Monday 30 November 2009

घोड़ा कहिए जनाब


झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को सोमवार को गिरफ्तार कर लिया गया है। मामला आय से अधिक संपत्ति का है। उन्हें राज्य के विजिलेंस विभाग ने गिरफ्तार किया है। 4000 करोड़ रुपए के हवाला और संपत्ति मामले में प्रवर्तन निदेशालय ने उनको कई बार नोटिस भेजा है, लेकिन अब तक वह पूछताछ से बचते रहे हैं। शुरुआत में कुछ दिन तबीयत खराब हो जाने के कारण वह कई दिनों तक अस्पताल में भर्ती रहे थे, जिसके बाद वह चुनाव प्रचार के बहाने पूछताछ से बचते रहे। फिलहाल कोड़ा निर्दलीय सांसद हैं। आरोपों को सुनकर लगता है कि कोड़ा दरअसल लोकतंत्र का वह घोड़ा हैं जिस पर काबू पाना आसान नहीं है।
लोकतंत्र में ऐसी तमाम व्यवस्थाएं हैं जिससे कोई शातिर चाहे तो आराम से देश को चरता हुआ ऐशो आराम की ज़िन्दगी बसर कर सकता है। यदि आरोपों में सच्चाई तो यही कहा जायेगा कि कोड़ा ने इसे जल्दी पहचान लिया। दरअसल किसी भी देश की शासन व्यवस्था में हमेशा से यह खूबियां रही हैं कि उसमें चोर दरवाजे़ होते हैं जिनसे कोई सत्ताधारी सावधान रहे तो बचकर हर हाल में निकल सकता है। यह दरवाजा किसी ईंट के खिसकाने से खुल जायेगा बस इसका पता होना चाहिए। राजनीति का शास्त्र जन के पश्र में एक छद्म रचता है लेकिन अंततः वह सबल के पक्ष में रास्ते बनाता है। इसी पर तो दुनिया की सारी अदालती व्यवस्थाएं टिकी होती हैं।
अपराधों से बच निकलने के रास्ते हर जगह पहले से ही बने होते हैं उन्हें हर बार नये सिरे से खोजना होता है। उन रास्तों को सबल के पक्ष में उसके वकील खोजते हैं। अगर चोर दरवाजे़ न होते तो एक अदालत में सजा सुनने के बाद वही व्यक्ति उसी कानून व्यवस्था में दूसरी अदालत से कैसे बरी हो जाता है और फिर यदि एक ही संविधान के आधार पर सजा तय होनी है तो सारा निर्णय एक ही अदालत क्यों नहीं करती। और यदि सचमुच न्याय के लिए ही अदालतें हैं तो फिर उसकी कीमत न्याय की फरियाद करने वाले को क्यों चुकानी होती है। क्या यह सच नहीं है कि मामला तब तक ही चलता है जब तक न्याय पाने के अभिलाषी की मुकदमा लड़ने की शक्ति होती है। यदि वह पस्त हो जाता है तो मामला आगे नहीं बढ़ता। देश में ज्यादातर ऐसे लोग हैं जो जीते हुए मुकदमों के बावजूद प्रसन्न नहीं हैं। और अदालतों का चक्कर काटते काटते वे जान चुके होते हैं कि जो न्याय उन्हें मिलेगा वह अर्जित किया हुआ है वह अपने आप मिला न्याय नहीं है।
व्यवस्था की खामियों का लाभ उठाने की नीयत से इस देश में घोड़े जन्म लेते हैं और मुल्क को चर जाते हैं। और समाज में उनकी न तो प्रतिष्टा कम होती है न लोकप्रियता। पूरा देश जानता है कि कोड़ा जिस तरह के मामले में फंसे हैं या स्वयं कोड़ा के शब्दों में कहें तो फंसाये गये हैं उनका बाल बांका नहीं होना है। अलबत्ता दो चार ट्रक मुकदमे के कागजात जरूर तैयार हो जायेंगे जैसा लालू जी के चारा घोटाला प्रकरण में हुआ। झारखंड विधानसभा चुनाव में पश्चिमी ¨सिहभूम की जगन्नाथपुर सीट से उनकी पत्नी प्रत्याशी पत्नी गीता कोड़ा चुनाव लड़ रही हैं। चर्चा का बाजार गर्म है कि उनकी जीत तय है। जनता ऐसे पराक्रमी लोगों को अपना प्रतिनिधि बनाने से गुरेज नहीं करती।
कोड़ा का यह कोई पहला कारनामा नहीं है। सत्ता की खूबियों खामियों का उन्हें पता नहीं होता तो वे कांग्रेस और राजद के सहयोग से निर्दलीय होते हुए भी मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच पाते। ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने उन चोर दरवाजों को खोज लिया है जहां से प्रगति के रास्ते भी खुलते हैं और बच निकलने के रास्ते भी।
देशभर के कई शहरों में कोड़ा और उनके करीबी सहयोगियों के 70 से अधिक ठिकानो पर आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय के छापों में कोई 2000 करोड़ रुपये से अधिक की नामी-बेनामी संपत्ति का पता चला है। इसमे लाइबेरिया से लेकर दुबई, मलेशिया, लाओस, थाईलैंड और सिंगापुर जैसे देशों में संपत्ति खरीदने से लेकर कोयला और स्टील कंपनियों में निवेश तक की सूचना है। उनकी सम्पत्तियों के बारे में जितने मुंह उतनी बातें हैं और हर कोई बढ़ा चढ़ा कर आंकड़े देने में लगा है। पराक्रम के किस्सों में ऐसा होता ही है। कोड़ा का यशगान जारी है। हैरत नहीं कि कोई कोड़ा चालिसा लिख बैठे। देखना यह कि कैसे उन पर आरोपों का पुलिंदा तैयार होता चला जायेगा और कैसे सारी तलवारें कागजी बन कर रह जानी है।

Sunday 29 November 2009

मैं सदैव तुम्हारे साथ हूं, दूर नहीं-लोढ़ा


जीवन वृत्त-एक नज़र
जन्‍म-28 सि‍तम्‍बर 1921। निधनः 21 नवम्बर कीरात लगभग 2.30 बजे जयपुर में। कोलकाता के सेठ आनंदराम जयपुरि‍या कॉलेज में हि‍न्‍दी प्रवक्‍ता के रूप में अध्यापन शुरू किया। 1953 में कलकत्‍ता वि‍.वि‍. के हि‍न्‍दी वि‍भाग में पूर्णकालि‍क शि‍क्षक के पद पर नि‍युक्‍ति‍। सन् 1979-80 के बीच जोधपुर वि‍श्‍ववि‍द्यालय के कुलपति‍। उनके निर्देशन में पचास से ज्‍यादा पीएचडी। 11 मौलि‍क कि‍ताबें प्रकाशित और 14 कि‍ताबें संपादि‍त। साहित्यिक अवदान के लिए मूर्ति देवी पुरस्कार, केंद्रीय हिंदी संस्थान-आगरा से राष्ट्रपति द्वारा सुब्रमण्यम सम्मान, अमरीकन बायोग्राफिकल सोसाइटी अदि ने सम्मानित किया। केके बिरला फाउन्डेशन, भारतीय विद्या भवन, भारतीय भाषा परिषद्, भारतीय संस्कृति संसद जैसी संस्थाओं से सम्बद्ध रहे।

श्रद्धांजलि
हिन्दी का आभिजात्य स्वरूप जिन कुछेक लोगों में दिखायी देता है उनमें प्रो.कल्याणमल लोढ़ा का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। हिन्दी में लिखने-पढ़ने वालों की कुछेक श्रेणिया बनायी जा सकती हैं जिनमें एक तो दीनहीन दिखायी देते हैं जिन्हें देखकर करुणा जैसा भाव पैदा होता है। वे स्वयं इस भाव से हिन्दी लेखन पाठन में जुटे रहते हैं जैसे हिन्दी सेवा मांग रही हो और वे सेवक हों। दूसरी श्रेणी वे रखे जा सकते हैं जो संस्कृत और संस्कृति के बोझ से स्वयं दबे दिखायी देते हैं और बात-बात पर दूसरों की अज्ञानता का खुलासा करना नहीं भूलते। उनके लिए सब कुछ महत्वपूर्ण पहले ही लिखा जा चुका है और अब जो लोग लिखने पढ़ने के लिए बचे हैं उनका काम इतिहास को ढोना है। लिखे हुए का अनुशीलन करना ही रचनात्मकता है और हिन्दी में लिखने का स्वर्णकाल तो कब का चला गया है और यह जो नारीमुक्ति, दलित और वाम लेखन है उसने साहित्य का सर्वनाश कर रखा है। तीसरे वे हैं जिनके पास पश्चिम के कोटेशन हैं। उसकी दो शाखायें है एक जिसमें मार्क्स का चिन्तन मनन उसी प्रकार होता है जैसे कीर्तन में हरे राम हरे कृष्ण होता है। दूसरी शाखा उसकी है जो मार्क्स को खारिज करते हैं किन्तु अवधारणाएं पश्चिमी हैं और यह दोनों ही उद्धरणों के पत्थर हर नयी बात पर उछालकर उसे ध्वस्त करते रहते हैं। उधार की बातें, उधार का चिन्तन उधार की जीवन शैली। कहीं दैन्य तो कहीं दम्भ। संतुलन का सिरे से अभाव। इन सबके बरक्स प्रो.लोढ़ा की शैली एकदम संतुलित, धीर गंभीर थी। वे जो कुछ भी कहते उसमे एक शालीनता और एक गरिमा थी। पूर्व व पश्चिम का अद्भुत सामंजस्य उनके आलेखों में मिलता है। भवभूति व कालिदा सहित दुनिया भर के विद्वानों को वे भी कोट करते थे लेकिन उसे मौजूदा संदर्भों से जोड़कर देखने की लियाकत थी जो उनके विचार को एक मौलिक टच देती थी।
एक बात और यहां उल्लेख करना चाहूंगा कि मंचों पर अपनी उपस्थिति विशेष तौर पर दर्ज कराने का उनका एक सुनिश्चित फंडा था। वे किसी समारोह की अध्यक्षता को तो तैयार हो जाते थे लेकिन कार्यक्रम में पूरे समय तक उपस्थित नहीं रहते थे। दो-एक वक्ताओं को सुनने के बाद वे घड़ी देखने लगते थे और मंच संचालक कहता नजर आता था कि लोढ़ा जी को एक और समारोह में जाना है और उन्हें देर ही रही है इसलिए अध्यक्षीय भाषण अन्त में होने के ट्रेंड को तोड़ते हुए लोढ़ा जी बीच में ही अपना वक्तव्य चल देते थे।
मंचों पर उन्हें भाषण देते कई बार सुनने का अवसर मिला है और उसे किसी न किसी अखबार के लिए कवर करने का भी। कई बार ऐसा भी हुआ है कि कार्यक्रम में पहुंचने में विलम्ब हुआ और उनका वक्तव्य समाप्त हो चुका हो तो बाद में फ़ोन पर भी उनसे पूछने में भी मैं संकोच नहीं करता था कि उन्होंने सभा में क्या कहा था। एक बात गौर करने की यह थी कि मंचीय वक्तव्यों में सामान्य तौर पर उनके कोटेशन फिक्स थे और हर बात को कहने के लिए उसी प्रसंग का जिक्र करते थे जिसमें पाब्लो पिकासो की पेंटिग "गुएर्निका" का जिक्र भी शामिल है, जो स्पेनिश गृह युद्ध में छोटे से कस्बे बास्क को तहस-नहस करने के खिलाफ उनके आक्रोश का प्रतिबिंब थीं।
उन्होंने मीडिया को लिखने-पढ़ने में सहर्ष सहयोग किया है। कई बार ऐसा भी हुआ है कि किसी प्रख्यात रचनाकार की मृत्यु हो गयी हो या फिर कोई अन्य सांस्कृतिक मसले पर प्रतिक्रिया हो उनसे देर रात भी जगाकर प्रतिक्रिया ली गयी है। वे जानते थे मीडिया के कामकाज के तौर-तरीके और उसकी मज़बूरियां। उन्होंने कभी बुरा नहीं माना। कई बार अपने व्यक्तिगत लेखन में भी किसी शब्द के प्रयोग को लेकर मुझे उलझन होती तो उनसे पूछ लेता था। लोढ़ा जी का मुझसे सम्पर्क बनाये रखने का एक कारण मेरा मीडिया से जुड़ा होना भी था। किसी भी समारोह में वे मीडिया के लोगों का काफी ध्यान रखते थे और व्यक्तिगत तौर पर यथासम्भव सम्पर्क भी रखते थे।
मेरे कोलकाता नागपुर से एमए करके आया था इसलिए उनसे पढ़ने का अवसर मुझे नहीं मिला था। जब मैंने पीएचडी के लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय से शोध प्रारम्भ किया था उस समय वे पीएचडी कमेटी में थे, आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री और डॉ.प्रबोधनारायण सिंह के साथ। मेरे लिखे को वे पसंद करते थे। मेरी जो भी किताब प्रकाशित होती थी मैं उन्हें भेजता था और उन पर उनकी प्रतिक्रियाएं भी मिलती थीं। पत्राचार को वे पर्याप्त महत्व देते थे और संभवतः सभी के सभी पत्रों का जवाब देते थे। कई बार उनके घर भी मुझे जाने की मौका मिला है। एक अखबार की ओर से उनके जन्म दिन पर उनकी इंटरव्यू लेने भी गया था। कुछेक साहित्यिक समारोहों में मुझे उन्हें उनके घर से आयोजन स्थल पर भी ले जाने या पहुंचाने की जिम्मेदारी उठानी पड़ी इसलिए रास्ते में भी उनसे काफी बातें करने का अवसर मिला। एकाध बार उनकी फटकार भी सुनने का मौका मिला है। मैंने नाद प्रकाशन शुरू किया था और डॉ.सुकीर्ति गुप्ता का कविता संग्रह 'शब्दों से मिलते जुलते हुए' में प्रूफ़ की गल्तियां छूट गयी थीं। वह किताब सुकीर्ति जी ने अपने गुरु लोढ़ा जी को समर्पित की थी। इसलिए किताब़ में प्रूफ की गल्तियों पर उनकी फटकार भी मुझे सुनने को मिली थी। प्रो.लोढ़ा कोलकाता व बाहर के लिखने पढ़ने वालों के सम्बंध में अपने विचार भी शेयर करते थे। मैं उन दिनों खूब पढ़ता था नयी से नयी पत्रिका और लाइब्रेरियों की भी खाक छानता था सो वे नये लिखने-पढ़ने वालों के बारे में पूछते भी थे। यह भी उतना ही सही है कि मैं उनका शिष्यवत कभी नहीं था। ज्यादातर लिखने- पढ़ने वालों के साथ समानता के स्तर पर ही सम्बंध का निर्वाह कर पाता हूं उनके साथ भी मेरा यही व्यवहार था। अपनी असहमतियां व्यक्त करने में मुझे गुरेज नहीं था। उनकी बातचीत के प्रमुख विषय जिन व्यक्तियों से जुड़े होते थे उनमें प्रो.विष्णुकान्त शास्त्री, डॉ.कृष्ण बिहारी मिश्र, डॉ.सुकीर्ति गुप्ता, डॉ.शंभुनाथ प्रमुख थे। और वे यह पसंद करते थे कि उनके साथ हुई बातचीत किसी से शेयर न की जाये। वे सम्बंधों की प्राइवेसी को पर्याप्त तरजीह देते थे। इसलिए कई लोगों को उनका मिला सहयोग कभी चर्चा में नहीं आया पर उन्होंने बहुतेरों की आवश्यकतानुसार मदद की है। वे सकलदीप सिंह के पाश्चात्य साहित्यिक अध्ययन का लोहा भी मानते थे, जो अरसे तक मेरे फ्रैंड-फिलासर-गाइड रहे हैं। हालांकि तुलसी, सूरदास, कबीर, निराला, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी के साहित्यिक अवदान की चर्चा वे अक्सर करते और समकालीन लेखन पर उतनी पकड़ उनकी नहीं थी। प्रसाद की 'कामायनी' उनकी प्रिय कृति थी।
अपने व्यवसाय के डूबने के बाद के दिनों में और कोलकाता के छूटने के हालत बनने पर मैंने एक नाराजगी भरा पत्र उन्हें लिखा था। उसका जवाब भी मिला था। मुद्दा मुझे अब याद नहीं पर उनका पत्र यूं था-
कलकत्ता
03. 01.96
प्रिय अभिज्ञात

तुम्हारा 29.12.96 का पत्र आज मिला। अच्छा लगा। सर्व प्रथम नववर्ष की शुभकामनाएं सपरिवार स्वीकार करो। तुम्हारा उपालम्भ भी मिला। मैं तो सदैव तुम्हारे साथ हूं दूर नहीं। ऐसा क्यों सोचा। तुम्हारे ग्रंथ भी पढ़े हैं-तुममें प्रतिभा है और लगन भी। मैं अपनी सीमा में जो कुछ भी होगा, सहयोग दूंगा। अभी कलकत्ते में ही हूं। फोन न.4642300 है। मिलें तब विस्तृत चर्चा होगी।
सस्नेह
तुम्हारा
कल्याणमल
कल्याणमल लोढ़ा
2ए, देशप्रिय पार्क ईस्ट
कलकत्ता-7200021
पत्र मिलने का बाद जब मैं उनसे मिलने गया था उन्होंने मेरी मदद करने के कुछ उपक्रमों की चर्चा की लेकिन वे मुझे मंजूर नहीं थे। एक अफलातूनी मानसिकता थी उन दिनों जिसके चलते हालत यह बने कि मदद मांगने वाला शर्ते रख रहा था। बात बेनतीजा रही लेकिन यह भाव जीवन भर मन में कायम रहेगा कि वे मेरी मदद करना चाहते थे। मुसीबतजदा व्यक्ति के पास खड़े होने की ज़हमत कम ही बुद्धिजीवी लेते हैं। लोढ़ा जी उनमें से एक थे।
बाद के दिनों में जब कोलकाता मुझसे आखिरकार कुछ अरसे के लिए छूट गया तो लोढ़ा जी से सम्पर्क भी टूट गया। अब उनके देहावसान ने उनकी यादें ताजा कर दीं। उन्हें मेरी श्रद्धांजलि। उनके बाद हिन्दी में एक स्टाइलिश व्यक्तित्व की कमी खलती रहेगी। अंतिम बार उन्हें मैंने देखा था कोलकाता बुक फेयर में, जिसमें उनके साथ थीं मेरी प्रिय कवयित्री नवनीता देवसेन। लोढ़ा जी ने फर की टोपी पहन रखी और उनका खूबसूरत चेहरा बुजुर्गियत की आभा से और दिव्य लग रहा था। वर्ष मुझे याद नहीं पर चेहरा वह चेहरा नहीं भूलेगा।

Monday 16 November 2009

लेखक का सबसे बड़ा पुरस्कार है कि जनता उसे पढ़े-बच्चन

27 नवम्बर को 102वीं जयंती के अवसर पर विशेष
बच्चन की कविता का अवदान
हिन्दी की नयी कविता में बच्चन के योगदान की जितनी चर्चा होनी चाहिए थी वह नहीं हुई.जबकि गीतात्मकता और छंद को छोड़कर नयी कविता के सारे
आधार वही थे, जो बच्चन की कविता के कविताओं के केन्द्रीय तत्व थे. नयी कविता, जिसने भारतीय कविता के मूल स्वभाव को बदल दिया में अनुभूति की प्रामाणिकता पर अधिक बल दिया गया और युग-सत्य और व्यक्ति सत्य के अन्तर्सम्बंध को सहज स्वीकार ही नहीं किया गया बल्कि स्थापित भी किया गया.यहां युग की व्यंजना व्यक्ति द्वारा अनुभूत थी.यहां व्यक्ति और समाज दोनों दो इकाइयां न थीं.अपने सहज उद्गारों को प्रकट करने के लिए शास्त्रीय भाषा के बदले बोल-चाल की भाषा प्रचलन में आयी.हालांकि सुसंस्कृत भाषा से इसका परहेज न था.सम्वेदन का जैसा विकास इस काव्य में है हिन्दी की दूसरी काव्य प्रवृत्तियों में प्रायः नहीं दीख पड़ता.अनुभूति और सम्वेदना के साथ-साथ संगीत का एक आंतरिक पुट भी विद्यमान है.यहां खोखले नारे न थे.उसके बजाय था-एक पराजय बोध, उसकी असहायता जो उसे अन्ततोगत्वा लघु मानव में परिणत कर देती है जो कहीं न कहीं राजनैतिक मोहभंग और आदर्शवाद के खोखलेपन के कारणों से जुड़ा है.उसका सुख भविष्य के प्रति सुस्वप्न बुनने के बजाय क्षण पर टिका है.सार्त्र का अस्तित्ववाद और क्षणवाद इस काव्य की एक सीमा है और इस काव्य का सत्य भी लेकिन ऐसा नहीं है कि हिन्दी के आधुनिक साहित्य में पहली बार यह हुआ है.इसके पहले छायावाद के अवसान-काल में महत्त्वपूर्ण कवि डॉ.हरिवंशराय 'बच्चन' ने अपनी हालावादी कविताओं में इसी अस्तित्ववादी-क्षणवादी अवधारणाओं की पुष्टि की.वहां भी असहायता, निरुपायता और कुण्ठाएं थीं, जो उसके लघु मानव का बोध कराती हैं और भविष्य के प्रति संशंकित दृष्टि से देखते हुए वर्तमान में ही लिप्त हो जाने का संदेश देती हैं.यह अलग बात है कि इस ऐतिहासिक तथ्य की नयी कविता के परिप्रेक्ष्य में चर्चा नहीं की गयी.वैसे डॉ.नगेन्द्र ने इसे वैयक्तिक कविता के परिप्रेक्ष्य में बच्चन, रामेश्वर शुक्ल अंचल और गिरिजाकुमार माथुर आदि के गीतों पर लिखते हुए रेखांकित किया है.(डॉ.नगेन्द्र, आधुनिक हिन्दी कविता की मुख्य प्रवृत्तियां, 1979, पृष्ठ 68) और कहा है कि 'इनमें भारत का चार्वाक दर्शन और ईरान के उमर खैय्याम के रंगीन क्षणवाद का भोगवादी जीवन-दर्शन सहानुभूति सहित मूल रूप में उपलब्ध है! और इन सबका निखार बच्चन में प्राप्त है.इनमें व्याप्त व्यक्तिवाद, आध्यात्मिक नहीं है, भौतिक है.xxxइसका व्यक्तिवाद मान्य आस्थाओं के प्रति संदेह और विद्रोह को लेकर चला है.उसके मूल में एक ओर सूक्ष्म आध्यात्मिक विश्वासों के प्रति संदेह और दूसरी ओर नैतिक और सामाजिक विधान के प्रति विद्रोह का भाव है.अतएव आरम्भ में वह नकारात्मक जीवन दर्शन को लेकर खड़ा हुआ है.बच्चन की कविता में संदेहवाद, भाग्यवाद या नियतिवाद और कहीं-कहीं तो निषेधवाद तक मिलता है.' अंग्रेज़ी के कवियों लुई मैक्नीस, स्पैंडर, आडन इत्यादि के प्रयासों से शुरू काव्यांदोलन न्यू पोयट्री का प्रभाव भी नयी कविता ने ग्रहण किया. नयी कविता ने आंदोलन का रूप उस समय ग्रहण किया जब 1954 में 'नयी कविता' का प्रकाशन हुआ और यहीं से नयी कविता और अज्ञेय की प्रयोगवादी कविता में अलगाव का दावा किया जाने लगा।
'बच्चन' ने दिया था मुझे 'अभिज्ञात' उपनाम
अप
नेीतों से लोग के मन पर गहरी छाप छोड़ने वाले और मधुशाला, मधुबाला और मधुकलश से जीते जी लिजेंड बन जाने वाले गीतकार डॉ.हरिवंशराय बच्चन से मेरा उस उम्र में ही परिचय हो गया था जब मैं साहित्य की उनकी हैसियत को न तो समझ सकता था और ना ही मेरी कोई अपनी पहचान ही थी.मुझमें ब साहित्य रचने की ललक थी और लिखना सीख रहा था.अपने पिता से उनकी खूब चर्चा सुनी थी और उन्हीं से मिलते जुलते लहजे में अपने पिता से 'मधुशाला' और 'मधुबाला' के गीत सुने थे.एकाएक बच्चन जी को पत्र लिखने की सूझी और मुझे हैरत हुई कि उनका ज़वाब भी मिला.यह 1982-83 की बात है मैं उस समय संभवतः कक्षा 11 वीं का छात्र था.फिर से उनसे पत्रों का सिलसिला चल निकला और पत्रव्यवहार का सिलसिला चार-पांच साल तब तक चला जब तक उनकी हस्तलिपि वाले पत्र मुझे मिलते रहे जो सोपान, नयी दिल्ली और प्रतीक्षा, मुंबई के पते से होते थे और मुझे पहले तुमसर-महाराष्ट्र में और बाद में मेरे गांव कम्हरियां,आजमगढ़, उत्तर प्रदेश के पते पर मिलते जब जहां मैं होता, एकाध पत्र कोलकाता के उपनगर टीटागढ़ में भी मिले.कुछ दिनों बाद उनके टाइप किये हुए पत्र आने लगे और वह ग्लैमर ख़त्म हो गया जो उनकी हस्तलिपि को समझने की कोशिश से जुड़ा था और मेरी ज़िन्दगी में भी इतने बदलाव आये कि कई बार पुराने सम्पर्क टूटे-बिखरे.उन दिनों मैं अपने दोस्तों का दिये गये उपनाम 'हृदय बेमिसाल' के नाम से लिखता था और मैंने बच्चन जी से गुजारिश की थी वे मुझे एक अच्छा सा उपनाम दें.और उन्होंने मुझे उपनाम दिया 'अभिज्ञात' साथ में यह भी लिखा था कि 'जब मेरा अभ्यास का लेखन ख़त्म हो जाये तो मैं अभिज्ञात उपनाम अपनाऊं.' और मैंने यही किया नामकरण के अरसे बाद 1991 के आसपास जब मेरा पहला कविता संग्रह 'एक अदहन हमारे अन्दर आया' तो मैंने विधिवत साहित्य में 'अभिज्ञात' उपनाम को अपनाया.इसके कुछ माह पूर्व ही मेरी कहानी 'बुझ्झन' का नाट्य रूपांतर भारतीय भाषा परिषद में किया गया था और पहली बार मैंने इस नाम का इस्तेमाल किया था.वह पत्र दरअसल अब खोजने से भी नहीं मिल रहा है जिसमें उन्होंने यह नाम मुझे दिया था.
पत्रों में युवा साहित्यकारोंके विकास के सूत्र
बच्चन जी के कुछ ही पत्र अब मेरे पास हैं.पहले मैं इस तरह के पत्रों के महत्त्व को भी नहीं समझता था और वे लापरवाही से रखे जाते थे और एक शहर से दूसरे शहर जाने में कई चीज़ें पीछे छूटीं, नष्ट हुई और क्षतिग्रस्त हुई.कुछ हमेशा के लिए खो गयीं तो कुछ के फिर से यकायक मिल जाने की उम्मीद बची है किताबों के मेरे उस ढेर में जिससे लड़कर मैं कई बार हार जाता हूं.फिर भी यह सौभाग्य है कि उनके लगभग दर्ज़न भर पत्र मेरे पास हैं जो किसी तरह महफूज़ रह गये हैं और एक तस्वीर भी जिस पर उन्होंने यह लिखकर भेजा है कि 'मेरी असली तस्वीर मेरी रचनाओं में है.'
इन पत्रों में किसी युवा रचनाकार के लिए साहित्य की दुनिया में काम करने के लिए कुछ आवश्यक सूत्र हैं, जो मेरे लिए तो उपयोगी रहे ही युवा पीढ़ी के तमाम लोगों के लिए भी वे प्रासंगिक हैं.मसलन रचनाएं लौट आयें तो उसे अपनी रचनात्मक ग़लती समझें सम्पादक की नहीं, अस्वीकृत होती रचनाओं से हताश न हों, आपका काम ही आपकी सिफारिश होगा, आपको मौका देने के लिए कोई आपको मौका नहीं देगा बल्कि अपनी सफलता के लिए देगा, लेखक का सबसे बड़ा पुरस्कार है कि जनता उसे पढ़े, जो भी काम करें उसमें पूर्णतया अपने को लगा दें, लेखन के लिए ज़रूरी है मुक्त जीवन अनुभव, व्यापक स्वाध्याय, सतत अभ्यास और सुरुचिपूर्ण साहित्यकारों का सत्संग जिससे उसके सर्जक का विकास होगा, आदि.
बच्चन के पत्र
प्रस्तुत है यहां डॉ.हरिवंशराय बच्चन के कुछ मुझे लिखे कुछ पत्रों के अंश जो मेरे रचनात्मक विकास में सहायक हुए और जो इस बात के गवाह हैं कि कितने धीरज और प्यार से एक महान बुजुर्ग कवि अपनी नयी पीढ़ी को रास्ता बताता है.
पत्र-एक हस्तलिपि
बच्चन
'प्रतीक्षा'
दसवां रास्ता-जुहू
बंबई-उंचास
400049
11.4.83
प्रिय श्री
पत्र के लिए धन्यवाद.
प्रसन्नता है साहित्य के स्वाध्याय सृजन में आपकी रुचि है. मुक्त जीवन अनुभव, व्यापक स्वाध्याय, सतत अभ्यास और सुरुचिपूर्ण साहित्यकारों के सत्संग से आपके सर्जक का विकास होगा. आगे पत्र-व्यवहार का पताः
'सोपान', गुलमोहर पार्क, नई दिल्ली
भवदीय
बच्चन
पत्र-दो(हस्तलिपि)
हरिवंश राय बच्चन
'सोपान'
बी-8, गुलमोहर पार्क, नई दिल्ली -49
प्रिय श्री
पत्र के लिए ध.
वामा मेरे पास नहीं आती. कटिंग भेज सकें तो आपकी कहानी पढ़ूंगा.
कहानी लौट आये तो कहानी का दोष समझें. सम्पादक का नहीं. और अच्छी कहानी भेजें. और पत्रिकाओं में भेजें.
एक समय बर्नार्ड शा के लेख भी लौट आते थे. 10 में 9. वह 100 लेख भेजता था, दस तो छपेगा. शेष सामान्य. शु.का.
बच्चन
पत्रःतीन(टाइप किया हुआ पत्र)
हरिवंश राय बच्चन
'सोपान'
बी-8, गुलमोहर पार्क, नई दिल्ली -49
8 अगस्त, 1986
प्रिय श्री,
आपका पत्र मिला. प्रकाशक से मेरा कोई सम्बंध नहीं है. मैं इस विषय में आपको कोई राय नहीं दे सकता.
भवदीय
बच्चन
(हरिवंशराय बच्चन)
पत्रःचार हस्तलिपि)
दीपावली की बधाई के लिए शुभकामनाएं
बच्चन
1983
'दिन को होली
रात दिवाली
रोज़ मनाती मधुशाला'
पत्रः पांच (हस्तलिपि)
'सोपान', गुलमोहर पार्क, नई दिल्ली
23.10.83
प्रिय श्री हृदय बेमिसाल जी
नमस्ते
पत्र के लिए धन्यवाद. सद्भवना के लिए आभारी हूं. आपकी योजनाओं की सफलताओं के लिए मेरी शुभकामनाएं. अवस्था ( मैं 76 वां पूरा कर रहा हूं) और अस्वस्थता के कारण यात्राएं मेरे लिए कष्टकर हो गयी हैं. सशरीर मैं उपस्थित होने में असमर्थ हूं. क्षमा करेंगे. शेष सामान्य. शुभकामनाएं.
भवदीय
बच्चन
पत्रःछह(हस्तलिपि)
जन्म दिन की बधाई के लिए धन्यवाद. शुभकामनाएं.
बच्चन
83
'सूख रही है
दिन-दिन संगी
मेरी जीवन मधुशाला'
'सोपान'
गुलमोहर पार्क
नयी दिल्ली
पत्रःसात(हस्तलिपि)
हरिवंश राय बच्चन
'सोपान'
बी-8, गुलमोहर पार्क, नई दिल्ली -49
नये साल की बधाई
शु.के लिए सधन्यवाद, शुभकामनाएं.
लेखक का सबसे बड़ा पुरस्कार है कि जनता उसे पढ़े. जो भी काम करें उसमें पूर्णतया अपने को लगा दें.
बच्चन
13.1.85
पत्रःआठ (हस्तलिपि)
'सोपान', बी-8, गुलमोहर पार्क, नई दिल्ली
6.12.83
प्रिय श्री
पत्र के लिए धन्यवाद
अपनी परिस्थितियों और योग्यता क्षमता को देखकर अपने भविष्य की दिशा आपको निश्चित करनी है. किसी भी दिशा में जायं संघर्ष तो करना ही होगा परिणाम की गारंटी कौन दे सकता है. आप समझते है कि फ़िल्मों में आप गीत लिख सकते हैं या फ़िल्मों के लिए कहानी तो आप बंबई जाकर प्रोड्यूसरों और म्यूज़िक डायरेक्टरों से मिलें. उन्हें अपनी योग्यता का सबूत दें. संभव है वे आपको मौका दें. वहां किसी की सिफारिश से काम नहीं होता. आपका काम आपकी सिफारिश होगा. यह पहले से जान लें कि आपको मौका देने को वे आपको नहीं देंगे.
देंगे तो इसलिए कि आपको देकर वे अपने आर्थिक उद्योग में सफल तो हो सकेंगे या नहीं. तरजीह नये के ऊपर जाने-माने को दी जाती है यह भी यथार्थ है और जाने-माने कितने लोग हैं जो अपना स्थान बना चुके हैं पर नये लोग भी अपनी राह बनाते हैं. मैं आपको अपनी शुभकामनाएं दे सकता हूं और कुछ नहीं. आप अपने अभियान में सफल हों.
भवदीय
बच्चन
पत्रःनौ(हस्तलिपि)
'सोपान', गुलमोहर पार्क. नई दिल्ली
8.6.85
प्रिय श्री
आपका कार्ड मिला और कुछ आपकी ओर से नहीं मिला. आशा है आपका काम पसंद किया जायेगा और आगे आपको और काम मिलेगा.
मेरी शुभकामनाएं.
बच्चन


Monday 9 November 2009

सुर संग्राम का बेहतरीन सुर


सुरों का संग्राम हो तो वह अन्य संग्रामों से कैसे अलग होता है यह दिखा दिया महुआ ने। महुआ टीवी चैनल पर भोजपुरी रिएलिटी शो 'सुर-संग्राम' कार्यक्रम में। पटना में इसके ग्रैंड फिनाले में उत्तर प्रदेश और बिहार के कलाकारों की भिड़ंत थी। इसमें विजेता को बतौर इनाम 25 लाख रुपये और उपविजेता को 11 लाख की राशि दी जानी थी। लेकिन शीर्ष दो विजेताओं के गायन से चैनल के मालिक इतने प्रभावित हुए कि दोनों को ही 25 लाख दे दिये। और वह नजीते भी डिक्लियर नहीं किये गये जो उनमें से किसी एक को एक और दूसरे को दो नम्बर का गायक बताते। दोनों ही गरीब परिवार के गायक थे जिसमें से एक मोहन राठौड़ के पिता तो घर-घर जाकर कपड़े बेचते हैं। लोग तो इस बात भी तसल्ली कर लेते कि पुरस्कार की दोनों राशि यानी 25 और 15 को जोड़कर 40 में से आधा-आधा बांट दिया जाता। लेकिन मिसालें ऐसे नहीं बना करतीं। यह लगभग अभूतपूर्व निर्णय था पुरस्कार देने वाले की तरफ से की दोनों को 25-25 लाख दिया जाये। संस्कृति के क्षेत्रों में जो पुरस्कार देने वाले हैं अपनी तमाम उदारताओं और महान मूल्यों के लिए समर्पण की प्रतिबद्धता की शेखियां बघारने के बाद भी ऐसी मिसालें अपने व्यवहार से पेश नहीं करते। ज्ञानपीठ पुरस्कार सहित कई और पुरस्कारों के उदाहरण हैं जब दो लोगों को नम्बर एक का दावेदार समझा गया तो पुरस्कार राशि आधी-आधी बांट दी गयी और कुछ ऐसे उदाहरण भी हैं जिसमें पुरस्कार राशि छोटी थी और एक नम्बर के दो दावेदार थे तो एक को जबरन नम्बर दो घोषित कर पुरस्कार देने जहमत भी नहीं उठायी गयी। जब नम्बर दो के लिए कुछ था ही नहीं तो फिर उसे दो नम्बर को घोषित ही क्यों किया गया यह विचारणीय है! बहरहाल महुआ ने जो सदाशयता दिखायी है वह उदाहरण स्थापित करती है और जब कार्यक्रम भोजपुरी से जुड़ा हो तो भोजपुरी संस्कृति को भी इससे बल मिलता ही है। इसलिए सुर संग्राम सुरों का ही संग्राम था जिसे एक भोजपुरिया सुरीले ने कराया।

Sunday 8 November 2009

पत्रकारिता को नयी भाषा व संवेदना के नये धरातल दिये प्रभाष जी ने


जिन कुछेक लोगों ने हिन्दी पत्रकारिता की विश्लेषणात्मक क्षमता और उसकी रीति-नीति का निरन्तर विस्तार, आविष्कार और परिमार्जन किया उनमें प्रभाष जोशी का नाम प्रमुखता से लिया जायेगा। धार और संवेदना की जैसी जुगलबंदी उनकी भाषा में दिखायी देती है वह हिन्दी पत्रकारिता में विरल होती जा रही है वरना पत्रकारिता की भाषा का इकहरापन चिन्ताजनक है। भाषा का छंद नारों से नहीं नीयत से आता है यह प्रभाष जी जैसों के लेखों से ही जाना जा सकता है। उनके 'कागद कारे' शृंखला के आलेख न तो कभी पुराने पड़ने हैं और ना ही वे कभी अप्रासंगिक होंगे क्योंकि उनमें देश दुनिया का जनमानस लगातार अपनी टोह में लगा हुआ दिखायी देता है। हमारी घनीभूत चिन्ताओं की शक्ल क्या है ही उनमें नहीं दिखायी देती बल्कि यह भी कि उसके निहितार्थ क्या हैं या भी समझाने का महती प्रयत्न दिखायी देता है। मामूली और आम बातें, घटनाएं और लोग उनके आलेखों में आकर जो रूपाकार ग्रहण करते थे वह उन्हें एक सार्थक बहस का बेहद जरूरी हिस्सा बना देता था। मैं अक्सर समय के अभाव में उनका आलेख प्रकाशन के दिन नहीं भी पढ़ पाता था तो कई दिनों तक पुराने अखबार को रखे रहता था कि उनका आलेख पढ़ लूं तो फिर अखबार को रद्दी समूह के कागज़ों में डालूं। अक्सर उनके आलेख उन मुद्दों पर भी रहते तो ज्वलंत प्रश्नों से मुठभेड़ लेते थे उन आलेखों में उनकी खरी नीयत बोलती थी और साफगोई उसमें नया पैनापन देती थी। मुझे क्रिकेट में तो कभी दिलचस्पी नहीं रही फिर भी कभी कभार क्रिकेट पर लिखे लेखों को भी पढ़ने की कोशिश करता। क्रिकेट पर तो हिन्दी में शायद उनके जैसा दूसरा टिप्पणीकार न होगा।
मैंने कभी सोचा न था कि पत्रकार बनूंगा फिर भी अनायास ही पत्रकारिता से शौकिया जुड़ गया जनसत्ता कोलकाता से और स्ट्रिंगर बन गया.। उन दिनों मैं कलकत्ता विश्वविद्यालय से केदारनाथ सिंह पर पीएचडी के लिए शोध कर रहा था और अपने नानाजी के ठेकेदारी के कामकाज में हाथ बंटाता था। पेशे के तौर पर पारिवारिक स्तर पर तय हो चुका था कि नौकरी नहीं कारोबार करना है। उन्हीं दिनों दो एक बार प्रभाष जी को कुछ करीब से देखने का अवसर मिला। ऐसी दो एक सभाओं की कवरेज करने भी गया जिनमें प्रभाष जी वक्ता थे। उनमें एक सभा वह भी है जिसमें पं.विष्णुकान्त शास्त्री कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे। उस समय वे संभवतः भाजपा के लोकसभा सांसद भी थे। यह तो नहीं याद है कि सभा का मुख्य विषय क्या है किन्तु प्रभाष जी एनरान पर बोले थे और तत्कालीन भाजपा नीत सरकार की एनरान के मुद्दे पर भूमिका की जम कर मलामत की थी। अध्यक्षीय भाषण में विष्णुकान्त जी ने उनकी बातों का जवाब दिया था और उनके तर्कों को दरकिनार कर दिया था। ऐसा लगा था कि प्रभाष जी के तर्क कुछ कमजोर पड़ गये हैं। विष्णुकान्त जी अध्यक्षीय भाषण देकर सभा की समाप्ति की घोषणा भी कर दी। लेकिन प्रभाष जी विष्णुकान्त जी के तर्कों का फिर से जवाब देने से चूकना नहीं चाहते थे। वे लपक कर फिर माइक के पास पहुंच गये और कहा कि मुझे यह अनुशासन पता है कि अध्यक्षीय भाषण के बाद फिर वक्तव्य नहीं दिया जाता है लेकिन इस अनुशासन से बढ़कर भी कुछ बातें हैं जिसके कारण मैं फिर बोलना चाहूंगा और विष्णुकान्त जी या अन्य किसी और की सहमति की प्रतीक्षा किये बिना ही उन्होंने बची खुची कसर निकाल ली और फिर मंच से उतर कर तेजी से अपनी कार की ओर बढ़े। इधर, कई भाजपा कार्यकर्ताओं को प्रभाष जी का वक्तव्य नागवार लगा और वे उन्हें घेरने का प्रयास करने लगे। वे जब तक कार में बैठते चारों ओर से भाजपा कार्यकर्ताओं ने घेर लिया था और उन्हें अपशब्द भी कहने पर उतारू थे वह तो भी भीड़ का रुख देखकर विष्णुकान्त जी वहां पहुंचे और किसी प्रकार यह कहकर लोगों को गाड़ी के आगे से हटाया कि प्रभाष जी पत्रकार हैं और पत्रकारों को कुछ भी कहने की आजादी होती है, उन्हें कहने दीजिए। आप लोग संयम बरते।
दूसरी एक घटना मुझे याद है जो प्रभाष जी के अभिव्यक्ति की आजादी के प्रति उनके रवैये को स्पष्ट करती है। वह घटना है एक साहित्यक समारोह की है। उसमें प्रख्यात ललित निबन्धकार डॉ.कृष्ण बिहारी मिश्र प्रधान वक्ता थे। मंच से उन्होंने जनसत्ता की भाषा नीति की जमकर आलोचना की थी और नाम लेकर कहा था कि प्रभाष जोशी जैसे पत्रकार अपने आपको कबीर बनते हैं और भाषा से खिलवाड़ कर रहे हैं। पता नहीं पत्रकार किस हेकड़ी में रहते हैं। इस वक्तव्य में कुछेक हर्फ़ इधर उधर हो सकते हैं मगर लब्बोलुबाब यही था। उल्लेखनीय यह है कि वहां मंच पर प्रभाष जी नहीं थे वरना वे उसका जवाब स्वयं देते। मेरी ड्यटी इस कार्यक्रम की रिपोर्टिंग की लगी थी। मैंने जो रिपोर्ट लिखी थी उसमें मैंने इंट्रो ही प्रभाष जी के भाषा सम्बंधी रुझान पर कृष्णबिहारी जी की आपत्ति को बनाया था। मामला संवेदनशील होने के कारण डेस्क ने रिपोर्ट की कापी कोलकाता के स्थानीय सम्पादक श्री श्याम आचार्य तक पहुंचायी और उन्होंने उसे दिल्ली फैक्स किया ताकि उसके प्रकाशन के सम्बंध में प्रभाष जी की राय ली जा सके। और राय हां में थी। वह रिपोर्ट उसी प्रकार प्रकाशित हुई। सचमुच प्रभाष जी ने पत्रकारिता की भाषा को जनभाषा के करीब लाने का न सिर्फ प्रयास किया बल्कि भाषा की शास्त्रीयता की दुहाई देने वालों से इस मोर्चे पर लोहा भी लिया जिसकी यह घटना उदाहरण है।
प्रभाष जी के मालवा अंचल और कुमार गंधर्व पर कई लेख जब तक पढ़ने का मौका मिलता रहा था। जब मैं अमर उजाला, जालंधर से वेबदुनिया डाट काम में कार्यभार संभलाने के लिए इंदौर गया तो इंदौर से पहले ही वह स्टेशन देवास मिला जिसके बारे में मैं पर्याप्त पढ़ चुका था और इंदौर भी मुझे इसलिए भी पहले से परिचित और मोहक लगा। प्रभाष जी के आलेख में वह शक्ति है जो अर्थ ही नहीं पूरी संवेदना को पाठक तक पहुंचाती है। एक ही संस्थान होने के कारण कुछेक बार मुझे वेबदुनिया कार्यालय से नयी दुनिया कार्यालय जाने का मौका मिला था तो वहां भी प्रभाष जी की चर्चा सुनी थी जहां से उन्होंने अपने पत्रकारिता करियर की शुरुआत की थी। वेबदुनिया कार्यालय में भी अक्सर राजेन्द्र माथुर, शरद जोशी आदि के साथ चर्चा होती थी, जिनसे नई दुनिया का प्रगाढ़ रिश्ता था। इन चर्चाओं ने मुझे उनका फैन बना दिया था। पत्रकारिता के तुरतफुरत के भाषिक और प्रतिक्रियाशील व्यवहार को नयी ऊंचाई और दिशा देने में प्रभाष जी के योगदान को मैं नमन करता हूं।

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