Wednesday 15 May 2013

समय सापेक्ष नैतिकताओं का सृजन

समीक्षा-डॉ.अभिज्ञात
साभारः आलोचना, जुलाई-सितम्बर 2013
लावण्यदेवी/लेखिका-कुसुम खेमानी/प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन प्रा.लि., 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002/मूल्य-300 रुपये

'लावण्यदेवी' डॉ.कुसुम खेमानी का पहला उपन्यास है जिसमें लेखिका ने एक जीवन दर्शन प्रस्तुत किया है, जो व्यवहारिकता पर आधारित आध्यात्म का पथ है। यह जीवन की एक नयी राह का अन्वेषण है जिसमें अपने सुख-दुख के साथ-साथ परोपकार भी शामिल है। राग और विराग की एक विलक्षण संधि इस उपन्यास में मिलेगी, जो पाठक को जीने का एक नया सलीका देती है। यह विवेकवाद पर आधारित पथ है, जो सिर्फ त्याग नहीं सिखाता बल्कि त्याग का नया अर्थ और वैकल्पिक मार्ग देता है। यह उस व्यवहार से मिलता-जुलता है जो वारेन बफे ने शुरू किया है, जो अपनी मेधा और श्रम से कमाई दौलत का एक बड़ा हिस्सा लोकहित में खर्च करने को सार्थक मानता है।
अपने जीवन के उत्तरकाल में संन्यासी सा जीवन जीते हुए अपने समर्थकों से एक जगह लावण्यदेवी कहती है-'हमें भी जीवन में दुनियादारी निबाहते हुए उच्चतर मूल्यों के लिए काम करना चाहिए। देह के धर्म को उसका प्राप्य देते हुए मनुष्य जब अपने विवेक से काम करता है, तो आधिभौतिक तत्त्व आधिदैविक तत्त्वों की प्राप्ति में अड़चन नहीं डालते। फलस्वरूप हमारे मन, वचन तथा कर्म तीनों ही सुंदर हो जाते हैं।... अपनी देह से प्रेम करते हुए उसका प्रयोग लक्ष्य-प्राप्ति की सीढ़ी की तरह कीजिए।' (पृष्ठ 77)  उपन्यास की गति तेज है। इसमें धीमे-धीमे घटित होता जीवनक्रम नहीं है, बल्कि कई पीढिय़ों के अनुभवों को एक दूसरे के बरअक्स देखने का उपक्रम है। इसमें पिछड़ी पीढ़ी कई बार नयी पीढ़ी से सीखती है तो वहीं बड़ी सहजता से बिना किसी दबाव के नयी पीढ़ी को बहुत कुछ सीखाती है। मामूली लगते अनपढ़ और अनगढ़ पात्र भी उच्च शिक्षा प्राप्त पात्र को बिना कहे सिखाते हैं। यह उपन्यास एक तरह से कई पीढिय़ों और कई वर्गों के बीच वैचारिक विमर्श और उनमें सामंजस्य की महती भूमिका निभाता है। किसी एक विचार को सायास थोपने या किसी विचार सूत्र को पात्रों के माध्यम से लादने की कोशिश इसमें नहीं मिलती बल्कि तमाम विचारों को आमने-सामने रखकर व्यावहारिक पथ निकालने की कोशिश दिखती है। आम सहमति बनाने का प्रयास हर जगह है। इस उपन्यास में जगह-जगह समाज में समझे समझाये और लगभग रूढ़ हो चुके आदर्शों को बौना करते विमर्श मिल जायेंगे। उपन्यास दरअसल जीवन का एक खंड नहीं अपितु पूरा एक जीवन होता है अपनी तमाम खूबियों और खामियों के साथ। मनुष्य की जय-पराजय, उत्थान-पतन, राग-विराग, लोभ और त्याग के प्रश्नों को यह उपन्यास पूरी शिद्दत से उठाता है और उसे एक विशेष अन्वति तक पहुंचाता है। लावण्यदेवी उपन्यास एक बंगाली सम्पन्न परिवार से जुड़ी पांच पीढ़ी के लोगों की गाथा है जिसमें उनके उत्थान-पतन, कार्यशैली, रहनसहन और सोच के ढर्रे को उसकी पूरी बनावट और बारीकियों से साथ चित्रित किया गया है। लेकिन जिस चीज पर लेखिका का फोकस है वह है धनवान लोगों का सामाजिक योगदान। धन का लोकहित में उपयोग। अब तक पूंजी का शोषणमूलक स्वरूप ही साहित्य में मुख्यतौर पर प्रस्तुत किया जाता था। धनवान की और अधिक धनवान होने की होड़, उसकी ओर से गरीब और मजबूर लोगों का किया जाता आर्थिक शोषण। यह उपन्यास पूंजी के सामाजिक योगदान को रेखांकित करता है और दौलतमंद लोगों के बारे में रूढ़ विचारों को बदलता है। पूंजी के इर्द गिर्द रहने वालों के उदात्त चरित्र को उजागर करता है। इस प्रकार साहित्य की दुनिया में एक नया प्रयोग इस उपन्यास में है। सम्पन्न परिवार के आदर्शवादी कई युवा और बुजुर्ग पात्र इस उपन्यास में अलग-अलग तरीकों से समाजसेवा और जनहित के कार्यों में अपने जीवन को खपा देते हैं या फिर अपनी कमाई का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसे कार्यों के लिए दान कर देते हैं। उदात्त पात्रों में स्वयं कथानायिका लावण्यदेवी के अलावा नशाखोरी उन्मूलन से जुड़ी प्रियंवदा भी है, जो एक तमिल वैभवशाली खानदान की बेटी और दूसरे वैभवशाली खानदान की बहू है।
समाजसेवा के कार्य में बुजुर्ग और प्रौढ़ लोग ही नहीं हैं युवा भी हैं। लावण्यदेवी की प्रेरणा से उनकी युवा पौत्रियां मंजुलिका और मालविका भी समाजसेवा के कार्यों में जुट जाती हैं, एक ने नशा उन्मूलन के कार्यों में अपने को जोड़ा तो दूसरी ने सोनागाछी की वेश्याओं की समस्याओं के निवारण में। उपन्यास में समाज कल्याण और सुधार की दिशा में सक्रिय लोगों की विश्वस्त दास्तान है। लावण्यदेवी की नानी भी ऐसे ही कार्यों से जुड़ी थी। उपन्यास का यह रुझान और मिशन से जुड़े पात्रों की समाज सुधार की परिकल्पनाओं के कारण प्रेमचंद का 'सेवासदन' नारी चरित्र के उत्कर्ष के संदर्भ में यशपाल के 'दिव्या' जैसे उपन्यासों की याद दिलाता है। तिक्त अनुïभव इस उपन्यास में लगभग नहीं हैं क्योंकि पात्रों के अंदर की खामियां उनके समूचे व्यक्तित्व को नहीं ढक पाती हैं, उनमें कहीं न कहीं पछतावा है जो अपनी परिधि तोड़कर समाज सुधार के व्यापक विमर्श से जुड़ जाता है। जीवन की उदात्तता की ओर जाता यह उपन्यास कई मूल्यों को एक साथ साधता है और अपने बहुआयामों के साथ इसकी अर्थवत्ता को प्रकट करता है। एक जगह कुसुम जी कहती हैं-'सांस्कृतिक और सामाजिक एकता की इससे बड़ी परिकल्पना और क्या हो सकती थी कि एक आदमी अपने व्यक्तित्व में अपने संस्कार, अपनी भाषा, अपने उच्चारण, अपने रीति रिवाज आदि समेटे हुए धुर विपरीत प्रदेश में आकर उस स्थान के संस्कारों को स्वयं में और स्वयं के संस्कारों को उस स्थानीय समाज में समावेशित कर उत्कृष्ट मूल्यों की स्थापना करे। एक संस्कृति की दूसरी संस्कृति में घालमेल, यह बिखरे भारत की अखंडता के लिए भी अनिवार्य थी।' (पृष्ठ- 92)
रांग साइड आफ द बेड् वाले नाजायज रिश्तों से लेकर गे और लेस्बियन सम्बंधों की भी इस उपन्यास में चर्चा है किन्तु इन सम्बंधों को हिकारत से नहीं देखा गया है बल्कि उसके व्यावहारिक पहलुओं के साथ उसके उजले पक्ष को ही लेखिका सामने लाती हैं। अपनी बात कहने के लिए जगह जगह लोककथाओं और पौराणिक प्रसंगों का बखूबी प्रयोग उन्होंने किया है। भाषा परिष्कृत और आध्यात्मिक और वैचारिक पहलुओं को उजागर करने में समर्थ है। आध्यात्मिकता की व्याख्या करते हुए उन्होंने एक जगह कहा है-'साधारण आदमी के लिए स्वयं से और मेरे-तेरे की ममता से ऊपर उठकर नाम, यश और अर्थ लाभ की कामना किये बिना दूसरों के लिए कोई अच्छा काम करना क्या अध्यात्म नहीं है?' (पृष्ठ 97) शिक्षा की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा है-'शिक्षा का सबसे बड़ा लाभ यह है कि शिक्षा आदमी के व्यक्तित्व को विस्तार देती है और वह जीवन की ओछी क्षुद्रताओं से ऊपर उठकर स्वयं का और दूसरों का विकास करना चाहता है।' (पृष्ठ 87) यह उपन्यास वृहत्तर अर्थों में समय सापेक्ष नैतिकताओं का सृजन है। जो लोग यह मानकर चलते हैं कि यह समय घोर अनैतिकताओं का है और हर मूल्य टूट कर बिखर रहे हैं, उन्हें यह जरूर पढऩा चाहिए। क्योंकि इस उपन्यास में यह अहसास बराबर बना रहता है कि हर नयी पीढ़ी अपने समय के साथ कुछ पुरानी पड़ गयी नैतिकताओं से असहमत होती है तथा कई बार उन्हें सीधे-सीधे खारिज कर देती और कई बार उनके साथ मजबूरन समझौता कर उन्हें केवल ढोती है। उसे लगता है कि कुछ मूल्य और नैतिकताएं पुरानी पीढ़ी ने जबरन उस पर थोपे हैं। लावण्यदेवी परवर्ती काल में नैतिकताओं व जीवन मूल्यों को समय की कसौटी पर कसती है और उनमें आवश्यतानुसार बदलाव और नयेपन को अपनाने को तत्पर हो जाती है। इससे कई पीढिय़ों के बीच एक सेतु बनता है जिसकी आज आवश्यकता है। यदि पुरानी पीढ़ी अपनी ही धारणाओं को अंतिम मानकर उसी पर अड़ी रहती है तो वह नयी पीढ़ी के लिए बोझ बन जाती है। लेखिका ने बड़ी खूबी के साथ आज के उन मूल्यों को तलाश किया है जो नयी पीढ़ी के लिए लगभग अप्रासंगिक हो चले हैं, उसमें बदलाव की आवश्यकता को सहजता से स्वीकार किया है। यदि समाज नये मूल्यों को भी स्वीकारने को तैयार हो तो वह अनैतिक समय में जीने की कुंठा से मुक्त हो सकता है। दरअसल नैतिकताएं समय सापेक्ष होती हैं और नयी चुनौतियों के अनुसार यदि उनमें बदलाव होता रहे तो उसकी स्वीकार्यता भी बढ़ेगी और समाज का जो विखंडित रूप हमें दिखायी दे रहा है उस पर से धुंध छंट जायेगी। पुराने मूल्यों की कसौटी पर यह जो पतित लगता समय है उसे नये मूल्यों के आलोक में देखने पर समाज का कुछ स्वस्थ चेहरा भी नजर आयेगा। यह ठीक है कोई भी साहित्य अपने समय की आलोचना के आधार पर श्रेष्ठता का दावा करता है किन्तु वह साहित्य उससे कमतर कतई नहीं माना जाना चाहिए जो समय की आलोचना के नये मानदंडों का सृजन करे। कुसुम खेमानी की यह कृति जोखिम उठाकर भी यह करती है, जिसके लिए इसे अलग से याद किया जाना चाहिए। यह उपन्यास जितना अध्यात्म सम्बंधी प्रश्नों से जूझता है उतना ही सामाजिक ताने-बाने की खामियों-खूबियों को लेकर भी चिन्तित है। यहां अध्यात्म का ताल्लुक परलोक से नहीं बल्कि व्यक्तित्व के आंतरिक विकास और आत्म-निरीक्षण से है।
लावण्यदेवी कोलकाता के सोनागाछी इलाके से लेकर सुदूर गांव व पहाड़ों के जीवन की तमाम समस्याओं को हल करने के लिए जगह जगह स्वयंसेवी संस्थाएं बनाकर उसमें समर्पित स्वयंसेवकों को मुस्तैद करती चलती है। उन्हें सामाजिक कार्यों के लिए पैसे की कोई कमी नहीं होती। हमखयाल लोग उनके प्रति समर्पित होते रहते हैं। उनके व्यक्तित्व के जादुई प्रभाव के कारण कई युवा अपना जीवन उनके महान उद्देश्यों के लिए समर्पित करने को तैयार हो जाते हैं। ये युवा तमाम आधुनिक संसाधनों से लैस हैं और अंतर्राष्ट्रीय स्तर उनकी पहुंच हैं जहां से वे तमाम जनहितकारी योजनाओं का लाभ लोगों तक पहुंचाने की सीढ़ी तैयार करते हैं। मोहम्मद यूनुस की माइक्रो बैंकिंग के महत्व को यहां स्वीकार किया गया है जिसने बांग्लादेश जैसे गरीब मुल्क में महिलाओं को केंद्र में रखकर छोटे ऋण देने की पहल की गयी।
 गांधीवादी तरीकों से उन्हें गुरेज नहीं है ना ही सुंदरलाल बहुगुणा के सामाजिक उत्थान के काम-काज के तौर तरीकों से। फिर भी यह काम इन दिनों समाजसेवा में जुटे उन सामाजिक कार्यकर्ताओं से भिन्न है, जो सेवा में दिलचस्पी कम रखते हैं और उनका एकमात्र काम भ्रष्टाचार को उजागर करना है। वे अव्यवस्था के खिलाफ तो मुखर तो हैं पर इसे ही अपने काम की इतिश्री मान बैठे हैं। उनकी राजनीतिक और व्यावसायिक महत्वाकांक्षाएं समय-समय पर उजागर होती रहती हैं। शुक्र है कि आज के सोशलाइटों की तरह लावण्यदेवी राजनीति में नहीं जाती बल्कि क्रमश: जीवन के उस शिखर पर पहुंचती है जहां जीवन की तमाम उत्कंठाएं तिरोहित होती जाती हैं। वह कहती है-'तुम लोग अभी ज्ञानमार्गी हो इसलिए विवेकसम्मत तर्क प्रस्तुत करोगे पर मैं अब भक्तिमार्ग की पथिक बन गयी हूं। जिसमें सारे तर्क-वितर्क से ऊपर केवल पूर्ण श्रद्धा और पूर्ण समर्पण होता है। वहां एक ही सत्ता राज्य करती है वह है-प्रेम।' (पृष्ठ 121) प्रारंभिक जीवन में वैभवपूर्ण जीवन जीते हुए और उच्चशिक्षा ग्रहण करने के बाद क्रमश: सामाजिक जीवन और फिर वैराग्य की ओर उन्मुख लावण्यदेवी की गाथा भारतीय मानस की एक ऐसी गाथा है जिसे एक श्रेष्ठ व सार्थक जीवन का मॉडल कहा जा सकता है। इसमें कहीं भी त्याग अतिशयोक्ति नहीं लगता न ही आदर्श ओढ़े हुए। एक महिला के बेहतर जीवन का क्रमिक विकास इसमें है और यह उपन्यास भी क्रमश: नयी ऊंचाइयों को छूने में समर्थ हुआ है। लावण्यदेवी अपने जीवन काल में ही लोगों की प्रेरणा का केंद्र नहीं बनी रही बल्कि उनकी मृत्यु के बाद वे अपने पीछे अपने आदर्शों पर चलने वाले असंख्य लोगों को छोड़ जाती है। वह पारिवारिक व सांसारिक सुख सुविधाओं से ऊपर उठकर समाजसेवा व अध्यात्म के पथ पर चलकर एक अलौकिकता अर्जित करती है। उपन्यास के कथानक का यह लगभग अप्रत्याशित मोड़ है जिसमें एक ठोस लगता चरित्र अपनी मृत्यु के बाद कतिपय अलौकिक घटनाओं के साथ अपनी रहस्यमय उपस्थिति के साथ मिथ में बदल जाता है।

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