Friday 30 July 2010

राहुल महाजन के बहाने इमोशनल अत्याचार पर कुछ बातें


टीवी रियल्टी शो 'इमोशनल अत्याचार' की कलई आखिर खुल ही गयी। अब तक न्यूज मीडिया को पेड न्यूज मामले को सामाजिक कोपभाजन का शिकार बनना पड़ रहा है तो क्या रियल्टी टीवी शो विश्वसनीय हैं। हम जैसे लोगों की सीधी सादी बीवियां इमोशनल अत्याचार की करतूतों को हकीकत मान बैठती हैं और हमें रोज सुनना पड़ता है सारे मर्द ऐसे ही लुच्चे होते हैं। अब पत्नी को कौन समझाये के अंगदवा एक से बढ़कर एक सुन्दर लड़कियों को अपनी अंडरकवर एजेंट बनाकर मर्दों को रिझाने भेज देती हैं जो उनकी मर्दानगी और दिलफेंक तबीयत को खुल्लमखुल्ला चुनौती देती दिखायी देती हैं। वे बस अपनी ओर से आफर नहीं करतीं लेकिन मर्दों से आनन-फानन में दोस्ती गांठती और मिलती जुलती हैं ऐसे में शरीफ से शरीफ व्यक्ति ऊपरवाले की मेहरबानी समझ उनसे कैसे आंखें मूंदे रहे। वे बेचारे जाल में फंस जाते हैं और अंगद बेदी अपने प्रेमी की बेवफाई पर आंसू बहाती उनकी प्रेमिकाओं को सांत्वना दिलाने के लिए अपना कंधा हाजिर रखता है। तो लुच्चा कौन?
पिछले दिनों राहुल महाजन पर इसी इमोशनल अत्याचार टीम ने उनकी पत्नी व मॉडल डिम्पी गांगुली के कहने पर उनका लायल्टी टेस्ट किया। डिम्पी ने राहुल से इमेजिन टीवी के अत्यधिक लोकप्रिय शो 'राहुल दुल्हनियां ले जायेंगे' में शादी की थी।
राहुल को स्वीमिंग पूल में दो-तीन तीन हसीनाएं अंडरकवर एजेंट के तौर पर हसीनाएं उपलब्ध कराई गयीं और हैरत की बात यह थी कि राहुल शरीफ बने रहे। और डिम्पी ने पूरे गर्व से कहा कि राहुल महाजन सुधर गये हैं और उनकी लम्पट छवि मीडिया की गढ़ी हुई है। कलर्स चैनल के रीयलिटी शो 'बिग बॉस' में राहुल की शराफत पायल रोहतगी और मंदिर बेदी के साथ बार-बार उभर कर सामने आयी। अब डिम्पी को राहुल की जमकर धुनाई कर दी तो बात सामने आ रही है कि इमोशनल अत्याचार में राहुल की छवि गढ़ी गयी और संभवत: पेड थी।
22 वर्षीय मॉडल डिम्पी ने एक टीवी चैनल को बताया कि राहुल ने मेरे फोन पर आए एक संदेश का मतलब जानने के लिए मुझे जगाने के बाद गुरुवार की सुबह मेरी पिटाई की। जब मैंने उससे सोने को कहा तो वह गुस्से से आगबबूला हो गया और मुझ पर प्रहार करना शुरू कर दिया। उसने मुझे लात घूंसों से पीटा और मुझे बाल पकड़ कर खींचा।
यह दूसरी बार है जब मादक पदार्थ सेवन के अभियुक्त रह चुके राहुल पर घरेलू हिंसा का आरोप लगा है। उनके बचपन की मित्र उनकी पहली पत्नी श्वेता सिंह ने उन पर शारीरिक प्रताडऩा का आरोप लगाया था। दोनों के बीच 2008 में तलाक हो गया था।
यूं भी हम जैसे पति बेदियों से भयभीत रहे हैं। 'आपकी कचहरी' टीवी शो में किरण बेदी जिस कार्यक्रम को प्रस्तुत करती हैं उससे लोगों का भला कम होता और बुरा अधिक। पत्नियों को यह जानकारी मिलती-रहती है कि अरे यह जुल्म तो हम भी आये दिन होता रहता है, हम तो चुप रहते हैं। हमें अब चुप नहीं रहना चाहिए था।

Thursday 29 July 2010

जानी-पहचानी सी दुनिया में एक संवेदनात्मक ताजगी


पुस्तक-अनहद/लेखक-राजेश रेड्डी/प्रकाशक-डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि., 10-30, ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-2, नयी दिल्ली-110020/मूल्य-95 रुपये।

सुपरिचित गजलकार राजेश रेड्डी की चुनिंदा गजलों का संकलन 'अनहद' उनके प्रशंसकों के लिए कोई नयी रचना की सौगात भले न ले आया हो किन्तु उनकी चॢचत कृतियों उड़ान, आसमान से आगे और वुजूद से बेहतरीन रचनाओं का चयन है, जो उन पाठकों के लिए महत्वपूर्ण है, जो उन्हें संक्षेप में पढ़ाना समझना चाहते हों। इस कृति में उनकी गजलों के विविध शेड्स मिल जायेंगे, जो उन्हें संक्षेप में भी सम्पूर्णता में समझने में का आभास देते हैं।
इस कृति की रचनाओं से गुजरते हुए बराबर यह एहसास बना रहता है कि हम जिस शायर को पढ़ रहे हैं उसमें गजल की पूरी परम्परा का रचाव ही समाहित नहीं है बल्कि यह शायर परम्परा के विकास की सही लीक पर चलते हुए नये को भी उसी क्लासिक ऊंचाई पर ले जाने में समर्थ है, जो नये-पुराने के भेद को मिटा कर सदा नवीन और सदा प्रासंगिक बना रहता है। इस शायर में नये तजुरबे हैं, कहने का ढर्रे में भी नयापन है पर वह नया कहने के लिए नया नहीं कहता इसलिए एक जानी-पहचानी सी दुनिया में एक ताजगी का अहसास कराता है-'थी यही कोशिश मेरी पगड़ी न जाय/बस इसी कोशिश में मेरा सिर गया/बेच डाला हमने कल अपना जमीर/जिन्दगी का आखिरी जेवर गया।'
राजेश रेड्डी की गजलों में व्यवस्था को बदलने की कोशिश तो दिखायी देती है लेकिन संवेदना भी जिसके कारण वह खोखला बनने से बची हुई हैं और विश्वसनीयता को बनाये रखने में कामयाब हैं-'मंजिल मेरी अलग है मेरा रास्ता अलग/इक आम से सफर का मुसाफिर नहीं हूं मैं।' उसका कारण यह है कि वे खोखली क्रांतियों का हस्र जानते हैं-'बिल आखिर बिक ही जाती है बगावत/हर इक बागी का कोई दाम तय है।'
उनकी शायरी केवल विचार से उपजी शायरी नहीं है। वे दुनियादारों की तरह ही नहीं उन फकीरों और संतों की तरह भी सोचते हैं जिनसे गजल की परम्परा का गहरा वास्ता है। वे कहते हैं-'सुन ली मैंने दिमाग की तज्वीज/अब जरा दिल को खटखटा लूं मैं।' राजेश रेड्डी की निगाह समाज की उन तमाम विडम्बनाओं पर है जो आदमी को आदमी बने रहने देने में बाधक हैं, और वे यह भी जानते हैं कि स्वाभिमान की जिन्दगी जीना कितना कठिन है-'मैं सोचता तो हूं कि लूं खुद्दारियों से काम/रहती कहां है पर मेरी गरदन झुके बगैर।'

बड़े सरोकार की संवेदनशील रचनाशीलता

पुस्तक का नाम-समुद्र में नदियां/लेखक-स्वाधीन/प्रकाशक-स्वाधीन साहित्य प्रकाशन समिति, 150/4, एलआईजी, 4 फेज, केपीएचबी कालोनी, हैदराबाद-500072/मूल्य-85 रुपये।

पिछले ढाई दशकों में स्वाधीन ने अपनी कविताओं और गजलों ने अपनी एक विशिष्ट पहचान बना ली है। उनकी रचनाओं में हिन्दू और उर्दू दोनों जुबानों की मिठास और उसके भाषिक संस्कार मिले हुए हैं, जो पाठक को कविता के एक नये आस्वाद से परिचित कराती हैं। स्वाधीन की कविताएं पढ़कर यह भरोसा होता है कि यह बदतर होती दुनिया कभी बेहतर होगी, निराश होने की जरूरत नहीं है। जरूरत है तो बस मिल जुल कर बदलाव की कोशिश करने की। उनकी कविताओं में बदलाव और मुश्किलों से निजात का रास्ता अकेले के प्रयासों से संभव होता नहीं दीखता। वे सामूहिक प्रयासों के हामी रहे हैं और इस संग्रह में भी बदलाव के सामूहिक प्रयासों के प्रति उनकी भरोसा कायम है। मौजूदा दौर में आदर्शों का हश्र देखने के बाद उनकी कविताओं में बदलाव का भरोसा लगभग रोमांटिक लगने लगता है किन्तु वही उन्हें एक सच्चा और बड़ा कवि भी बनाता है। उनकी रचनाओं कब अपना दर्द समूह का दर्द और समूह का दर्द अपना बन जाता है कहना मुश्किल है। एक बानगी देखें- 'इक रोज तुम्हें अपने ही घर याद करेंगे।/बिछड़े हुए आंगन के शजर याद करेंगे।/तुम अपने लहू रंग के परचम तो उठाओ/ ये सुर्ख सबेरों के नगर याद करेंगे।'
व्यक्ति और समूह उनके यहां एक है। माक्र्सवादी प्रतिबद्धता उनकी रचनाओं को रसद पहुंचाती है किन्तु वे विचारों की नारेबाजी करते नहीं दिखायी देते जो उनकी रचनाओं के उथला और इकहरा होने से बचाती है- 'खुद बन गये जब आईने पत्थर कई दिन तक।/ बेचेहरा रहे हम भी तो अक्सर कई दिन तक।/वो अपने वतन के थे, बसाना था उन्हें भी/ मिलते रहे हम उन से बराबर कई दिन तक।'
इस संग्रह में गजलों अलावा कुछ कविताएं भी हैं। वे संवेदनशीलता और वैचारिकता से हमें बांधती हैं-'नदियों के बंटवारे को लेकर/कोर्ट के फैसले के विरुद्ध/लगा दी गयी है पानी में आग/और जला दी गयी हैं बसें.../इस आहूत बंद में/यह जलती हुई कावेरी, कृष्णा और गोदावरी/कहां जाकर करेगी फरियाद?/क्या इन सब की सुनवाई/समुद्र करेगा।/फिलहाल समुद्र में नदियां/अपने अपने हिस्से का पानी तलाश रही हैं/अपनी अपनी नदियों के पक्ष में/रहनुमा खटखटा रहे हैं आंदोलन का द्वार/और पानी में मछलियां/लामबंद हो रही हैं इन के खिलाफ।'

Sunday 25 July 2010

बच्चों के खिलाफ घर से लेकर स्कूल तक गुंडागर्दी पर रोक स्वागतयोग्य




बच्चों पर होने वाली गुंडागर्दी पर रोक लगाने की दिशा में सरकार ने ठोस
कदम उठाने शुरू किये हैं यह स्वागतयोग्य है। अब तक सर्वाधिक प्रताडऩा का
वाला वर्ग बच्चों का ही है, जिनके खिलाफ कारगर तरीके से बहुत कम आवाज़
उठायी जाती है। उसका एक कारण यह है कि भले ही समाज में वंचितों के लिए
न्याय की अवधारणा पर बार बार विचार किया जाता रहा हो किन्तु बच्चों के
शोषण पर प्राय: ध्यान नहीं दिया गया। इस दिशा में बाल श्रमिकों के खात्मे
के लिए किसी हद तक कमज़ोर सी आवाज उठाकर कर्तव्य की इतिश्री मान ली गयी।
जबकि सच यह है कि सुविधा सम्पन्न घरों में भी बच्चों का शोषण उनके जन्म
के साथ ही शुरू हो जाता है। घर से शुरू यह शोषण स्कूलों में भी बदस्तूर
जारी रहता है। बच्चों के शोषण के तौर-तरीके अन्य प्रकार के शोषण से अलग
है इसलिए उसकी भयावहता दिखायी नहीं देती।
कई बार तो बच्चे के जन्म के पहले से ही उसके शोषण का ताना-बाना तैयार
होने लगता है। भ्रूण परीक्षण उसी का एक रूप है जो चिकित्सकीय आवश्यकताओं
से कम और इस इरादे से ज्यादा कराया जाता है कि वह पुत्र शिशु ही तो है न।
अर्थात 'मेरा नाम करेगा रोशन जग में मेरा राज दुलारा ' की कामना वाले लोग
अपना नाम रोशन करने और अपनी मान मर्यादा की रक्षा एवं उसमें इजाफे के लिए
उसे एक कारगर अस्त्र मिल जाता है और उसे मनचाहे तरीके से इस्तेमाल करने
की जुगत में जाते हैं। माता-पिता, कुल-खानदान के लिए संतानें एक ऐसा जीव
होती हैं जिन पर वे अपने सपनों का बोझ लाद देते हैं और उसके जीवन के
लक्ष्य, उसकी जिम्मेदारियां स्वयं निर्धारित कर देते हैं। वह क्या बनेगा
यह बच्चे की अपनी च्वाइस नहीं हुआ करती। उसके लक्ष्य के निर्धारण में
बच्चे की क्षमता गौण होती है और अभिभावक की प्रमुख। भावात्मक दबाव के
बावजूद जब बच्चा उनके चाहे तौर-तरीके नहीं अपनाता और निर्धारित लक्ष्य की
दिशा में ही आगे नहीं बढ़ता तो उस पर प्यार का दावा करने वाले अभिभावक ही
बल प्रयोग करने लगते हैं। अपने बच्चों को पिटाई को मां-बाप इस दावे के
साथ ग्लोरीफाई करते हैं कि वे बच्चे की बेहतरी के लिए ही ऐसा कर रहे हैं।
अपने को सभ्य समझने वाले अभिभावक दुनिया भर का अनुशासन बच्चे पर लागू कर
अपने को गौरवान्वित समझते हैं।
और तो और ऐसे अभिभावकों की कमी नहीं है जो यह मानते है कि स्कूलों में भी
बच्चों की पिटायी हो ताकि वे ठीक से पढ़ें लिखें और अनुशासित हों। कई
बच्चे छोटी कक्षाओं में अनुशासन के नाम पर पिटते हैं और मां-बाप यह सोचकर
प्रसन्न रहते हैं कि उनकी संतान लायक बनायी जा रही है। अक्सर बच्चे स्कूल
से निकलकर कोचिंग पढऩे या घर पर ट्यूशन पढऩे में जोत दिये जाते हैं।
ट्यूशन पढ़ाने वाला शिक्षक भी बच्चों को पीटकर उसके अभिभावक पर अपनी
अच्छी इमेज बनाने में कामयाब रहता है।
यह प्रताडि़त बच्चे ऐसी स्थिति में किससे अपना दुखड़ा रोयें। एक तरह
बस्ते का बोझ, अव्यवहारिक बहुतायत में पाठ्यक्रमों का बोझ और अनुशासन के
नाम पर तमाम बंदिशें। बच्चे का स्वाभाविक जीवन छीनकर उन्हें
प्रतियोगिताओं के योग्य बनाने में जुटे अभिभावकों को जरा भी इस बात का
एहसास नहीं होता कि वे अपनी संतान के साथ कैसी बर्बरता कर रहे हैं। उन पर
निर्धारित लक्ष्य प्राप्ति का मानसिक बोझ इतना होता है कि नतीजे खराब
होने के दु:स्वप्न देखने लगते हैं और सचमुच खराब हो जाने पर आत्महत्या
जैसे कदम उठा बैठते हैं।
स्कूलों में बच्चों की पिटायी आम बात है और इसे नैतिक मानने में
समाजसुधारक होने का दम्भ भरने वाली तमाम इकाइयों को गुरेज नहीं। सामान्य
तबके के स्कूलों में तो शिक्षक पढ़ाने के लिए कम और बच्चों को दंडित करने
के लिए अधिक जाने जाते हैं। बड़ा होने के बाद भी मन में स्कूलों में चाक
से नहीं बेंत से अंकित इबारतें स्पष्ट रहती हैं।
यह तो अच्छा है कि पहले मां-बाप पर बच्चों को पीटने पर बंदिश लगी और अब
स्कूलों में शिक्षकों पर। इस दिशा में और कदम उठाये जाने की आवश्यकता है।
कोलकाता स्थित ला मार्टीनियर स्कूल के आठवीं कक्षा के छात्र द्वारा
आत्महत्या करने के मामले ने इतना तूल पकड़ा कि राष्ट्रीय बाल अधिकार
संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने सभी विद्यालयों में अनिवार्य रूप से 'बाल
अधिकार प्रकोष्ठÓ गठित करने की सिफारिश की है। इधर देश भर में कई स्कूलों
में शरीरिक दंड की शिकायतें बढ़ गयी थीं। आयोग ने शारीरिक दंड पर अपनी
सिफारिशें 22 जून 2010 को मानव संसाधन विकास मंत्रालय को पेश कर दी
जिसमें सभी राज्य सरकारों से स्कूलों में अनुशासन एवं दंड से जुड़े
विषयों के लिए प्रणाली को ढांचागत स्वरूप प्रदान करने को कहा गया है। इन
सिफारिशों के साथ कोलकाता के ला मार्टीनियर स्कूल के प्राचार्य एवं उप
प्राचार्य को हटाने की भी सिफारिश की गई है। एनसीपीसीआर की अध्यक्ष शांता
सिन्हा का कहना है कि आयोग ने शारीरिक दंड पर अपनी सिफारिशें मंत्रालय को
पेश कर दी हैं।
आयोग ने अपनी सिफारिशों में कोलकाता स्थित स्कूल के प्राचार्या एवं उप
प्राचार्य के अन्य शिक्षकों द्वारा छात्रों को शारीरिक दंड देने की
अनदेखी करने और स्कूल में भय का माहौल बनाने का भी उल्लेख किया। इसके साथ
ही स्कूल से शरीरिक दंड देने वाले शिक्षकों की वेतन वृद्धि रोकने तथा
शिक्षा के अधिकार कानून के आलोक में शिक्षकों के सेवा नियमों की समीक्षा
करने को भी कहा गया है।
रिपोर्ट के अनुसार सभी राज्य सरकारों से स्कूलों में छात्र, शिक्षक,
स्कूल प्रबंधन और अभिभावक को व्यवस्था से जोडऩे को कहा गया है ताकि
भविष्य में ऐसी घटनाओं को होने से रोका जा सके। आयोग ने अपनी सिफारिशों
में स्कूलों से अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा के अधिकार कानून पर अमल
सुनिश्चित करने को कहा है। इसमें विशेष तौर पर कानून की धारा 17 का
उल्लेख किया गया है जिसमें सभी प्रकार के शारीरिक दंड का निषेध है और
इसका उल्लंघन करने वाले मामलों में कड़ी कार्रवाई करने को कहा गया है। इस
संबंध में आरटीई की धारा 17 पर अमल के लिए राज्य नियम और दिशा निर्देश
तैयार करने को कहा गया है।
इधर, सरकार एक ऐसा कानून बनाने पर विचार कर रही है जिसके तहत मां बाप ने
अपने बच्चे के साथ क्रूरता की तो उन्हें जेल की हवा भी खानी पड़ सकती है।
यह कानून शिक्षण संस्थानों के अलावा बच्चों के पैरेंट्स, रिश्तेदारों,
पड़ोसियों या उनके मित्रों पर भी लागू हो सकता है। यानी अमरीका की तरह अब
भारत के बच्चों को भी उन पर अत्याचार करने वाले मां-बाप व रिश्तेदारों को
जेल भिजवाने का हक मिल सकता है।
प्रस्तावित कानून यदि अमल में आता है तो पहली बार बच्चे को पीटने पर
अभियुक्तों को एक साल की सजा या 5 हजार का जुर्माना हो सकता है लेकिन
दूसरी बार भी यदि इस तरह का मामला सामने आया तो दोषियों को तीन साल की
जेल और 25 हजार तक का जुर्माना भरना पड़ सकता हैै।
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय इस बिल के मसौदे को शीघ्र ही कैबिनेट में
लाने जा रहा है। महिला एवं बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ के मुताबिक बिल
के मसौदे पर चर्चा जारी है और जल्द ही इसे कैबिनेट में लाया जायेगा।
कोलकाता में कथित तौर पर प्राचार्य द्वारा बेंत से पिटाई के बाद एक छात्र
की आत्महत्या के बाद सभी ओर से दबाव के बीच लाल मार्टीनियर स्कूल फॉर
बॉयज ने शारीरिक दंड पर पाबंदी लगा दी। स्कूल के प्राचार्य सुनिर्मल
चक्रवर्ती ने स्वीकार किया था कि उन्होंने आठवीं कक्षा के छात्र रूवनजीत
रावला की बेंत से पिटाई की थी। हालांकि उन्होंने इसे आत्महत्या से जोडऩे
से इनकार किया और कहा कि वे परिणाम भुगतने को तैयार हैं। रूवनजीत के पिता
अजय रावला ने चक्रवर्ती के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी। विदित हो कि
रूवनजीत ने गत 12 फरवरी को आत्महत्या की थी।

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Thursday 15 July 2010

युवाओं को बहुत कुछ सिखाता है नारायण मूर्ति का जीवन

Sanmarg, 18 July 2010



पुस्तक : कॉरपोरेट गुरु नारायण मूर्ति/ लेखक: एन.चोक्कन/ प्रकाशक-प्रभात पेपरबैक्स, 4/19 आसफ अली रोड, नयी दिल्ली-110002/मूल्य: 95 रुपये

यह पुस्तक प्रमुख सॉफ्टवेयर कंपनी इन्फोसिस के मुख्य संस्थापक एवं उद्योगपति नारायण मूर्ति के जीवन की एक ऐसी विलक्षण तस्वीर पेश करती है, जो देश के उन युवाओं के लिए प्रेरणादायक हो सकती है जो अपने जीवन में नया कुछ कर गुजरने की चाहत रखते हैं। उनका जीवन विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए एक व्यक्ति की कहानी है जिसने अपना मार्ग स्वयं चुना और बनाया है। गरीबी दिन व्यतीत कर रहे हाईस्कूल के अध्यापक पिता की आठ संतानों में से वे एक थे।
आर्थिक तंगी के कारण आईआईटी की प्रवेश परीक्षा पास करने के बावजूद से प्रवेश नहीं ले पाये थे। शादी से पहले उनकी यह स्थिति नहीं थी कि वे अपनी प्रेमिका के साथ घूम-फिर सकें। शुरू में वे वामपंथी विचारधारा के प्रति उनका झुकाव था। यह वामपंथी विचारधारा ही थी जिससे अभिभूत होकर मूर्ति ने पेरिस में बचाया अपना अधिकतर पैसा वहीं लुटाया और खाली हाथ भारत लौट आये थे। हालांकि उन्हें बुल्गेरिया में वामपंथ को लेकर एक कटु अनुभव हुआ और उनकी अवधारणा बदल गयी। और उन्हीं दिनों वामपंथ, समाजवाद और पूंजीवाद के अच्छे पहलुओं पर आधारित एक कंपनी खोलने का निश्चय किया था। वे अब भी यह मानते हैं कि 'आदमी को खूब पैसा कमाना चाहिए और उससे जरूरतमंदों की मदद करनी चाहिए।'
अच्छी खासी नौकरी छोड़कर उन्होंने नौकरीपेशा अपनी पत्नी सुधा से 10 हजार रुपये उधार लिये और 1981 में अपने छह अन्य दोस्तों के साथ पुणे में इन्फोसिस की आधारशिला रखी। इस टीम के सदस्य इस प्रकार थे-एनआर नारायण मूर्ति, नंदन नीलकेनी, के दिनेश, एस गोपालकृष्णन, एनएस राघवन, एसडी शिबुलाल एवं अशोक अरोड़ा। यह सभी पाटनी कंप्यूटर्स में कार्यरत थे। यह टीम आज भी साथ है हालांकि इनमें से केवल अशोक अरोड़ा कुछ कारणोंवश 1989 में अलग हो गये।
शुरू के दस साल कंपनी के लिए कठिनाइयों के रहे लेकिन उन्होंने और उनके सोच के प्रति विश्वास रखने वाले दोस्तों ने सारी बाधाएं पार कीं और आज यह कंपनी दुनिया की एक जानी मानी सॉफ्टवेयर कंपनी है, बेंगलुरु में जिसका मुख्यालय परिसर विश्व का सबसे बड़ा कंप्यूटर सॉफ्टवेयर परिसर है। 90 हजार कर्मचारियों वाली इस कंपनी का राजस्व 2008 में 4.18 अरब अमरीकी डॉलर के पार पहुंच गया।
इस किताब को पढ़ते हुए हमें एक दृढ़ निश्चयी व्यक्ति को करीब से जानने-समझने का मौका मिलता है। हमें यह भी पता चलता है कि यदि इन्फोसिस कंपनी इतनी बुलंदी तक पहुंची तो उसका कारण मूर्ति का वृहत्तर विजन था-'अपने नहीं देश के लिए धन कमाने का।' वे मानते हैं कि 'कोई कंपनी किसी भी तरह से सफल हो सकती है लेकिन अगर उसमें सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना न हो तो वह सफलता पूरी नहीं हो सकती।' दूसरी तरफ उन्हें ऐसी जीवनसंगीनी सुधा मिली थीं जो टाटा कंपनी समूह के अध्यक्ष जे.आर.डी.टाटा की इस सीख पर अमल करने में विश्वास रखती हैं कि 'हमें वह लाभ समाज को लौटा देना चाहिए, जिसे हम उसी से अर्जित करते हैं।' सुधा स्वयं टाटा की कंपनी टेल्को में कुछ अरसे तक कार्यरत थीं, जिसे उन्होंने पारिवारिक व्यस्तताओं के कारण छोड़ दिया था।
1996 में स्थापित इन्फोसिस फाउंडेशन का नेतृत्व सुधा नारायण मूर्ति के हाथ में है, जो स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक विकास के कार्यों को समर्पित है और वार्षिक पांच करोड़ रुपये इन कार्यों पर खर्च होता है।
मूर्ति और नारायण सुधा आज भी बेंगलुरु के जयनगर इलाके के एक अपार्टमेंट में एक साधारण फ्लैट में रहते हैं जहां कोई नौकर नहीं है और ना रसोइया। घर के काम-काज में तब तब मूर्ति भी सुधा का हाथ बंटाते हैं। यही कारण है कि उन्हें 'कॉरपोरेट गांधी' कहा जाता है। वे गांधीजी के जीवन दर्शन से काफी प्रभावित रहे हैं।
इस पुस्तक का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह भारत में औद्योगिक परिदृश्य के बदलाव को भी चित्रित करती है। 1991 के पहले का भारत भी इसमें है जब औपचारिकताओं के नाम पर तमाम बाधाएं पहुंचायी जाती थीं और बाद का परिदृश्य है जब भारत दुनिया में क्रमशः आर्थिक शक्ति बनता गया। 1991 में नरसिंह राव की सरकार में वित्तमंत्री मनमोहन सिंह थे और दोनों के आर्थिक सुधारों का लाभ इन्फोसिस जैसी तमाम कंपनियों को मिला, जो नये तरह का उद्यम लगाने को तत्पर थीं।
यह पुस्तक व्यवसाय से जुड़े लोगों के लिए ही नहीं बल्कि जनसामान्य के लिए भी पठनीय है। इसके लेखक एन. चोक्कन तमिल के जाने माने लेखक है जिनकी तीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं तथा वे एक सॉफ्टवेयर कंपनी में निदेशक होने के कारण उस दुनिया को करीब से जानते समझते हैं जिसके शीर्ष पुरुषों में मूर्ति का शुमार होता है। पुस्तक का हिन्दी अनुवाद महेश शर्मा ने किया है।

Wednesday 7 July 2010

ममता की ताजपोशी की तैयारी



साभार: सबलोग, मई, 2010



साभार: सबलोग मई, 2010
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