Tuesday 21 December 2010

विकीलीक्सः सेंधमारों और हैकरों को हीरो न बनाये मीडिया


विकीलीक्स के कारनामों ने मीडिया को एक गहरी दुविधा में ढकेल दिया है। उसके खुलासों के आगे दुनिया की सारी खबरें फीकी और लगभग सारहीन नज़र आ रही हैं। सनसनी परोसने वालों की विकीलीक्स ने हवा निकाल दी है। सबसे पहले, सबसे आगे, सिर्फ़ हमारे पास जैसे नारों का रंग उतर गया है। एकाएक दुनियाभर का मीडिया संसार जूलियन असांज द्वारा विकीलीक्स डाट ओआरजी वेबसाइट परपरोसी हुई जूठन पर आश्रित हो गया है। इसे सूचनाओं का विस्फोट माना जा रहा है। कई पत्रकार असांज को अपना अगुवा मानने से नहीं हिचक रहे हैं तो कुछ ने उसे नायक मान लिया है। कुछ और उसी की राह पर चलने के लिए बेचैन हैं। कुछ फर्जी विकीलीक्स के खुलासे भी इस बीच सामने आये हैं। इस तरह विकीलीक्स मार्का खुलासों का एक बूम आ गया है।
इंटरनेट पर सूचनाओं का अबाध प्रवाह की दुनिया में यह पहली बड़ी दुर्घटना है। ऐसी दुर्घटना तो होनी ही थी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब अनसेंसर्ड सूचना परोसना नहीं है। मीडिया का काम केवल खुलासा करना नहीं है। मीडिया यदि व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हिमायत करता है तो उसका आशय अबाध अभिव्यक्ति से नहीं है। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्बंध नैतिकता से भी है। हम किसी हैकर को मीडिया का नायक नहीं मान सकते। गुप्त सूचनाओं को खुलासा भर कर देना पत्रकारिता का धर्म कदापि नहीं है और ना ही यह कोई ऐसा गुण है जिस पर कोई वारी-वारी जाये। कूटनीति की बहुत सी मजबूरियां होती हैं और हर देश में बहुत सी बातें होती हैं जो न सिर्फ दूसरे देश से बल्कि स्वयं अपने भी देश के लोगों से गोपनीय रखनी होती हैं। आवश्यकता पड़ने पर कई गोपनीय बातों को उजागर करने के पूर्व उसके सार्वजनिक होने के प्रभावों पर भी विचार किया जाता है।
विसीलीक्स ने जो गुप्त सूचनाओं पर सेंधमारी की है वह अमरीकी को पूरी दुनिया की निगाह में गिराने के लिए काफी है।यही नहीं इससे उसके अपने मित्र राष्ट्रों से सम्बंध खराब होने का खतरा मंडरा रहा है। आर्थिक मंदी का शिकार इस देश की हालत इन खुलासों से और खराब हो सकती है। कोई ऐसा देश नहीं होगा जो अपने अपने स्तर और अपनी औकात के अनुसार किन्ही कारगुजारियों को अंजाम देने की कोशिश न करता होगा। कमजोर से कमजोर देश भी शक्तिशाली बनने की कोशिश करता है और जिनसे वह संधि करता है अपने फायदे की पहले चिन्ता करता है। हर देश का अपना खुफिया तंत्र होता है और उसकी एजेंसियां देश की कूटनीतिक कार्रवाइयों को अंजाम देती रहती है। अमरीका के गोपनीय केबल संदेशों का खुलासा करके विकीलीक्स ने उसकी पोल खोल दी। और एक हैकर दुनिया का नायक बन गया। ऐसे लोगो का नायक जो अमरीकी की शक्ति के आगे नत हैं, उनसे आगे निकलना चाहते हैं, उसके सताये हुए हैं। अब अमरीका इंटरनेट की अबाध स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने की कोशिश कर रहा है तो यह स्वाभाविक है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हिमायती राष्ट्र का अंकुश के पक्ष में रवैया चिन्ता का विषय नहीं होना चाहिए क्योंकि वह नैतिकता से स्खलित वैचारिक स्वतंत्रता के खिलाफ जो सही है। हमारा देश भारत को भी ऐसी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि हम भी मानते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्बंध नैतिकता से है और उसकी प्रभावोत्पादता से भी। किन्हीं गोपनीय सूचनाओं को उजागर करना कोई बड़ी सूचना क्रांति नहीं है। हमारे यहां सूचना प्राप्त करने का कानून है और कई गोपनीय दस्तावेजों से सम्बंध में एक सुनिश्चित प्रक्रिया से जानकारी प्राप्त की जा सकती है लेकिन उन जानकारियों में हर तरह की जानकारियों तक पहुंच नहीं बनती क्योंकि सरकार ने कुछ मामलों को जनहित और देशहित में उपलब्ध नहीं कराने का निर्णय लिया है।
असांज की खुफियागिरी के तर्ज पर यदि आज की पत्रकारिता चली तो जासूसों की तो निकल पड़ेगी। मुझे यह जानकारी नहीं है कि कितने अखबार अपने यहां जासूसों की नियुक्ति किये हुए हैं। हाल में मीडिया द्वारा स्ट्रिंग आपरेशनों की जानकारी तो है किन्तु उसमें भी किसी ने किसी रूप में जनहित और नैतिकता के प्रश्न जुड़े होते हैं।
अमरीका के खिलाफ खड़ी शक्तियों को लाभ पहुंचाने की गरज से गोपनीय दस्तावेजों के खुलासे के कारण जल्द ही उन लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी बाधित होगी जो किन्हीं नैतिक मूल्यों की लड़ाई इंटरनेट के जरिए लड़ रहे थे। यह भय है कि सस्ता, सुलभ और कारगर हथियार आम लोगों के हाथ से न निकल जाये। स्वाभाविक है कि जो देश इंटरनेट पर आ रही खबरों और विचारों के खुलेपन से अपने देश को बचाना चाहते थे वे लाभान्वित होंगे। ऐसे भी मुल्क हैं जहां अपने ही देश की विसंगतियों को अपने ही देश में अपने ही लोगों द्वारा अभिव्यक्ति करने पर जेल में डाल दिया जाता है, वहां इंटरनेट जैसे शक्तिशाली माध्यम सिरदर्द बना हुआ है। उन्हें इंटरनेट पर भावी पाबंदियों का लाभ मिलेगा।
दरअसल इंटरनेट मीडिया के विस्तार के साथ ही उस पर सीमित अंकुश का तंत्र विकसित किया जाना चाहिए था तथा सूचनाओं के प्रसार की नैतिकता का विकास भी होना चाहिए था। इंटरनेट के दुरुपयोग के खिलाफ कारगर कानून भी बनने चाहिए थे जो नहीं हुआ और उसका नतीजा सामने है। विकीलीक्स को आज भले मीडिया तरजीह दे रहा हो किन्तु यह मीडिया के विनाश का कारण बन जायेगा। एक हैकर के कारनामों से भले ही किसी को लाभ हो मीडिया को चाहिए कि वह उसकी निन्दा करे और उसे नायक न बनने दे। कल को किसी देश के आम नागरिकों के बैंक खातों से लेकर तमाम गोपनीय जानकारियों को रातोंरात लीक कर कोई दुनिया को चौंका कर नायक बनने की कोशिश करेगा तो आप क्या करेंगे।
वर्तमान घटना को अमरीका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमले को रूप में देखा जाना चाहिए। यह किसी राष्ट्र की निजता पर आतंकी हमला है। और इससे जश्न मनाने वाले यह न भूलें कि उनकी निजता भी महफूज नहीं रह जायेगी। कोई भी उपलब्धि तभी उपलब्धि है जो उसे प्राप्त करने के साधन नैतिक हों। यदि गोपनीय सूचनाएं सेंधमारी या हैकिंग करके हासिल की गयी हैं किन्हीं मान्य तरीकों से नहीं तो उन सूचनाओं से चाहे जितने बेहतर नतीजे निकाल लें वह किसी भी प्रकार से मनुष्य जाति के लिए हितकारी नहीं होंगे।
असांज का जीवन कोई आदर्श जीवन नहीं रहा है। कंप्यूर हैक करने की अपनी एक कोशिश के दौरान वह पकड़ा गया था। फिर भी उसने अपना काम और कंप्यूटर के क्षेत्र में अनुसंधान जारी रखा। उसका दावा है कि अपने स्रोतों को सुरक्षित रखने के लिए उसने अलग-अलग देशों से काम किया। अपने संसाधनों और टीमों को भी हम अलग-अलग जगह ले गया ताकि कानूनी रुप से सुरक्षित रह सके। वह आज तक न कोई केस हारा है न ही अपने किसी स्रोत को खोया है।
उल्लेखनीय है कि विकीलीक्स की शुरुआत 2006 में हुई। असांज ने कंप्यूटर कोडिंग के कुछ सिद्धहस्त लोगों को अपने साथ जोड़ा। उनका मक़सद था एक ऐसी वेबसाइट बनाना जो उन दस्तावेज़ों को जारी करे जो कंप्यूटर हैक कर पाए गए हैं। भले यह कहा जा रहा है कि यह असांज के व्यक्तिगत प्रयासों को परिणाम है लेकिन इसमें किन्हीं देशों की बड़ी शक्तियों का हाथ होने की आशंका से इनकार नहीं किया जाना।
विकीलीक्स खुलासों के आधार पर राजनीतिक और सामाजिक अध्ययन के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध हुई है इसमें कोई दो राय नहीं। उसके खुलासों से किसी देश की नीति और कूटनीति में कितना अन्तर है यह अध्ययन का विषय हो सकता है। नैतिकता की कितनी परतें होती हैं उसके रेशे रेशे को इन खुलासों ने जगजाहिर कर दिया है। लेकिन कोई भी उपलब्धि किस कीमत पर मिली है बिना इसका मूल्यांकन किये बिना हम नहीं रह सकते। दूसरे किसी भी बात के खुलासे के उद्देश्यों को जब तक सामने न रखा जाये हम यह नहीं कह सकते कि भला हुआ या बुरा। उद्देश्य की स्पष्टता के अभाव में केवल खुलासे का थ्रिल पैदा करना या अपनी हैकर प्रतिभा का प्रदर्शन मेरे खयाल से कोई महान कार्य नहीं है।

Sunday 5 December 2010

भाषा का क्रियोलीकरण और अखबारों की भूमिका

सन्मार्ग-6/12/2010







'भाषा का क्रियोलीकरण और अखबारों की भूमिका' विषय पर अपनी भाषा संस्था ने अपने दसवें स्थापना दिवस पर संगोष्ठी 4 दिसम्बर 2010 को आयोजित की। यह भारतीय भाषा परिषद के सभागार में अपराह्न 3.30 बजे शुरू हुई जिसकी अध्यक्षता ललित निबंधकार एवं पत्रकारिता पर ग्रंथ लिखने वाले डॉ.कृष्णबिहारी मिश्र ने की। विषय प्रवर्तन संस्था के महासचिव डॉ. ऋषिकेश राय ने किया और क्रियोल तथा क्रियोलीकरण के अर्थ से लोगों को परिचित कराया। कार्यक्रम का संचालन डॉ.विवेक कुमार सिंह ने किया और धन्यवाद ज्ञापन किया डॉ.वसुमति डागा ने। वक्ता थे ताजा टीवी छपते छपते दैनिक के मालिक सम्पादक विश्वंभर नेवर, जनसंसार साप्ताहिक के सम्पादक गीतेश शर्मा, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के रीडर डॉ. आलोक पाण्डेय तथा सन्मार्ग दैनिक के वरिष्ठ उपसम्पादक डॉ.अभिज्ञात ।

कुछ तथ्य
क्रियोल भाषा क्या है?
एक क्रियोल या खिचड़ी भाषा, वो स्थिर भाषा होती है जिसका प्रादुर्भाव विभिन्न भाषाओं के मिश्रण से होता है। आमतौर पर एक क्रियोल भाषा के शब्द मूल भाषाओं से सहार्थी होते हैं, लेकिन कई बार मूल भाषा और खिचड़ी भाषा के शब्दों में ध्वन्यात्मक और अर्थ संबंधी एक स्पष्ट परिवर्तन देखा जा सकता है। अब इस बात की आशंका जतायी जा रही है कि हिन्दी का हिंग्लिश बनाना एक तरह से उसका क्रियोलीकरण करना है। और कांट्रा-ग्रेजुअलिज्म के हथकंडों से, बाद में उसे डि-क्रियोल किया जायेगा। डिक्रियोल करने का अर्थ, उसे पूरी तरह अँग्रेज़ी के द्वारा विस्थापित कर देना।
भारत और क्रियोलीकरण
भारत में नगालैंड की 18 बोलियों को मिला कर जो सम्पर्क भाषा बनायी गयी है उसे नगमीज कहते हैं। वह अपने देश की हाल ही में बनी क्रियोल भाषा है जिसकी लिपि रोमन है। कोंकणी को भी रोमन लिपि में लिखे जाने की निर्णय लिया गया है। वहां पुर्जगीज और कोंकणी भाषा का क्रियोल है। गुयाना में 43 प्रतिशत लोग हिन्दी बोलते हैं वहां देवनागरी की जगह रोमन लिपि को चलाया गया है।
कहां बोली जाती है क्रियोल भाषा
हैतियाई क्रियोल भाषा, हैती में तकरीबन पूरी जनसंख्या ८० लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है। इसके अलावा बहामास, क्यूबा, कनाडा, केमन द्वीप-समूह, डोमिनिकन गणराज्य, फ्रेंच गुयाना, गुआदेलूप, प्युर्तो रिको और संयुक्त राज्य अमेरिका में बसे करीबन दस लाख प्रवासी लोगों द्वारा बोली जाती है। यह भाषा दुनिया में सर्वाधिक प्रचलित क्रियोल भाषा है।
हिन्दी का हिंग्लिश बनाना उसका वैसा ही क्रियोलीकरण है, जैसा पहले फ्रांस या इंगलैंड का उपनिवेश रह चुके कैरेबियाई देशों भाषाएं हैं।
डॉ.अभिज्ञात का मतः
भारत जैसे देश में क्रियोलीकरण का हव्वा खड़ा किया जा रहा है और वस्तुस्थिति को बढ़ाचढ़ा कर पेश किया जा रहा है। हिन्दी अख़बारों में लाइफ स्टाइल या यूथ प्लस के नाम पर फ़ीचर सप्लीमेंट दिये जा रहे हैं उनमें हिंगलिश अर्थात हिन्दी अंग्रेजी की खिचड़ी भाषा दी जा रही है तो इसका मतलब इस बात नहीं निकाला जाना चाहिए कि अख़बार उसी भाषा की दिशा में बढ़ रहा है या यह अंग्रेजी के साम्राज्यवाद का बढ़ावा देने के लिए किसी षड़यंत्र के तहत किया जा रहा है। यह उस युवा पीढ़ी को हिन्दी अख़बार से जोड़ने का उपक्रम है जो हिन्दी भाषी परिवारों में अंग्रेजी पढ़ने वाले युवा हैं। हिन्दी अख़बार दरअसल किसी घर में व्यक्ति विशेष के लिए नहीं आते। दैनिक हिन्दी अखबार पूरे परिवार द्वारा पढ़ा जाता है जिसमें हर आयु व रुचि के लोग होते हैं। यदि उसमें गंभीर समाचार होते हैं तो विश्लेषण परक लेख भी होते हैं। उसी तरह किसी सप्लीमेंट में लतीफे और कविताएं भी होती हैं और कहानिया तथा
सुडोकू भी। पकवान की विधि भी होती है और राशिफल भी। शेयर के रेट भी होते हैं। बच्चों के लिए रंग भरने के लिए चित्र भी होते हैं। अब यदि युवा पीढ़ी के लिए अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी का सप्लीमेंट युवाओं के टेस्ट को ध्यान में रखकर निकलने लगा तो हाय तौबा मच गयी। और कहा जा रहा है कि साहब यह तो हिन्दी का क्रियोलीकरण किया जा रहा है। यहां तक कहा जाने लगा है कि एक मिथ्या 'यूथ-कल्चर' बनाया जा रहा है जिनका कुल मकसद अंग्रेजी भाषा तथा जीवन शैली को उन्माद की तरह उनसे जोड़ा जाये जिसमें भाषा, भूषा और भोजन के स्तर पर वह अंग्रेजी के नये उपनिवेश के शिकंजे में आ जाये। वह परम्परच्युत हो जाये और अपनी-अपनी मातृभाषा को न केवल हेय समझने लगे। इससे पूरी की पूरी युवा पीढ़ी से उसकी भाषा छीन ली जायेगी। हिन्दी का हिंग्लिश बनाना उसका वैसा ही क्रियोलीकरण है, जैसा पहले फ्रांस या इंगलैंड का उपनिवेश रह चुके कैरेबियाई देशों की भाषाएं हैं।

यहां यह गौरतलब है कि जिन देशों में जिन स्थितियों में भाषाओं का क्रियोलीकरण संभव है वैसे हालत फिलवक्त भारत के नहीं हैं। यह भी सही है बाजार के कारण दो भाषाओं के बीच के आदान-प्रदान से भाषा का जो क्रियोलीकरण होता है उसकी जड़ें गहरी नहीं होतीं उस भाषा में साहित्य संस्कृति जैसे मुद्दों पर विचार संभव नहीं। किन्तु यह नहीं भूलना होगा कि भारत में ऊर्दू भाषा फारसी खड़ी बोली के क्रियोल का ही उदाहरण है। और किन्हीं अर्थों में अपनी यह हिन्दी भी खड़ी बोली, भोजपुरी, ब्रजभाषा अवधी जैसी बोलियां का क्रियोल हैं। भारत में विभिन्न भाषाओं और धर्मों के लोग रहते हैं उनके बीच के सांस्कृतिक आदान प्रदान में दरअसल क्रियोल ही है। हमारा देश क्रियोलीकरण की शक्ति का परिचायक है।
हमारे बीच क्रियोलीकरण के मुद्दे विद्वेषपूर्ण ढंग से प्रचारित करने की साजिश क्यों और किससे इशारे पर की जा रही है इस पर भी गौर करने की आवश्यकता है। जिस प्रकार के उदाहरण देकर क्रियोलीकरण की प्रक्रिया को समझाया जा रहा उससे यह प्रवृत्ति जोर पकड़ेगी की हमें अपनी भाषा और संस्कृति में दूसरी भाषा व संस्कृति के दरवाज़े बंद कर लेने हैं या उन्हें खोज खोज कर बाहर का रास्ता दिखाकर शुद्धिकरण करना है तो पूरा देश सांस्कृतिक वैमनस्य में जलने लगेगा। इस आग लगाने की साजिश से भी सावधान रहने की ज़रूरत है। यह गौरतलब है कि क्रियोलीकरण से सजग करने वाले हमारे हितैषियों का मुख्य लक्ष्य भारतीय भाषाओं का अंग्रेजी के साथ क्रियोलीकरण के खिलाफ है। जब क्रियोलीकरण खतरनाक है तो चाहे जिसके किसी के बीच हो वह समान रूप से खतरनाक होगा ऐसा क्यों नहीं कहा जा रहा है। उसका कारण साजिशकर्ता शक्तियों के अपने हित हैं। ये साजिशकर्ता हमें यह याद दिलाना नहीं भूलते कि हिन्दी पत्रकारिता की शुरूआत ही अंग्रेजी को भारत से खदेड़ने की प्रतिबद्धता से हुई थी। वे यह भूल जाते हैं कि उसे समय हमारा देश अंग्रेजी शासन का गुलाम था और अंग्रेजी हम पर हुकूमत करने वालों की भाषा थी इसलिए हुक्मरानों की भाषा का तिरस्कार भी हुक्मरान का तिरस्कार था। वरना अंग्रेजी भाषा से किसी का क्या विरोध होता और क्यों होता। किन्तु आज स्वतंत्र भारत में हम पर हुकूमत करने वालों की भाषा नहीं है बल्कि वह मित्र राष्ट्र की भाषा है। अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हाल ही भारत दौरा किया है और हमारे मैत्रिपूर्ण सम्बंध और गहराये हैं जो परमाणु समझौते से शुरू हुए थे। भारत और अमरीकी की बढ़ती करीबी एक ऐसे देश को खल रही है जो भारत के समान ही विश्व की उभरती हुई शक्ति के रूप में देखा रहा है। भारत और चीन दोनों के पास बाजार की विपुल संभावनाएं हैं और विश्व के सर्वशक्तिमान देश स्वयं अमरीका ने स्वीकार किया है कि आने वाले दिनों में चीन और भारत की ऐसे देश हैं जिनसे उसे कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ेगा। ऐसे में अमरीका की भारत के साथ करीबी चीन की अपनी कूटनीति के विरोध में जाती है और जवाब में वह हमारे पड़ोसी शत्रुराष्ट्र पाकिस्तान के साथ अपनी करीबी बढ़ाता रहता है। यह स्वाभाविक है कि वह ऐसी चालें चले जिससे भारत के लोग अमरीका से भड़कें।
हाल की ओमाबा की यात्रा के बाद आर्थिक लेन देन और व्यापार की बढ़ती सम्भावनाएं दोनों देशों को सांस्कृतिक स्तर पर भी करीब लायेंगी। ऐसे में अंग्रेजी और रोमन लिपि के प्रति भारतीय लोगों के मन में आशंका के बीज रोपने की साजिश चीन करें तो इसमे कोई हैरत नहीं। इससे एक पंथ दो काज संभव है एक रोमन लिपि के प्रति विद्वेष की भावना पैदा कर दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक करीबी की संभावनाओं को क्षीण करना दूसरे आवश्यकनासुर भारत को भाषाई और सांस्कृतिक वैमनस्य की आग में झोंककर उसकी आंतरिक शक्ति को विखंडित करना। भारत चूंकि साझी संस्कृति का देश है इसलिए सांस्कृतिक अलगाव और संकीर्णता उसके विकास को आसानी से अवरुद्ध कर सकता है। अभी तो भाषा के क्रियोलीणकर का खतरा दिखाया जा रहा है बाद में सांस्कृतिक क्रियोलीकरण तक बात पहुंचेगी और साजिश के तहत इस बात की गणना करायी जाने लगेगी कि भारत की किस भाषा में भारत की ही किस भाषा के कितने शब्द हैं और इससे कैसे एक भारतीय मूल भाषा भाषा ने दूसरी भाऱतीय मूल भाषा को विकृत किया है। हमारी शक्तियों को हमारी विकृति की संज्ञा दी जाने लगेगी और हमारे अवचेतन में उसे बैठा दिया जायेगा। इसलिए दोस्तो यह समझने की जरूरत है कि कहीं चोर दरवाज़े से हमारे को तोड़ने की साजिश तो नहीं रची जा रही है। पहला हमला चौथे स्तम्भ पर किया गया है। और जो देश को तोड़ने वाली ताकतों की शिनाख्त करता है उस मीडिया पर ही अपना निशाना साधा गया है ताकि वह बचाव मुद्रा में रहे और उसे भाषा व संस्कृति की चिन्ता करने वाले प्रबुद्ध वर्ग का भी समर्थन प्राप्त हो सके। प्रबुद्ध वर्ग को यह समझाना बहुत आसान है कि अखबार भाषाई विकृति फैला रहे हैं। लेकिन आरोप लगाने वालों को इरादे कितने संगीन हैं इस पर भी बौद्धिक लोगों को गौर करना पड़ेगा वरना वह दिन दूर नहीं जब क्रियोलीकरण का खतरा दिखाकर देश को परस्पर वैमनस्य की आग में झोंक दिया जायेगा।

इस प्रकार क्रियोल भाषा का संकट वहां का संकट है जहां प्रवासी लोग रहते हैं। वह भी वे प्रवासी जो अपनी जड़ों से किसी हद तक कट चुके हों। और दो या विभिन्न भाषा से जुड़े लोगों का लगातार सम्पर्क बनता है।
इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को हम मुगलकालीन परिस्थियों में देखते हैं तो पाते हैं कि फारसी और खड़ी बोली हिन्दी के क्रियोल से हमारे यहां दो नयी भाषाओं ने जन्म लिया। फारसी व्याकरण व शब्दों व खड़ी बोली से उर्दू बनी और खड़ी बोली और संस्कृत व्याकरण से हिन्दी। कहना न होगा कि आज की जो हिन्दी है वह किसी हद तक क्रियोल ही है। जिसमें भोजपुरी, मगही, ब्रज भाषा, राजस्थानी, हरियाणवी आदि के शब्द मिले हुए हैं और मराठी, गुजराती, पंजाबी आदि के भी कई शब्द हैं।
यहां देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जाने वाले हिन्दी भाषी लोग वहां की भाषा के शब्दों को भी हिन्दी में समाहित कर लेते हैं। और हिन्दी के शब्द वहां की भाषा को दे देते हैं। यहां कई बंगला के शब्दों को हम धड़ल्ले से हिन्दी में भी प्रयोग कर लेते हैं। साहित्य की दुनिया में भले ऐसे प्रयोग कम हों लेकिन बोलचाल वाले इससे कतई परहेज नहीं करते। बंगला वाले भी हमारी भोजपुरी के शब्दों के अपनाते हैं। हमारा देश मिली जुली संस्कृतियों और कई भाषाओं का देश है। और यहां की भाषा पर दूसरी भाषाएं भी स्वाभाविक तौर पर प्रभाव डाल सकती हैं तो इसे हम अपनी खूबी मानते हैं।
ध्यान रहे कि क्रियोल के बहाने भाषा के नाम पर फसाद की तैयारी चल रही है। क्या हम भाषा के नाम पर सिरे से फसाद को तैयार हैं। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आज हम यह कहकर विरोध शुरू करें कि अंग्रेजी के शब्द हिन्दी को भ्रष्ट कर रहे हैं और कल कहें कि हमारी हिन्दी को बंगला भ्रष्ट कर रही है और बंगला कहे कि हमारे शब्दों को हिन्दी डस रही है। यदि हम अंग्रेजी के प्रयोग को उसका साम्राज्यवादी ढर्रा कहेंगे तो कल को हिन्दी पर भी हमारे देश की दूसरी भाषाएं ऐसा आरोप लगा सकती हैं। भाषाओं पर बांध बनाकर ऊर्जा पैदा नहीं की जा सकती। भाषा प्रवाह का नाम है। प्रयोग ही भाषा को जीवंतता प्रदान करता है। भाषा अपने पाठक खोकर अपना शुद्ध रूप भले बचा ले लेकिन जो भाषा को अपनी अस्मिता का प्रश्न नहीं मानते बल्कि स्वयं की अभिव्यक्ति का साधन मानते हैं वे आवश्यकता के अनुसार भाषा को बदलेंगे तो उन्हें कोई नहीं रोक सकता। क्या हम चाहकर भी आज पत्र लेखन को बचा पाये। नहीं। टेलीफोन के प्रचार प्रसार ने उसे खतरे में डाल दिया है। ईमेल और एसएमएस ने इसमें योगदान किया। हम खतों को बचाने के लिए लोगों के हाथ से टेलिफोन, ईमेल, एसएमएस पर प्रतिबंध नहीं लगा सकते। जो इनसे बचेंगे वे स्वयं दरकिनार कर दिये जायेंगे।
पाण्डुलिपियां खतरे में हैं। आज लेखक सीधे कम्प्यूटर पर लिख रहे हैं। वह सुविधाजनक हो गया है। अब हाथ से लिखने में दिक्कत हो रही है। हस्ताक्षर के अलावा लिखित प्रयोग कम ही बचे हैं। हस्तलिपियां खतरे में हैं। शिलालेखों और ताम्रपत्रों पर लेखन जैसे खत्म हो गया संभव हैं आज लिखने का ढर्रा भी लुप्त हो जाये। अभिव्यक्ति के तरीके बदलेंगे। भाषा बदलेगी। अंदाज बदलेगा। तालमेल बिठाना होगा। क्रियोल की समस्या प्रवासी समुदायों की समस्या है। हमारे देश में यदि विभिन्न भाषाओं के लोग आयेंगे हमारा सम्पर्क होता तो भाषा का क्रियोलीकरण संभव है। हम दूसरे देश में जायेंगे तो यही होगा। यह मुल्क प्रवासी नहीं होने जा रहा। हमारी जड़ें गहरी हैं। दूसरे देश की समस्या को अपने यहां लागू करने का कोई अर्थ नहीं है।
मिश्रित भाषा में कुछ सफे अखबार दे रहे हैं कुछ पत्रिकाएं भी संभव है आयें। लेकिन वे गहरे सरोकारों वाली पत्रिकाएं नहीं हैं। वे लाइफ स्टाइल से जुड़ी होती हैं या उन बच्चों युवाओं को सम्बोधित होती हैं तो अंग्रेजी पढ़े लिखे हैं। कोई अखबार हर तरह के पाठक को बांधे रखना चाहता है या जुड़ना चाहता है तो इसके लिए इस तरह के प्रयोग हो रहे हैं। यह प्रयोग बहुत सफल नहीं होंगे क्योंकि क्रियोल भाषा के लिए दोनों भाषाओं की जानकारी आवश्यक है। लेकिन प्रयोग का होना गलत नहीं है। कोई अखबार लतीफे भी छापता है तो वह पूरा अखबार लतीफा नहीं बनाना चाहता। विविधता अखबार में होती है होनी भी चाहिए।
यह शिगूफा हिन्दी में कहां से आया
यह इंदौरियन्स की करतूत है। 14 सितम्बर 2010 को हिन्दी दिवस के अवसर पर सबसे पहले विरोध का श्रीगणेश किया इन्दौर के बुद्धिजीवियों ने। समाजवादी चिंतक अनिल त्रिवेदी, कथाकार चित्रकार प्रभु जोशी एंड कम्पनी ने यह हव्वा खड़ा किया है। उसका कोई मतलब नहीं है। अखबार की कापियां जलाने से बदलाव नहीं आने जा रहा है।
चीन की मंदारिन भाषा के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अधिक बोली जाने वाली हिन्दी भाषा को खत्म करने की कोशिशें कोई कर ले। इससे कुछ होना नहीं है।
'क्रियोलीकरण' एक ऐसी युक्ति है, जिसके जरिये धीरे-धीरे खामोशी से भाषा का ऐसे खत्म किया जाता है कि उसके बोलने वाले को पता ही नहीं लगता है कि यह सामान्य और सहज प्रक्रिया नहीं, बल्कि सुनियोजित षडयंत्र है।
यह कहना गलत है कि उसके पीछे अंग्रेजी भाषा का साम्राज्यवादी एजेण्डा है। अंग्रेजी तो भारत में हिन्दी और भारतीय भाषाओं की जूतियां उठाने आ रही है। अंग्रेजी जानने वालों यहां धंधा करना है तो ग्राहक की भाषा में बात करनी होगी। अंग्रेजी बोलकर वे अपना माल नहीं बेच पायेंगे। ओबामा आये थे हमारे यहां अपने लोगों के लिए काम मांगने। वे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। चीन और भारत के आगे पानी भरेगी अंग्रेजी रानी। हिन्दी में अग्रेजी शब्द आने से हमें चिन्ता नहीं है। हिन्दी सब हजम कर जायेगी। हिन्दी ने अंग्रेजी को अपनी शर्तों पर अपनाया है और अपनायेगी। वे हमारी हिन्दी का खराब करेंगे हम उनकी अंग्रेजी को लालू की स्टाइल में बोलउसकी ऐसा तैसी कर देंगे। हिन्दलिश से न डरे। अर्ध शिक्षित व नव धनाढ्यों की चाल लड़खड़ाती ही है। इनसे किसी को खतरा नहीं होता। ऐसे लोग आते जाते रहते हैं। ये दिखावटी लोग सब कुछ होने के फेर में कुछ नहीं होते और किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करते। बाजार के लिए ये लोग सबसे मुफीद होते हैं इन्हें बाजार दूहता है। बाजार से न डरें। बाजार से तरक्की होती है। जिसका बाजार नहीं रहता वह लुप्त हो जाता है चाहे वह कोई सम्पदा हो।
देश में 14 सितम्बर 2010 को हिन्दी दिवस के अवसर पर सबसे पहले विरोध का श्रीगणेश किया इन्दौर के बुद्धिजीवियों समाजवादी चिंतक अनिल त्रिवेदी और कवि तपन भट्टाचार्य, प्रभु जोशी, जीवन सिंह ठाकुर, प्रकाश कांत शामिल हुए। इनका कहना है-'भूमण्डलीकरण के सबसे बड़े हथियार 'अंग्रेजी के नवसाम्राज्यवाद' का स्वागत जितने अधिक उत्साह से हमारे प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने किया, उसके पहले तमाम भारतीय भाषाओं, जिन्हें अंग्रेज नॉन-स्टेडर्ण्ड और वर्नाकुलर लैंग्विज कह के निरादृत करते थे-उनको नष्ट करने की खामोशी से की गई साजिश का नाम है - भाषा का 'क्रियोलीकरण' जिसके अंतर्गत हिन्दी में 'शामिल शब्दावलि' की आड़ में अंग्रेजी के शब्दों की धीरे-धीरे इतनी तादाद बढ़ाई जा रही थी कि वह हिन्दी न रह कर 'हिंग्लिश' होने लगी। 'क्रियोलीकरण' की प्रक्रिया का पहला चरण होता है, मूल भाषा के शब्दों का धीरे-धीरे अंग्रेजी के शब्दों से विस्थापन। हिन्दी के दैनंदिन शब्दों को बहुत तेजी से हटाकर उनके स्थान पर अंग्रेजी के शब्द लाये जा रहे हैं। मसलन, छात्र-छात्राओं की जगह स्टूडेण्ट्स/ माता-पिता की जगह पेरेण्ट्स/ अध्यापक की जगह टीचर्स/ विश्वविद्यालय की जगह यूनिवर्सिटी/ परीक्षा की जगह एक्झाम/ अवसर की जगह अपार्चुनिटी/ प्रवेश की जगह इण्ट्रेन्स/ संस्थान की जगह इंस्टीटयूशन/ चौराहे की जगह स्क्वायर रविवार-सोमवार की जगह सण्डे-मण्डे/ भारत की जगह इण्डिया। इसके साथ ही साथ पूरे के पूरे वाक्यांश भी हिन्दी की बजाय अंग्रेजी के छपना/ जैसे आऊट ऑफ रीच, बियाण्ड एप्रोच, मॉरली लोडेड कमिंग जनरेशन/ डिसीजन मेकिंग/ रिजल्ट ओरियण्टेड प्रोग्राम/हिन्दी को देवनागरी के बजाय रोमन में छापना शुरू कर दीजिये। बीसवीं शताब्दी में सारी अफ्रीकी भाषाओं को अंग्रेजी क सम्राज्यवादी आयोजना के तरह इसी तरह खत्म किया गया और अब बारी भारतीय भाषाओं की है। इसलिए, 'हिन्दी हिंग्लिश', 'बांग्ला', 'बांग्लिश', 'तमिल', 'तमिलिश' की जा रही है। हम यह प्रतिरोध हिन्दी के साथ ही साथ तमाम भारतीय भाषाओं के 'क्रिओलीकरण' के विरूध्द है, जिसमें, गुजराती-मराठी, कन्नड़, उडिय़ा, असममिया, सभी भाषाएँ शामिल हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के धूर्त दलालों के दिशा निर्देश में संसार की इस दूसरी बड़ी बोले जाने वाली भाषा से उसकी लिपि छीन कर, उसे रोमन लिपि थमाने की दिशा में हिन्दी के कई अखबार जुट गए हैं।'
क्या आप इंदौरियंस से सहमत हैं?
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