Thursday 29 July 2010

जानी-पहचानी सी दुनिया में एक संवेदनात्मक ताजगी


पुस्तक-अनहद/लेखक-राजेश रेड्डी/प्रकाशक-डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि., 10-30, ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-2, नयी दिल्ली-110020/मूल्य-95 रुपये।

सुपरिचित गजलकार राजेश रेड्डी की चुनिंदा गजलों का संकलन 'अनहद' उनके प्रशंसकों के लिए कोई नयी रचना की सौगात भले न ले आया हो किन्तु उनकी चॢचत कृतियों उड़ान, आसमान से आगे और वुजूद से बेहतरीन रचनाओं का चयन है, जो उन पाठकों के लिए महत्वपूर्ण है, जो उन्हें संक्षेप में पढ़ाना समझना चाहते हों। इस कृति में उनकी गजलों के विविध शेड्स मिल जायेंगे, जो उन्हें संक्षेप में भी सम्पूर्णता में समझने में का आभास देते हैं।
इस कृति की रचनाओं से गुजरते हुए बराबर यह एहसास बना रहता है कि हम जिस शायर को पढ़ रहे हैं उसमें गजल की पूरी परम्परा का रचाव ही समाहित नहीं है बल्कि यह शायर परम्परा के विकास की सही लीक पर चलते हुए नये को भी उसी क्लासिक ऊंचाई पर ले जाने में समर्थ है, जो नये-पुराने के भेद को मिटा कर सदा नवीन और सदा प्रासंगिक बना रहता है। इस शायर में नये तजुरबे हैं, कहने का ढर्रे में भी नयापन है पर वह नया कहने के लिए नया नहीं कहता इसलिए एक जानी-पहचानी सी दुनिया में एक ताजगी का अहसास कराता है-'थी यही कोशिश मेरी पगड़ी न जाय/बस इसी कोशिश में मेरा सिर गया/बेच डाला हमने कल अपना जमीर/जिन्दगी का आखिरी जेवर गया।'
राजेश रेड्डी की गजलों में व्यवस्था को बदलने की कोशिश तो दिखायी देती है लेकिन संवेदना भी जिसके कारण वह खोखला बनने से बची हुई हैं और विश्वसनीयता को बनाये रखने में कामयाब हैं-'मंजिल मेरी अलग है मेरा रास्ता अलग/इक आम से सफर का मुसाफिर नहीं हूं मैं।' उसका कारण यह है कि वे खोखली क्रांतियों का हस्र जानते हैं-'बिल आखिर बिक ही जाती है बगावत/हर इक बागी का कोई दाम तय है।'
उनकी शायरी केवल विचार से उपजी शायरी नहीं है। वे दुनियादारों की तरह ही नहीं उन फकीरों और संतों की तरह भी सोचते हैं जिनसे गजल की परम्परा का गहरा वास्ता है। वे कहते हैं-'सुन ली मैंने दिमाग की तज्वीज/अब जरा दिल को खटखटा लूं मैं।' राजेश रेड्डी की निगाह समाज की उन तमाम विडम्बनाओं पर है जो आदमी को आदमी बने रहने देने में बाधक हैं, और वे यह भी जानते हैं कि स्वाभिमान की जिन्दगी जीना कितना कठिन है-'मैं सोचता तो हूं कि लूं खुद्दारियों से काम/रहती कहां है पर मेरी गरदन झुके बगैर।'

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