार है। अपने समय की लोकप्रिय पत्रिका 'वासंती' के जरिए उन्होंने साहित्यकारों की एकाधिक पीढ़ी तैयार की थी, जो न सिर्फ़ उनके सम्पादन से रचनात्मक ऊर्जा प्राप्त करती रही, बल्कि मार्गदर्शन भी पाया। उन्होंने 'त्रिविधा' पत्रिका का भी सम्पादन किया था। इस प्रकार अपनी रचनात्मक मेधा से उन्होंने साहित्य की सेवा भी की और साहित्य कर्म को संजीदगी से लेने वालों की जमात भी तैयार की। उन्हीं के एक शेर से यह बात कही जाये तो-'चूम ले एक खार हौले से। पूरी टहनी गुलाब हो जाये।'
महेंद्र जी के योगदान की चर्चा करते हुए प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह का कहना है कि 'नयी कविता के समय के कवि महेंद्र लोक जीवन के सभी पक्षों को उजागर करने वाले प्रगतिशील चेतन के अकेले तेज कवि थे।..लिखना तो उन्होंने 1950 के बहुत पहले से शुरू किया था लेकिन 1957 से नवगीत के एक समर्थ कवि के रूप में उन्हें स्वीकृति मिली।' महेंद्र शंकर के रचनात्मक योगदान की चर्चा करते हुए कवि शलभ श्रीराम सिंह ने कहा है कि महेंद्र के गीत लोक शिल्प व लोक शब्द तथा लोक बिम्बों के कारण अति बौद्धिकता से बच गये हैं। वहीं मृत्युंजय उपाध्याय का मानना है कि उनके नवगीतों में भाव, विचार, बुनावट, भाषा के नये शब्दों का प्रयोग तथा बिम्बों का बड़ा ही अद्भुत मगर सहज प्रयोग हुआ है।
महेंद्र शंकर ने लगातार अपनी रचनात्मक परिधियों का विस्तार किया और नयी रचनात्मक चुनौतियों से लोहा लेते रहे। उन्होंने कहानियां, $गज़लें और मुक्त छंद की कविताएं भी लिखीं। उनकी बहुत सी रचनाएं पुस्तकाकार प्रकाशित नहीं हैं। यह सुखद है कि उनके रचनाकार सुपुत्र एस आनंद ने उनकी गज़लों के इस संग्रह के प्रकाशन का उपक्रम किया और आशा है वे उनकी अन्य कृतियों को भी प्रकाशित कराने का बीड़ा उठायेंगे।
मौजूदा संग्रह में महेंद्र जी की गज़लों में मौसम की चिन्ता रेखांकित करने योग्य है। उनके कई शेरों में यह व्यक्त हुई है, यथा- 'मौसम का क्या मिजाज है, कुछ कह नहीं सकते/किस ओर का परवाज है कुछ कह नहीं सकते। कितनी गरज, तड़प है आकाश के भीतर/किस पर गिरेगी गाज कुछ कह नहीं सकते।' एक अन्य $गज़ल का शेर देखें-'मौसम के मन में चोर, फूल अनखिले रहे/ हर ओर अजब शोर फूल अनखिले रहे।' 
महेंद्र की गज़लों में भले उर्दू शब्दों को भी प्रयोग हुआ है किन्तु उनकी भावभूमि और मुहावरेदारी हिन्दी कविता की ही है। इस मामले में वे दुष्यंत और चंद्रसेन विराट, नीरज जैसों की परम्परा में हैं-'एक परिचित स्वर विजन में पास आ जाये तो क्या हो/साथ का छूटा मुसाफिर साथ पा जाये तो क्या हो। पेड़ से लिपटी हुई है छांह बेसुध चांदनी में/चांद पर यदि बादलों का रंग छा जाये तो क्या हो।' एक अन्य गजल़ की बानगी देखें- 'इतना वक्त कहां है कि तुमसे बात करें/बिना नैवेद्य चलें और बारात करें। नरसी मेहता की तरह हममें चमत्कार नहीं/गर्म जल शीत करें, जर की बरसात करें।' महेंद्र जी की गज़लों में मौजूदा वक्त की विसंगतियां भी व्यक्त हुई हैं और नर्म खयाल भी। धड़कता हुआ दिल भी है और टीस और विरह भी। संग्रह में अन्नामलाई पर्वत पर लिखी गयी रुबाइयां अलग से पाठक का ध्यान आकृष्ट करती हैं।

Monday 2 September 2013

साहित्य व भाषा पर संवाद

संवाद गोष्ठी की औपचारिक शुरूआत के पूर्व बातचीत करते बाएं से कथाकार विजय शर्मा, पत्रकार-लेखक डॉ.अभिज्ञात, कथाकार सिद्धेश, आलोचक व कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ.अमरनाथ एवं भारतीय विद्या मंदिर तथा भारतीय संस्कृति संसद के अध्यक्ष डॉ.विट्ठलदास मूंधड़ा
कोलकाता : भारतीय विद्या मंदिर की ओर से भारतीय संस्कृति संसद में शनिवार की शाम आयोजित मिलन गोष्ठी में संस्था के अध्यक्ष डॉ.विट्ठल दास मूंधड़ा ने कार्यक्रम में विशेष तौर पर संम्बोधित किया। उन्होंने साहित्येतर विषयों पर हिन्दी में लिखी किताबों की कमी के प्रति लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। अरुण माहेश्वरी ने कहा कि एक ही समय में अलग-अलग विचार समय मेंं लोग जीते हैं। जाग्रत मनुष्य ही समाज को आगे ले जाता है। गोविंद फतरहपुरिया ने ऐसे साहित्य के सृजन पर जोर दिया जो लोगों की जुबान पर पैठ सके। शारदा फतरहपुरिया कहा कि युवाओं से संवाद स्थापित करने के प्रयास किये जाने चाहिए ताकि उन्हें ठीक तरह से समझा जा सके। डॉ.अमरनाथ हिन्दी की स्थित पर चिंता जाहिर की और कहा कि बोलियों के भाषा बन जाने से हिन्दी कमजोर होगी। उन्होंने कहा कि अध्ययन आज टीम वर्क हो गया है और इतना कुछ छप रहा है कि किसी एक के बूते का नहीं है कि वह सब पढ़कर बता सके कि कहां क्या अच्छा लिखा जा रहा है। पढऩे वाले आपस में अच्छे लिखे की चर्चा कर सकते हैं। सिद्धेश ने कहा कि पत्रिकाओं के सम्पादक अब लेखकों को बहुत महत्व नहीं देते। प्रकाशनार्थ मिली रचना की बावती की बात तो दूर उसके प्रकाशन की स्वीकृति या उसके बाद उसके प्रकाशित हो जाने तक की जानकारी कई बार नहीं देते।
डॉ.शंभुनाथ ने संवादहीन की भयावहता की चर्चा की। उन्होंने कहा कि लोगों के पास दूसरे से सीधे संवाद के लिए समय नहीं है।
 लक्ष्मण केडिया ने कहा कि चौपाल अंदाज में आयोजित इस तरह के कार्यक्रम को बड़े स्तर पर किया जाना चाहिए।
डॉ.अभिज्ञात ने कहा कि आज के आधुनिक होते दौर में मनुष्य एकेला होता जा रहा है और इस अकेले होते जाते व्यक्ति का सबसे बड़ा सहारा साहित्य बनेगा। लोग अपने पड़ोसी और पास रह रहे मित्रोंं से बात भले न करें किन्तु वे इंटरनेट पर एक समाज तलाश करते हैं उनसे चैट करते हैं और एक आभासी दुनिया में अपने को लोगों से जुड़ा पाते हैं। ऐसे लोग जल्द ही साहित्य में अधिक दिलचस्पी लेने लगेंगे।
 डॉ.सोमा बंद्योपाध्याय ने अपनी भाषा को बचाने के प्रयास पर जोर दिया और कहा कि अंग्रेजी के बदले अपनी भाषा को प्राथमिकता देनी चाहिए। तारा दूग्गड़, काली प्रसाद जायसवाल,  सेराज खान बातिश ने भी सभा को सम्बोधित किया। राजीव हर्ष ने कहा कि अखबारों में साहित्य इसलिए कम प्रकाशित होता है क्योंकि पाठकों की दिलचस्पी उसमें कम है। यदि लोग उसे पढऩा चाहेंगे तो अखबार जरूर छापेंगे। डॉ. गीता दूबे, डॉ.वसुंधरा मिश्र, विजय शर्मा, विद्या भंडारी,रतन शाह आदि भी कार्यक्रम में विशेष तौर पर उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन वैचारिकी के सम्पादक डॉ.बाबू लाल शर्मा ने किया।
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