Wednesday, 2 June 2010

परिवर्तन की आंधी में बंगाल ममता की ताजपोशी को तैयार


स्थानीय निकाय परिणाम
पश्चिम बंगाल में कुल 16 जिले के 81 निकायों में चुनाव हुए।
जिनमें से 36 निकायों पर जीती टीएमसी।
18 पर लेफ्ट विजयी रही।
6 पर कांग्रेस ने जीत हासिल की।
शेष 21 पालिकाओं में किसी एक दल को बहुमत नहीं मिला है।

कोलकाता नगर निगम के चुनाव परिणाम
कुल सीटों (वार्ड) की संख्या 141
सभी 141 वार्डों के नतीजे घोषित
टीएमसी जीती 95 पर।
सीपीएम जीती 33 पर।
कांग्रेस जीती 10 पर।
बीजेपी जीती 3 पर।
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पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्ववाले दल तृणमूल कांग्रेस ने राज्य और देश में वामदलों की साख को करारा धक्का पहुंचाया है। बंगाल में लगातार तीन दशक से अधिक अवधि तक राज करने के बाद वाम दलों को गुरूर हो गया था और वे जनता की भावनाओं को तरजीह देने के बदले उन्हें अपने तौर पर हांकने पर आमादा हो चले थे। यह आवाम के बदले कैडर राज में तब्दील हो गया था। उनकी शेखियां हवाई हो चुकी थीं और दिमाग सातवें आसमान पर। विचारशील पैंतरेबाजियों वाले इन दलों का उनका मानसिक दिवालियापन व बड़बोलापन तब सामने आया जब संप्रग सरकार के गठबंधन को उन्होंने केन्द्र में अपने दिये गये समर्थन को वापस लिया। उन्होंने न तो महंगाई के मुद्दे पर सरकार पर दबाव बनाया ना ही बदहाल बंगाल के लिए पैकेज की ही मांग की। वे लगातार परमाणु समझौते को रद्द किये जाने के तरजीह देते रहे और अन्तः प्रधानमंत्री को बदलने की बिनमांगी सलाह संप्रग को देने के बाद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली। केन्द्र सरकार को में बिना किसी उपलब्धि के चार साल तक बाहर से समर्थन देते रहे। और अंत में किसी भी स्तर पर जाकर सरकार गिराने की विफल कोशिश में मात खायी। इसी कोशिश में बौखलाये वामपंथियों ने तब अपनी इमेज और बिगाड़ ली जब दलित की बेटी होने की एकमात्र क्वालीफिकेशन के आधार पर मायावती को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाने का ख्वाब देखा और उजाकर किया। भ्रष्टाचार के कई आरोपों में लिप्त मायवती को नैतिक समर्थन देने का इरादा जाहिर कर बंगाल के बौद्धिकों की निगाह में वामदल वाले गिरते चले गये।
इसके बाद जो परिस्थितियां बंगाल में पैदा हुई वह उनके संभाले न संभली। कारखाने के लिए भूमि अधिग्रहण पर मुआवजे का मसला हल कर कर पाना यहां की सरकार की नासमझी को उजागर कर गया। टाटा के नैनो के लिए भूमि अधिग्रहण के मसले को ममता बनर्जी ने अपना हथियार बनाया और आम लोगों के प्रतिरोध की आवाज बनकर सामने आयीं। और वाम दलों ने केन्द्र से समर्थन वापस लेने के बाद बंगाल में बिगड़ रहे हालत पर काबू पाने में केन्द्र का समर्थन नहीं मांगा। और यहां जो औद्योगिक वातावरण बुद्धदेव भट्टाचार्य तैयार करना चाहते थे, बिगड़ता चला गया।
गौरतलब यह है कि वामदलों को किसी बुर्जुआ दल ने नहीं हराया है। ना ही किसी विचारधारा वाले दल ने। बल्कि लगभग दिशाहीन दल, जिसका नेतृत्व एक चंचल वृत्ति की महिला ममता बनर्जी के हाथ में है। इसका अर्थ यह निकलता है कि यहां लोगों को परिवर्तन चाहिए था और तृणमूल कांग्रेस के अलावा कोई ऐसा दल यहां सक्रिय नहीं जिसमें किसी भी अर्थ में यहां की सरकार को बदलने की सामर्थ्य तो दूर इच्छाशक्ति तक हो। दूसरे यह कि जिन अंचल के लोगों ने हराया उनमें देहात के वंचित वर्ग के लोग हैं भी और वहां के लोगों ने भी जहां कल-कारखाने तो हैं पर उनमें अधिकतर तालाबंदी है। जबकि भूमि सुधार का मामला वामपंथ के लिए हमेशा से गर्व का मामला रहा है और कल-कारखानों में सशक्त ट्रेड यूनियनों की उपस्थिति यह दर्शाती थी कि वह प्रबंधन से अपनी मांगें मनवा पाने में सक्षम है। वाममोर्चा की मौजूदा विफलता बताती है कि दोनों मोर्चों पर मौजूदा सरकार से मोहभंग ने यहां के राजनैतिक परिवर्तन को रसद ही नहीं पहुंचायी बल्कि यह बदलाव लाने वाले वे लोग हैं जो कभी न कभी वामपंथ के प्रति आस्थावान रहे हैं। और वह मुस्लिम वर्ग भी वाम से खफा हो गया जो धर्म निरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम मतदाताओं का हिमायती बना हुआ था। इस वर्ग के देर से ही समझ में आ गया कि इस सरकार ने मुस्लिम वर्ग का केवल इस्तेमाल किया है, उनके हालत बदलने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।
इससे यह भी स्पष्ट है कि परिवर्तन चाहने वाली जनता का हौसला बढ़ा है और ममता बनर्जी ने कोई नयी मूर्खता नहीं की तो आगत विधानसभी चुनाव में उनकी विजय तय है। हालांकि इतिहास गवाह है कि यह दौर क्षणिक होता है और विद्रोह के लिए जाने जानी वाली अग्निकन्या अपनी ही खामियों के कारण अपनी उपलब्धियों को न जाने कब खो बैठेगी, इसकी आशंका बराबर बनी रहेगी।
तृणमूल के साथ वे युवा नहीं हैं जो पढ़-लिखकर बंगाल में ही अपना भविष्य संवारना चाहते थे क्योंकि टाटा की दुनिया की सबसे सस्ती कार नैनो का कारखाना बंगाल से हटकर गुजरात के सांणद में शुरू हुआ। उसका दोष ममता के सिर जाता है। यह इक्तफाक की बात है कि जिस दिन स्थानीय निकाय के नतीजे निकले हैं उसी दिन टाटा मोटर्स ने दुनिया की सबसे सस्ती कार नैनो के विनिर्माण कारखाने का उद्घाटन किया। पश्चिम बंगाल से बाहर होने के बाद यहां नया कारखाना स्थापित करने में दो साल का समय लग गया। गुजरात के साणंद में कंपनी के इस कारखाने का उद्घाटन राज्य के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और टाटा समूह के अध्यक्ष रतन टाटा ने किया। नैनो का यह कारखाना 2,000 करोड़ रुपये की लागत से 1,100 एकड़ क्षेत्र पर बना है।
ममता बनर्जी को पश्चिम बंगाल का अगला मुख्यमंत्री का ताज पहनाने को तो आम जनता तैयार है मगर यह ताज कितने दिन रहेगा यह कहना मुश्किल है। लोगों के विश्वास को पलीता औद्योगीकरण के मुद्दे पर ही लगेगा क्योंकि वाम से भड़कने वाले उद्योगपति किसी तरह उन्हें झेल गये और बुद्धदेव भट्टाचार्य के मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके मन में वाम के प्रति साफ्ट कार्नर बनना शुरू हुआ था जिस पर ममता बनर्जी के आंदोलनों ने न सिर्फ पानी फेर दिया बल्कि पूरी दुनिया में संदेश गया कि बंगाल में औद्योगीकरण के खिलाफ वातावरण केवल वाम का मुद्दा नहीं है बल्कि वह यहां की फिजाओं में बुरी तरह पसरा हुआ है। देश भर में जिन नक्सलियों की हिंसा से चिन्ता व्याप्त है उनके प्रति ममता बनर्जी और उनके पक्ष में खड़े महाश्वेता देवी जैसे बुद्धिजीवियों की सहानुभूति खतरनाक संकेत देती है जो व्यावसायिक महौल के विपरीत है।
ममता की पटरी से उतरने के बाद बंगाल की राजनीति की ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद फिर वामदलों की मोहताज होगी या दूसरा विकल्प है राहुल गांधी का। यदि उन्होंने बंगाल के विकास में दिलचस्पी दिखायी और जमकर फील्ड वर्क किया तो कांग्रेस के लिए फायदेमंद हो सकता है। हालांकि फिलहाल ममता बनर्जी कह रही हैं कि अगला चुनाव संप्रग के साथ मिल कर लड़ेंगी लेकिन ऐन वक्त पर कौन सी छोटी सी बात उनके ईगो को हर्ट कर जायेगी कहना मुश्किल है। फिर भी बंगाल में राजनीतिक परिवर्तन के इतिहास में उनके प्रयास मील के पत्थर साबित होंगे इसमें शक नहीं। खास तौर पर इसलिए भी कि वे जिस वाममोर्चा से टकरा रही हैं उसके विचार मार्क्स के हैं और जिस कांग्रेस की वे केन्द्र में सहयोगी हैं उसका आजादी के दौर से ही लम्बा चौड़ा इतिहास रहा है और जिसकी बंगाल में ममता के सामने कोई औकात नहीं है। ऐसे में जनता की बदलाव की चाहत ही वह केन्द्रीय मुद्दा है जो ममता को परिवर्तन में सहायक साबित होगा।
इस बार के स्थानीय निकाय चुनाव में राज्य स्तर पर तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस का गठबंधन नहीं हुआ था, जिसके कारण दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा। इन नतीजों का महत्व इसलिए और भी है क्योंकि अगले साल पश्चिम बंगाल में विधान सभा चुनाव होने हैं। कांग्रेस को भी राज्य में गठबंधन के समय कमजोर स्थिति के कारण नरम होकर सीटों का तालमेल करना पड़ेगा। पश्चिम बंगाल की मुख्य विपक्षी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने ममता बनर्जी के नेतृत्व में राज्य के चुनावों में जीत का सिलसिला बरकरार रखा है। तृणमूल ने 2009 में हुए लोकसभा चुनाव दोनों दल साथ लड़े थे। इस बार के स्थानीय निकाय चुनावी नतीजों से इस बात को साबित कर दिया कि बनर्जी ने कहा कि यह मां-माटी-मानुष की जीत है। उन्होंने यह जनादेश राज्य में राजनीतिक परिवर्तन के लिए दिया है। हालांकि वाम मोर्चे के अध्यक्ष विमान बोस ने कहा कि हम अभी से अगले साल चुनाव तक लोगों का विश्वास जीतने के लिए वाम मोर्चा बहुत मेहनत करेगा। यहां यह गौरतलब है कि स्थानीय निकाय चुनाव कोलकाता और शहरों व कस्बों में हुए हैं, जबकि पश्चिम बंगाल-विधानसभा की 294 सीटों में लगभग दो सौ देहाती अंचल में हैं। वहां पंचायतों में तृणमूल कांग्रेस ने असर तो दिखाया है, पर वाममोर्चा के पास अब भी पंचायती लोकतंत्र का बहुमत है। दो सौ सीटों का यह आंकडा ममता बनर्जी को पूरा करना होगा। ममता बनर्जी कांग्रेस के बगैर वाममोर्चा की सरकार का सफाया कर देंगी, यह अस्पष्ट है।
तृणमूल कांग्रेस की अपनी हैसियत बहुत नहीं है। वह एक क्षेत्रीय पार्टी ही है और ममता बनर्जी को रेल मंत्री होने का फायदा भी इस चुनाव में मिला है। संप्रग ने भी उन्हें मंत्रिमंडल में बहुत तरजीह दी है क्योंकि उन्हें वामदलों से हिसाब चुकता करना है। ममता ने कई नयी रेलगाडियां चलाई हैं और बंगाल को इसमें विशेष तरजीह दी गयी है, जिसको लेकर उन्हें देश भर में पक्षपात के आरोपों का सामना भी करना पड़ा है। वे केन्द्रीय रेल मंत्रालय का लाभ बंगाल विधानसभा चुनाव के लिए कर रही हैं और देर सबेर इस बात को लेकर उनकी निन्दा भी होनी है।
1977 से पहले पश्चिम बंगाल में कांग्रेस का राज था। सिद्धार्थ शंकर रॉय वहां के आखिरी कांग्रेसी-मुख्यमंत्री थे और आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी-विरोधी लहर के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने पश्चिम बंगाल की सत्ता पर कब्जा कर लिया। तब से 33 साल हो गए, पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा का शासन ही चला आ रहा है। ज्योति बसु ने उम्र के कारण राजनीति से अवकाश ले लिया और उन्होंने बुद्धदेव भट्टाचार्य को वहां की कमान सौंप दी। पार्टी की अपनी गुटबाजी के कारण भट्टाचार्य ममता बनर्जी के आंदोलनों का सामना करने में विफल रहे। कांग्रेस में स्थानीय नेतृत्व का अभाव है, जिसका लाभ ममता बनर्जी को मिला है। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस तृणमूल कांग्रेस के नेतृत्व में तालमेल करके चुनाव लडेगी तो यह परिर्तन की लहर अपना कमाल अवश्य दिखायेगी। और पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस की मिली-जुली सरकार बनेगी। राज्य में पहली महिला मुख्यमंत्री ममता बनेंगी। मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और राहुल गांधी तीनों ने फिलहाल पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के साथ बने रहने का मन बना लिया है। प्रणब मुखर्जी ने भी तृणमूल से गठबंधन पर मुहर लगा दी है।

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