साभारः कुरजां संदेश, , प्रवेशांक-मार्च अगस्त 2011हिन्दुस्तानी संगीत के ग्वालियर घराने को जिन्होंने नयी ऊंचाइयां दी हैं उनमें एक महत्वपूर्ण नाम है उस्ताद अब्दुल राशिद खान का। तानसेन की 24 वीं पीढ़ी के इस गायक ने उम्र की बंदिशों को धता बताते हुए एक सौ दो बसंत ही नहीं देखे बल्कि वे इस उम्र में बंदिशें लिखते और उनकी धुन तैयार करते हैं और मंचों पर अपनी गायकी के फन का लोहा भी मनवा लेते हैं। इस उम्र में भी न तो उनकी आवाज़ पर उम्र ने अपनी कोई छाप छोड़ी है और ना ही होशोहवास पर। शरीर की झुर्रियां, सफेद लखदख बाल अलबत्ता उनकी उम्र की गवाही देते हैं लेकिन इस बात का प्रमाण भी देते हैं कि वे उम्र की सीमाओं का अतिक्रमण कर रहे हैं।
सम्पादकीय सलाहकार-ईशमधु तलवार/ सम्पादक-प्रेमचंद गांधी, ई-10, गांधीनगर, जयपुर-302015, मूल्य-100/-
उनके जीवन इस बात की मिसाल है कि उम्र से कोई बूढ़ा नहीं होता। और सौ की उम्र भी कुछेक असमर्थताएं जरूरत पैदा करती है लेकिन हर तरह से लाचार नहीं बनाती। वे अब भी संगीत के साधकों को रोजाना संगीत की चार-पांच घंटे तालीम देते हैं और वे मानते हैं कि इस दरम्यान उनका अपना रियाज़ भी होता चलता है। उनका उच्चारण अब भी बिल्कुल साफ है और आवाज़ बुलंद, जो ग्वालियर घराने की गायकी की विशिष्ट पहचान है।
ग्वालियर घराने की गायकी की विशेषता बताते हुए वे कहते हैं ग्वालियर घराने की गायकी में शब्दावली की स्पष्टता पर बहुत ज़ोर दिया जाता है। दूसरी विशेषता है खुली आवाज़। वे बताते हैं यह विशेषताएं मुझे भी विरासत में मिली हैं। मैं भी अपने पूर्वजों की तरह ध्रुपद धमार गाता था। लेकिन जब ध्रुपद लुप्त होने लगा तो खयाल की ओर आ गया। मैं ध्रुपद धमार गाता हूं, खयाल, ठुमरी, टप्पा, दादरा भी।
लम्बी उम्र के सम्बंध में पूछने पर वे कहते हैं इसमें मेरा अपना कोई योगदान नहीं है। मैं एक सामान्य दिनचर्चा में ही जीता हूं। मेरे परिवार में लोगों ने अमूमन लम्बी उम्र पायी है। मेरे वालिद ने 92 साल की उम्र पायी थी, मेरे दादा 104 के थे, परदादा 107 के। मेरी भाभी 110 तक गयीं। यह ईश्वरीय देन है। हमारी सांसों का रखवाला अल्लाह है।
उस्ताद खुद ही बंदिशें लिखते हैं और उन्हें रागों में ढालते हैं। जैसी की शास्त्रीय संगीत की परिपाटी है उन्होंने भी ब्रजभाषा में ही अपनी बंदिशें लिखी हैं जिनमें से हज़ार बंदिशों को उन्हीं की आवाज़ में संगीत रिसर्च एकेडमी ने रिकार्ड किया है। कुछ बंदिशों को बीबीसी लंदन ने भी रिकार्ड किया है। उन्होंने अपनी बंदिशों को नाम दिया है रसन पिया।
उन्होंने बताया कि मेरे पूर्वजों में से मेरे परदादा उस्ताद चांद खान ने चार लाख बंदिशें लिखीं तैयार की थीं, इसलिए यह मेरे परिवार में नया काम नहीं है। मैं बचपन में रचता और उन्हें सुनाया करते, फिर उन्होंने ही हमारा नाम रख दिया—रसन और कहा कि बंदिशों में डाला करो लेकिन शब्द ऐसे हों कि राग का चेहरा ही सामने आ जाये।
नया काम किया है मेरे पौत्र ने। तानसेन के बाद हमारे वंश में पीढ़ी दर पीढ़ी गवैये ही पैदा हुए पर मेरे पौत्र अपवाद है। मेरा बेटा रईस खान भी गाता है किन्तु मेरा पौत्र बिलाल खान का तबले की ओर रुझान है पर हमने ऐतराज़ नहीं किया।
गुरु शिष्य की परम्परा का ज़िक्र छिड़ने पर उन्होंने बताया कि हमारे खानदान में किसी को बाहर से संगीत सीखने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। हमारी वंश परम्परा में यह इल्म सीना ब सीना आया। ये हुआ कि बेटा हमेशा बाप से अच्छा हो और अच्छा न हो तो बराबर तो हो..।
पहले की महफिलों में संगीत सुनने वाले संगीत के जानकार होते थे। रियासतों में वास्तविक कद्रदानों की महफिल में गायन होता था। कोई गवैया ग़लत गाता था तो वहीं उसी वक्त़ रोक कर कहा जाता था ऐसे नहीं ऐसे। लेकिन अब तो म्यूज़िक कन्फ्रेंस होते हैं गाने वाला गा लेता तो लोग तालियां बजाकर छुट्टी पा लेते हैं कोई ग़लती पर उंगली नहीं रखता। सीखने का ढर्रा यह निकल आया है कि किसी का कैसेटे या सीडी लगा लिया। खीसने की ज़रूरत नहीं। उसी की नकल उतार ली और गाने बैठ गये।
पिछली यादों में खाते हुए उस्ताद कहते हैं कि भारतीय संगीत के अंग्रेज़ भी कायल थे। नेहरू जी ने अपने एक भाषण में कहा था कि हिन्दुस्तान से अंग्रेज़ बहुत कुछ ले गये लेकिन संगीत नहीं ले जा पाये। जिस आदमी को संगीत से लगाव नहीं वह बगैर दुम का पशु होता है।
संगीत रिसर्च अकादमी से अपने सम्बंधों के बारे में वे कहते हैं मैं यहां बीस साल से हूं। देश में यही एक संस्थान है जहां गुरु-शिष्य परम्परा चल रही है। होनहार लोगों को यह एकादमी अपना शिष्य बनाती है और यहीं रहकर जब तक वह योग्य नहीं बन जाता संगीत सिखाया जाता है। यहां तो डायरेक्टर हैं रवि माथुर वे गुणियों के कद्रदान हैं। वरना मैं तो उत्तर प्रदेशे के रायबरेली के सलोन का रहने वाला हूं। सलोन पहले कस्बा हुआ करता था अब तो शहर जैसा हो गया है। अपने घर का रास्ता पहचानना मुश्किल होता जा रहा है। वहीं के दरगाह शरीफ में मैंने गुरुमंत्र लिया और हाजी हाफिज मौलाना हजरत शाह मोहम्मद नईम ? साहब सलोनी की दुआ से मैं कुछ भी हूं, हूं।
वे कहते हैं मेरे वालिद को लगता था कि मैं गा बजा नहीं पाऊंगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मेरी संगीत का तालीम बाईस साल चली।
अपने शिष्यों में जिन्हें वे जिक्र लायक समझते हैं वे हैं शुभमय भट्टाचार्य, पम्पा बनर्जी, पियाली मलाकार, रूपाली कुलकर्णी और डॉ.हेमराज चंदेल।
तानसेन की अपनी खानदानी परम्परा के बारे में पूछने पर वे बताते हैं कि तानसेन किसी का नाम नहीं बल्कि उपाधि है जो अकबर बादशाह ने दी थी। वाकया हूं है कि ग्वालियर के राजा राम गौड़ थे। वहीं के थे मकरंद पाण्डेय जो हजरत गौस ग्वालियरी की पड़ी सेवा करते थे। पाण्डेय जी की कई गायें थीं सो वे हजरत को दूध मुफ्त में रोज पहुंचा दिया करते थे। एक रोज हजरत ने पूछा पाण्डेय तुमने बहुत सेवा की बोलो मुझसे क्या चाहते हो?
पाण्डेय जी की उम्र हो गयी थी 72 के आसपास। उन्होंने कहा बाबा सब कुछ है मेरे पास पर संतानहीन हूं। हजरत ने दुआ की और बाबा को संतान हुई। सात बरस बीते। बाबा ने एक दिन पूछा सब खैरियत तो है, पाण्डेय जी ने कहा बाबा, औलाद तो हुई लेकिन वह बोलता ही नहीं है। बाबा उस समय फल खा रहे थे वही जूठा फल बच्चे को पकड़ा दिया और बच्चे ने जो पहला शब्द कहा वह था बाबा।
पाण्डेय जी पहले तो खुश हुए फिर कहा आपने इसे अपना जूठा खिला दिया अब आप ही इसे अपने पास रखो। बालक उन्हीं के पास रहने लगा। उसे मुसलमान बनाया गया नाम रखा गया-अली खां। वह ज़माना बाबा हरिदास स्वामी का था, जो वृंदावन में रहते थे। एक बार वे यहां हजरत गौस ग्वालियरी से मिलने आये। बालक को देखा तो कहा इसे हमें दे दीजिए हम इसे संगीत सिखायेंगे। बालक अली खां उनके साथ कई बरस रहे। संगीत की परम्परागत तालीम ली। जब पारंगत हो गये तो उनसे कहा गया कि अपनी विद्या को दुनिया में फैलाओ। फिर लौट आये। वे रीवां नरेश की गोविन्दगढ़ रियासत में मुलाजिम हुए। उस समय बादशाह अकबर संगीत के प्रेमी थे। वे एक बार रीवां नरेश के यहां आये तो उन्होंने उनका गाना सुना और उन्हें रीवां नरेश से मांग लिया। बादशाह अकबर ने उन्हें तानसेन की टाइटल दी और उन्हें अपना नवां वजीर बनाया। तानसेन के चार बेटे हुए-रहीम सेन, सूरत सेन, तानतरंग और बिलासखान। उस्ताद अब्लुल राशिद खान बताते हैं हमारे वंश का सिलसिला सूरत सेन से चला।
सूरत सेन के चार बेटे थे-कमाल रंग, जमाल सेन, अहमद शाह और रुस्तम खान। उस समय प्रतापगढ़ रियासत में कोई गायक नहीं था। राजा की बुआ ग्वालियर में ब्याही थीं। राजा कालाकांकर वहां से चारों गवैयों को अपने यहां ले आये। जिनमें से दो मानिकपुर के राजा ताजसुख हुसैन के यहां चले गये। जब रियासतें खत्म हुई तो बाकी दो भी मानिकपुर से बी मिल सलौन आ गये। हमारी परम्परा सलोन से जुड़ गयी। सलोन रायबरेली जिले में है। वे कहते हैं कि रायबरेली जिला सोनिया गांधी का क्षेत्र है मैं जल्द ही उनसे मिलूंगा और गुजारिश करूंगा का सलोन में एक संगीत विद्यालय बनाने का इन्तज़ाम वे करवायें।
उस्ताद कहते हैं इस प्रकार मेरा पितृपक्ष हिन्दू और मातृपक्ष मुसलमान है। एक साझी विरासत हमारी है। यह पूछने पर कि संगीत से उन्हें क्या मिला, कहते हैं मेरे लिए तो यह अल्लाह को महसूस करने का यह मार्ग है।
THANKS FOR SHEARING.
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