Sunday, 13 May 2012

क्या आपने सुनी है भूत के मुंह से लव स्टोरी!

समीक्षा





पुस्तक-प्रेम की भूतकथा/उपन्यास/लेखक-विभूति नारायण राय/ प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ, 18 इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-110003/ प्रथम संस्करण-2009/तृतीय संस्करण-2012मूल्य-150 रुपये





'प्रेम की भूतकथा' में कथानक को जिस दिलचस्प ढंग से व्यक्त किया गया है वह पाठकों को आद्योपांत एक बैठक में उपन्यास खत्म करने को प्रेरित करता है। एक बार इसके भूतों के कार्य-व्यवहार के बारे में आप जान लेते हैं तो फिर उनसे किसी प्रकार के भय की सृष्टि नहीं होती। यह लेखक की सफलता है कि भूत के मैत्रिपूर्ण व्यवहार को उन्होंने आद्योपांत बरकरार रखा है। भूतों के बारे में हमारी प्रचलित धारणाओं के उल्टे कई बार तो भूत मनुष्य को अपने से अधिक शक्तिशाली मानने लगते हैं। एक भूत कहता है कि मनुष्य का कोई ठिकाना नहीं, वह कुछ भी कर सकता है। सीमाएं तो हमारी हैं। इस उपन्यास में भूतों के सम्बंध में हमारी धारणा को बदलने की महत्वपूर्ण भूमिका उन्होंने निभाई है और कई बार हमें यह तक यक़ीन होने लगता है कि भूत वास्तव में होते होंगे और वह भी उतने ही मैत्रिपूर्ण जितना विभूति जी ने दर्शाया है। अपने पाठक को अपने भरोसे में ले पाना एक बड़ी बात है। समाज में व्याप्त मिथकों व अंधविश्वासों के एक बेहतर सफल और सार्थक प्रयोग के लिए यह उपन्यास अलग से जाना जायेगा।
यह भूत का प्रकरण भी है जो इस उपन्यास महज मर्डर मिस्ट्री या जासूसी उपन्यास बनाने से रोकता है। इसमें नायक के सहायक कोई और नहीं भूत हैं। यह कल्पना और फैंटेसी की नयी उड़ान है जिसमें लेखक कामयाब है। सच तक पहुंचने के कई रास्ते हो सकते हैं और जो रचनाकार सच तक पहुंचने की जो विधि और मार्ग चुनता है वही तय करता है कि उसकी रेंज क्या है, दूसरे यह कि जो भी उपकरण उसने सच तक पहुंचने के लिए चुने हैं उसका इस्तेमाल किस हद तक और कितनी सफलता से करता है। कोई दूसरा होता तो एक ही भूत से काम चला लेता और अलादीन के जिन्न की तरह लगभग सर्वशक्तिमान बनकर अपने मालिक की तमाम मागों को पूरा कर देता, किन्तु इसमें एकरसता का खतरा हो सकता था दूसरे इसमें भूत की सीमाएं तय करके लेखक ने भूतों की कार्यप्रणाली और सीमाओं और संभावनाओं का एक शास्त्र तैयार कर दिया है। उपन्यास में कहा गया है-‘भूतों में किस्सगोई की रिले परम्परा है, कम से कम मेरे भूतों में तो है ही। रिले रेस के धावकों की तरह वे अपना हिस्सा दौड़ चुकने के बाद कथा दूसरे व्यास को थमा देते हैं। विशेष बात यह है कि हर व्यास किसी कथावाचक की तरह इस तरह कथा कहता है कि लगता ही नहीं कि कोई कथा टुकड़ों में कही जा रही है।’ (राय, विभूति नारायण, प्रेम की भूत कथा, भारतीय ज्ञानपीठ, तीसरा संस्करण, 2012, पृष्ठ 77)
लेखक चाहे तो भूतों का उपयोग अपनी अगली कई रचनाओं में सिक्वल उपन्यासों में कर सकता है। उपन्यास की दुनिया में हैरी पोटर के सिक्वल उपन्यासों की चर्चा अभी बहुत मंद नहीं पड़ी है। हमारी कामना है कि भूत उनके इसी उपन्यास के भूत बनकर न रह जायें और इस तरह के उपन्यास और आयें। कम से कम लोग यह जानना चाहेंगे कि इस उपन्यास में जो कत्ल हुआ है उसका कातिल कौन था?
‘प्रेम की भूतकथा’ में विभूति जी ने तीन-तीन भूतों को उपस्थित किया है जो निकोलस, कैप्टन यंग और रिप्ले बीन के हैं। यह भूत कथानक को आगे बढ़ाते और उसका विस्तार करते हुए उसे तर्कसंगत निष्पत्तियों तक पहुंचाते हैं। पाठक को हमेशा लगता है कि कोई बहुत बड़ा कारण, कोई बहुत बड़ी मज़बूरी रही होगी जो नायिका अदालत में या पुलिस को यह नहीं बताती कि हत्या के समय तो उसका प्रेमी उसी के पास था, जो उसके निर्दोष होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। पाठक को यह जानकर और सदमा लगता है कि वह बड़ी मज़बूरी केवल विक्टोरियन नैतिकता की थी। यहां यह छोटा सा कारण ही व्यापक अर्थों में एक बड़ा कारण बनता है जिसका फलक देश की सीमाओं और काल का अतिक्रमण कर पान में सक्षम है। यह नैतिकता का मुद्दा ही इस घटनाक्रम को आज भी पहले जितना ही प्रासंगिक बनाये रखता है। किसी भी समय में समाज की बनावट और उस में व्याप्त नैतिकताओं का बंधन इतना जटिल और कठोर होता है कि मनुष्य अपने को दोराहे पर पाता कि क्या करे, क्या न करे? नैतिकताओं के बंधन ने समाज का जितना विनाश किया है उतना तो अनैतिक कार्य करने वालों ने भी नहीं किया। समाज को दिशा देने के नाम पर थोपी गयी नैतिकताओं के हाथों कितने ही प्रेमियों के अरमानों का खून होता रहा है। आज का समय उससे एकदम जुदा नहीं है। आज भी थोथी नैतिकता और आनर किलिंग के मामले रोज देखने-सुनने को मिलते हैं। हर समय किसी न किसी रूप में कोई खाप पंचायत या जातीयतावादी बिरादरी के ठेकेदार रहते हैं, जिससे समय के प्रेमियों को लोहा लेना पड़ता है।
यूं भी कोई उपन्यास केवल कथानक के आधार पर जासूसी उपन्यास नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि लेखक की इसमें एकदम दिलचस्पी नहीं दिखायी देती की वास्तव में हत्यारा कौन था। उसका अभिप्राय वहीं हल हो जाता है जहां पता चलता है कि नायक एलन हत्यारा नहीं है। और उसकी प्रेमिका को यह पता होते हुए भी कि वह निर्दोष है उसके पक्ष में गवाही देकर उसकी जान नहीं बचाती क्योंकि वह उस समय के नैतिकतावादी बंधनों से जकड़ी हुई थी। ‘हम जान तो दे देंगे पर रुसवा न करेंगे।’ यही स्थिति नायक की भी है जो अपने को बार-बार निर्दोष करार देने के बावजूद किसी भी कीमत पर पुलिस या अदालत को यह नहीं बताता कि वह हत्या के समय किसके पास था, किसके शयनकक्ष में। यदि वह बता देता तो उसकी ज़िन्दगी बच जाती। यह प्रेम के लिए किया गया बलिदान था, जो नैतिकता के कारण दिया गया था। दोनों ही अपने समय की नैतिकता के बंधन में बंधे रहते हैं और अपने प्रेम को बदनाम नहीं होने देते। विक्टोरिया के वक्त में एक लड़की के लिए यह क़बूल करना कि विवाह के पहले किसी मर्द के साथ सोयी थी, बहुत मुश्किल था।
फ़ादर कैमिलस के सामने अपने दोस्त जेम्स के हत्याभियुक्त सार्जेन्ट मेजर एलन ने कहा था, ‘आप जिसे प्यार करते हैं उसे रुसवा कर सकते हैं क्या?’ मिस रिप्ले का भूत स्वीकार करता है, ‘लड़की कायर थी। कितना चाहती थी कि चीखकर दुनिया को बता दे कि एलन हत्यारा नहीं है पर डरती थी।’
‘प्रेम की भूतकथा’ एक घटना-क्रम पर आधारित है जो एक शताब्दी पहले मसूरी के माल रोड पर एक केमिस्ट की दुकान में काम करनेवाले जेम्स की हत्या पर केन्द्रित है। जिसके आरोप में उसके दोस्त एलन को 1910 में फांसी हुई थी। किन्तु जेम्स की क़ब्र पर अंकित यह वाक्य ठीक नहीं था, ‘मर्डर्ड बाई द हैंड दैट ही बीफ्रेंडेड’। इसकी वास्तविकता का पता एक पत्रकार लगाता है वह भी भूतों के माध्यम से। यह उपन्यास एक नाटकीय रोचकता के साथ शुरू होता जिसमें एक पत्रकार को असाइनमेंट दिया जाता है ऐसी हत्याओं के बारे में लिखने का, जो पिछली शबाब्दी में हुई थीं पर उनकी गुत्थी अनसुलझी रह गयी। अदालत ने अभियुक्तों को फांसी तो दे दी लेकिन लोगों के मन में यह शक बना रहा कि जिन्हें फांसी पर लटका दिया गया, वे सचमुच हत्यारे थे। अखबारों की उलजुलूल होती कार्यप्रणाली, अखबारों के प्रकाशन का उद्देश्य और नजरिये से यह उपन्यास पाठकों को दो-चार कराता है। उसमें न सिर्फ कटाक्ष और व्यंग्य है बल्कि वस्तुस्थिति को पेश करने की लियाकत भी। अखबार के काम-काज का ही जीवंत चित्रण लेखक ने नहीं किया है बल्कि कई और दृश्य हैं जिन्हें बारीक से बारीक नोट्स के साथ पेश किया है, जैसे कोई पटकथा हो। यह कहने में कोई हिचक नहीं कि डिटेल्स भी इस उपन्यास में उतने ही रोचक और महत्वपूर्ण हैं, जितना कथानक का ताना-बाना। तत्कालीन समय में अग्रेजी सेना के भारत में कामकाज का तौर-तरीका और सैन्य परिदृश्य, गोरखा पलटनों का इतिहास, तत्कालीन मसूरी का भौगोलिक पर्यावरण, सेना का टीम के साथ काम करने का रवैया और उससे अधिकारियों का जुड़ाव इसमें अपने पूरे ब्यौरे के साथ उपस्थित है और पाठक इन सबको अपनी आंखों देखे सच की तरह महसूस कर सकता है। यह साफ तौर पर दिखता है कि लेखक को पाठक को किसी खास बिन्दु पर पहुंचाने की हड़बड़ी नहीं है। वह इतमीनान से पूरे दृश्य को पाठक तक पहुंचने देता है और कई जगह पूरे दृश्य में नाटकीय तनाव पैदा करता है।
उपन्यास का 'हार्स टेस्ट नट के नीचे प्रेम' अध्याय इस लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण है। है तो यह कल्पना पर आधारित लेकिन कल्पना को वास्तविकता का पुट देने वाले डिटेल्स के साथ पेश करने का हुनर विरल है। यहां हमें सुरेन्द्र वर्मा के उपन्यासों के डिटेल्स और कल्पनाशीलता याद आती है जिसका प्रभावशाली प्रयोग उन्होंने 'मुझे चांद चाहिए' में किया है। इस संदर्भ में विभूति जी के इस उपन्यास की एक बानगी देखें- ‘तार खिंचे, कुछ इस तरह से खिंचे कि लगभग टूट गये। जुगलबंदी द्रुत हुई, मद्धम हुई और धीरे-धीरे स्थिर हो गयी। दोनों शरीर एक दूसरे में गुंथे खामोश पड़े रहे हार्स चेस्ट नेट के छतनार तरख्त के नीचे। ऊपर गुच्छों में खिले हार्स चेस्ट नट के फूलों के नीचे और झरे पत्तों से भरी धरती के ऊपर, निरावरण, थोड़ी दूर जल रही आग की गर्मी से ऊष्मा हासिल करते हुए।’ (प्रेम की भूत कथा, पृष्ठ 123)
इसी प्रकार तीन भूतों में से दो भूत उपन्यास के बाहर भी हमारा पीछा नहीं छोड़ते। कैप्टन यंग का भूत जो अपनी मौत के बाद भी लगातार अपनी पलटन के जवानों के लिए चिन्तित है और रिप्ले बीन का भूत जो प्रेम की करुण गाथा सुनाते हुए रो पड़ता है। सचमुच विभूति नारायण राय की रचनात्मकता ही है, जो भूत तक को भी रुला दे।
इतिहास व तथ्यों के साथ कल्पना मिलाकर जिस औपन्यासिक रचाव का परिचय विभूति जी ने दिया है वह प्रेम कथाओ के इतिहास में एक मील का पत्थर है। इस उपन्यास में भूत का जो नया वर्जन विभूति जी ने प्रस्तुत किया है वह अत्यंत संवेदनशील और ह्यूमन फ्रेंडली है। उसे मनुष्य की शक्ति पर भी भरोसा है और उसके प्रति सदाशयता है। एक भूत कहता है-'तुम इनसान हो और मुझे पता है कि इनसानों के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है।' (प्रेम की भूत कथा, पृष्ठ 101) उसके होने में अपने होने को वह तलाश करता है। सबसे बड़ी बात यह है कि वह उन लोगों का साथ आसानी से पा जाता है, जिन्हें उसके अस्तित्व पर भरोसा नहीं है। वह विश्वासों की तिजारत नहीं करता और उसका फायदा नहीं उठाता, आज के साधु-संतों और प्रवचन देने वाले बाबाओं की तरह कि यदि आपको भरोसा नहीं है, विश्वास नहीं है तो हमारे दरवाज़े पर मत आना। यदि भरोसा नहीं है तो ईश्वर की अनुकम्पा से दूर रहोगे और कुछ भी न पाओगे। विभूति जी के भूत उनके साथी बन जाते हैं जिन्हें उनके अस्तित्व पर भरोसा है-‘यदि आप निश्छल मन से भूत की संगत मांगें और आप भी मेरी तरह उसके अस्तित्व में यक़ीन न रखते हों तो आपको भी भूत की दोस्ती सहज उपलब्ध हो सकती है।’ (प्रेम की भूत कथा, पृष्ठ 24)
हमारे तमाम संशयों को नकारते हुए ये भूत नफासती अवश्य हैं तुनक मिजाज भी हैं पर वे हिंस्र नहीं हैं। वे मनुष्य पर वार नहीं करते। वे मनुष्य की कई बुराइयों से भी मुक्त हैं। भूतों के इस नये रूप को देखकर मुझे इस समय के सबसे महत्त्वपूर्ण कवि केदारनाथ सिंह का 'बाघ' याद आता है। उन्होंने बाघ शृंखला की कई कविताएं लिखी हैं। केदारनाथ जी का बाघ भी हिंस्र नहीं है। वह मनुष्य का हमदर्द बनकर आता है, जिससे लोग नहीं डरते, इन भूतों की तरह ही -'और अगले दिन शहर में/फिर आ गया बाघ/एक बार दिन दहाड़े/एक सुंदर/आग की तरह लपलपाता हुआ बाघ/न कहीं डर न भय/सुंदर बाघ एक चलता -फिरता जादू था/ जिसने सब को बांध रखा था/वह लगातार चल रहा था/ इसलिए सुंदर था/ और चूंकि वह सुंदर था इसलिए कहीं कोई डर था न भय।' ..'(सिंह, केदारनाथ, बाघ, भारतीय ज्ञानपीठ 1996, पृष्ठ 57)
और केदार जी का बाघ भी विभूति के भूत की तरह रोता है। यह नया रुपांतर है, नया स्वभाव है बाघ और भूत का-'एक दिन बाघ/ रोता रहा रात-भर/ सब से पहले एक लोमड़ी आयी/ और उसने पूछा/ रोने का कारण/ फिर खरगोश आया/ भालू आया/ सांप आया/ तितली आयी/ सब आये/ और सब पूछते रहे/ रोने का कारण/ पर बाघ हिला न डुला/ बस रोता रहा/ रात भर/ प्यास लगी/ वह रोता रहा/ भूख लगी/ वह रोता रहा/ चांद निकला/ वह रोता रहा/ तारे डूबे/ वह रोता रहा/ कौआ बोला/ वह रोता रहा/ दूर कहीं मंदिरों में/ बजने लगे घंटे/ वह रोता रहा..'(बाघ, पृष्ठ 31/33)
विभूति जी का भूत भी रोता है-‘मैं पहली बार ऐसे भूत के सामने बैठा था जो धीरे-धीरे सुबक रह था। हालांकि आंखें अब भी उसकी सूखी थीं। मैं जानता था कि आंसू मनुष्यों को मिली सौगात है। बदकिस्मत भूतों के ऐसे नसीब कहां कि उनकी आंखों से आंसू टपकें। x x x पर भूत रोता। यह भी मेरे जीवन का विलक्षण अनुभव था-आंसुओं से तर झुर्रीदार चेहरा। आंसुओं से भींगते ही चेहरे का खुरदुरापन न जाने कहां ग़ायब हो गया। एक स्निग्ध, कोमल, कातर चेहरा कुछ कहने के लिए व्याकल था।’ (प्रेम की भूत कथा, पृष्ठ 142)
जिस प्रकार केदार जी ने हमारे समय के मिथ से खेलते हुए उसका नया रूप प्रस्तुत किया है उसी प्रकार विभूति जी भी भूत के मिथ को किसी हद तक बदलते हैं। विधाओं के अन्तर के बावजूद दोनों समय की भयावहता से आक्रांत नहीं होते और मिथकों को खंगालते हुए उससे एक नया संदेश मनुष्य जाति के लिए लेकर आते हैं। बाघ और भूत दोनों की चिन्ता के केन्द्र में मनुष्य है। यह व्यापक साहचर्य का मामला है, जो अलग से व्याख्या की मांग करती है। साहित्य और करता क्या है यही न कि साहचर्य बने। वस्तु जगत का प्राणिजगत से। पशु और मनुष्य में। विभूति जी केवल वरिष्ठ पुलिस अधिकारी और शिक्षाविद् या साहित्यकार ही नहीं रहे हैं वे एक सोशल एक्टिविस्ट भी हैं, इसलिए उनकी सोच के प्रत्येक आयाम को वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाना चाहिए। भूत के मुंह से एक लव स्टोरी सुनने का मेरा पहला अनुभव था जो विरल था और मन में देर तक घूमती रहता है इसका शिल्प, इसके मिथक और इसका कथानक। क्या आपने सुनी है भूत के मुंह से लव स्टोरी?

2 comments:

  1. पुस्तक रोचक लग रही है डाक्टर साहब, लेकिन दाम तो बताईये| हम ठहरे खालिस हिन्दुस्तानी, वजन और दाम देखकर ही खरीदेंगे:)

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  2. रोचक समीक्षा, लगता है किताब पढना पड़ेगी।

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