Sunday, 20 June 2010

कलात्मक सुगढ़ता व कथ्यात्मक औदर्य के कविः अज्ञेय


(7 मार्च, 1911-4 अप्रैल, 1987)
जन्मशती वर्ष पर विशेष
अज्ञेय हिन्दी कविता में एक ऐसे बहुआयामी हस्ताक्षर का नाम है जिसकी गहन-गंभीर काव्य-यात्रा एक धैर्यपूर्ण विवेचन की मांग करती है। उनमें जहां कलात्मक सुगढ़ता है वहीं कथ्यात्मक औदर्य भी। उनकी वाम विरोधी अस्तित्ववादी अवधारण सदैव ही प्रगतिशील काव्य-यात्रा से रगड़ खाती हुई भी अपने वैशिष्ट के कारण मूल्यवान और अर्थपूर्ण बनी रही। अपने जीवन-काल में ही अज्ञेय एक मिथक और चुनौती दोनों एक साथ बने रहे तथा उनका प्रभाव हिन्दी-काव्य जगत में सहज स्वीकारणीय रहा। उनकी गहन अध्ययनशीलता और रचनात्मक क्षमता सदैव ही ईर्ष्या की वस्तु रही और सुखद आश्चर्य की भी। अज्ञेय की चिन्तनशीलता और विचार पर सार्त्र, अल्बेयर कामू आदि के वैचारिक चिन्तन का व्यापक प्रभाव रहा, फिर भी अज्ञेय उतने ही परम्परावान हैं जितने कि आधुनिक। यही अन्तर्विरोध उनके व्यक्तित्व को सम्मोहक और रहस्यमय बनाता रहा। कन्हैयालाल नन्दन उनके बारे में लिखते हैं-'कैसी विडम्बना रही है कि एक ओर उनकी रचनाधर्मिता को नये मूल्य गढ़ने में भंजक की भूमिका निभानी पड़ी है तो दूसरी ओर उनके निबन्धों की अनेक पंक्तियों में परम्परा को नये सिरे से पुनर्जीवित करने की ललक का प्रतिबिम्बन भी है।' (कन्हैयालाल नंदन, नवभारत टाइम्स, दिल्ली, 5 अप्रैल 1987)
अज्ञेय ने कविता में उस समय प्रवेश किया जब प्रगतिशील काव्य-धारा ने सिर्फ़ स्थापित थी, बल्कि कविता का पर्याय थी। छायावादी कवि पूर्णतया नकारे जा चुके थे। हर प्रकार के व्यक्तिवादी मूल्यों पर शोक प्रस्ताव स्वीकृत हो चले थे। प्रगतिशीलों में एक नया रूमानवाद था। आदर्शवादी रूमानवाद, जो यथार्थ के रूप में पहचाना जा रहा था। उनकी कविताओं में जोश था, अतिरिक्त उत्साह था, क्रांतिकारी चेतना थी, बुर्जुआ और पूंजीवादी तत्त्वों से लोहा लिया जा रहा था, श्रमिक और किसान जन-नायक थे किन्तु इन सब ख़ूबियों के बावज़ूद बहुत कुछ था, जो गौण था, जो कविता को कविता रहने देने में बाधक था। यहां कला गौण थी। इस कविता में प्रतिबद्धता कम थी, उसका प्रदर्शन अधिक था। कविताएं मार्क्स का वैचारिक काव्यानुवाद भर होकर रह गयीं। समाज सर्वोपरि था। व्यक्ति की आशा-आकांक्षा गौण ही नहीं हेय थी। यह काव्य-युग कला और उसमें व्यक्ति के ह्रास का रहा।
अज्ञेय के पास इन दोनों ख़ामियों का पूरक तत्त्व था। कला और व्यक्ति अज्ञेय की मूल स्थापनाएं बनीं। काव्य-कला के स्तर पर सबसे अधिक प्रयोग हिन्दी साहित्य के इतिहास में रीतिकाल के पश्चात अज्ञेय के रचना-प्रभाव काल में हुए। विवादों के बावज़ूद यह कमोबेश स्वीकार किया जाता है कि प्रयोगवादी काव्य-धारा के प्रवर्तकों में अज्ञेय की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। उन्होंने न सिर्फ़ सप्तक काव्यों का सम्पादन किया बल्कि आलोचना क्षेत्र में प्रयोगवाद का औचित्य सिद्ध करते हुए उसके महत्त्व व वैशिष्ट को रेखांकित किया। वे उसकी सीमाएं भी जानते थे, अतः शीघ्र ही नयी कविता के आन्दोलन से भी जुड़े और उसमें बहुत कुछ जोड़ा। अपने व्यापक अध्ययन और सतत रचनाशीलता के कारण यह हो पाया। आधुनिकता की दृष्टि से अज्ञेय अग्रदूत कहे जा सकते हैं। अज्ञेय ने क्षण के महत्त्व को स्वीकार कियो, जो क्षणिकता का निषेध करती है और यह नयी कविता की केन्द्रीय दृष्टि रही-
'यह सूरज का जपा-फूल
नैवेद्य चढ़ चला
सागर-हाथों
अम्बा सांस-भर
फिर में यह पूजा-क्षण
तुम को दे दूंगा
क्षण अमोघ है, इतना मैंने
पहले भी पहचाना है
इसलिए सांस को नश्वरता से नहीं बांधता
किन्तु दान भी है, अमोघ, अनिवार्य,
धर्मः
यह लोकालय में धीरे-धीरे जान रहा हूं
(अनुभव के सोपान!)
और
दान वह मेरा तुम्हीं को है।' (.अज्ञेय, कितनी नावों में कितनी बार, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, पांचवां सस्करण, 1986, पृष्ठ 16)
अज्ञेय की कविताओं में व्यक्ति की सत्ता सर्वोपरि है। उसके हर्ष, विषदा, मनोकामनाएं, उसका प्रेम, सब कुछ महिमामण्डित और चिन्तनीय है। व्यक्ति के मन में घटने वाली छोटी-से-छोटी उद्विग्नता सृष्टि और समाज की बड़ी-बड़ी घटनाओं से कत्तई कम नहीं। अज्ञेय की साधना व्यक्ति के रूप में सत्य को पाने की है। शुभ और सुन्दर व्यक्ति और उसकी कामनाओं का ही नाम है। 'अपने अद्वितीय होने का अहंकार उन्हें एक ऐसा गहरा और समृद्ध आत्मविश्वास देता है कि दुनिया की हर चीज़ को वे अपनी निजी कसौटी पर कसकर ही ग्रहण या व्यक्त करना चाहते हैं।'(राजेन्द्र यादव, व्यक्ति युग का समापन, वैचारिकी, सम्पादकः मणिका मोहनी, अप्रैल-जून 1988, पृष्ठ 69)
'दरअसल अज्ञेय जी व्यक्तिवाद नहीं, व्यक्तित्ववाद के लेखक हैं। स्वयं के व्यक्तित्व की स्थापना को उन्होंने सबसे ऊपर रखा। परम्परा, संस्कृति या विचारधारा, हर जगह उनका संघर्ष एक नियामक या कम से कम प्रथम प्रस्तावक की हैसियत बनाने का है। प्रयोग हो या प्रचलन, प्रथमता उनकी पहली शर्त रहीxxxxमैं उनके व्यक्तित्व का सबसे मुख्य तथ्य है। गीता के 'मैं' में तो 'हम' को कोई स्थान नहीं, क्योंकि वह व्यक्ति का विराट् है। अज्ञेय जी का 'हम' उनके 'मैं' का ही व्यक्तिगत विस्तार है। संस्कृति, समाज, देश और काल की बड़ी से बड़ी चिन्ता करते हुए भी अज्ञेय जी स्वयं के व्यक्ति का अतिक्रमण नहीं, सिर्फ़ विस्तार करते रहे हैं।' (शैलेश मटियानी, काल चिन्तक की अकाल यात्रा, वही, पृष्ठ 61)
अज्ञेय की कविता में शून्य और मौन की उपस्थिति बराबर है, जो विस्मयकारी और हिन्दी कविता में प्रायः अनुपलब्ध है। उनका चुप वाचकता से अधिक कहता जान पड़ता है। वह चुप्पी कहे जाने के समानान्तर उपस्थित है, जो कहे जाने से रह जाया करती है या अकथनीय ही बने रह जाने को अभिशप्त है। इस उपक्रम में मौन सन्नाटा कहने का उपक्रम है। अतिरिक्त अर्थ व्यंजकता और रहस्यमयता के साथ, अलौकिक सा। वर्षों पहले की उनकी एक कविता है-'मुझे तीन दो शब्द कि मैं कविता कह पाऊं-इन तीन शब्दों की खोज में उनकी कविता मौन की ओर बढ़ती हुई कविता है। पहला शब्द वह जो जिह्वा पर लाया न जा सके, दूसरा वह जो कहा तो जा सके पर दर्द से ओछा ठहरता हो और तीसरा खरा शब्द वह, जिसे पाकर यह प्रश्न उठाया जा सके कि क्या इसके बिना काम नहीं चलेगा? अर्थात् वे तीन शब्द जिनसे गुजर कर अन्ततः मौन रहा जा सके।' ( डॉ.सुमन राजे, शब्द से मौन तक की यात्रा, वही, पृष्ठ 63)
अज्ञेय की कविता में मौन, सन्नाटे व एकान्तिकता में एक गहरी उदासी छिपी है, जो उनकी अधिकांश कविताओं में झांक-झांक जाती है। उनकी कविताओं में प्रकृति प्रमुख रूप से उनके रागात्मकता के आलम्बन के लिए ही आयी है किन्तु उस पर जहां कहीं भी स्वतंत्र रचना है, वहां वे उस पर रीझें हैं मगर इस रीझ में एक रहस्यमयता है। उनकी कविता में अकेलापन है मगर असहाय अकेलापन नहीं, दम्भ में दिप्त अकेलापन जिसका मामूलीपन भी उसकी खासियत है। उसकी घुटन, निराशा, शंका, कुण्ठा, स्व-केन्द्रियता सब कुछ निरा अपना और स्वाभाविक है। अपने मन की गांठें खोलना, गुत्थियां सुलझाना, आत्मविश्लेषण, यह सब कुछ कविता की ऐतिहासिक और प्रारंभिक जरूरत उन्हें हमेशा महसूस होती रही। उनकी कविता अनेकायामी यथार्थ की तहों की कविता है। यह सच है कि उनमें भावात्मक या संवेदनात्मक अन्तःक्रियाओं से अधिक बौद्धिकता है। स्वर इतना संयमित की आवेग, आक्रोश या संघर्षशीलता उभर नहीं पायी है मगर शिल्प का संतुलन अपनी प्रभविष्णुता से सदैव प्रभावित करता है चाहे वह लम्बी कविता 'असाध्य वीणा' हो या छोटी कविताएं, जो 'हाइकू' शैली में लिखी गयी हैं। अपने मितकथन में गहन वैचारिकता, दार्शनिकता का जैसा प्रयोग वे करते हैं वह एक किस्म के मिथक की सृष्टि करता चलता है। अज्ञेय का काव्य संवेदना से नहीं, बौद्धिकता से अनुशासित है और उसी परिप्रेक्ष्य में उनकी कविता पर विचार समीचीन होगा।
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