Monday 26 October 2009

बिग बास से लक्स परफेक्ट ब्राइड तकः हमारा समाज, हमारा घर

गनीमत है कि बिग बास जैसे रियल्टी शो के साथ साथ टीवी पर लक्स परेक्ट ब्राइड जैसे कार्यक्रम भी प्रसारित हो रहे हैं, जो हमारे भारतीय समुदाय के देखने लायक हैं। हमें तो बहुत गुमान था कि बिग बी यानि अमिताभ बच्चन बिग बास में आयेंगे तो उसका स्तर सुधरेगा लेकिन हुआ उल्टा। वे कार्यक्रम में भाग लेने वाले प्रतियोगियों से अपने को पुजवाते रहे और दर्शक बोर होते रहे। यह कार्यक्रम बिग बास के बदले बिग बी बनकर रह गया. बिग बास टू में तो गनीमत थी की राहुल महाजन जैसे दिलफेंक और मोनिका बेदी जैसी विवादास्पद हस्तियां थी जिन्हें देखने से सतही सही मनोरंजन तो होता था अबकि तो राखी सावंत की मां जैसे कचरे भी बटोर लिये गये थे। पूनम ढिल्लों जैसी प्रोढ़ नायिकाओं के झेलने की ताकत बहुत कम लोगो में है।

संगीतकार इस्माइल दरबार का रहना न रहना बराबर ही लग रहा है और अब उनके हाथ में चोट लगी है तो और भी अकर्मण्य हो गये हैं। और दारा सिंह का बेटा बिन्दु दिमाग का खाली है। मजे़दार चीज थी कआरके यानी कमाल आर. खान वह भी बिदा कर दी गयी। नवधनाढ्यों के तौर तरीकों की झलक कमाल ने कमाल ढंग से पेश की। नवदौलतियों का ओछापन देखकर लोगों को अपने आस पास के ओछों की याद जरूर आती थी जिनकी चाय अमुक देश से और पानी अमुक देश से आता होगा। जो दोस्तों के लिए काम करने को भी अपनी तौहीन समझते होंगे। खैर मारपीट करके और सबको यह बताकर कि वह मल्टीमीलिनियर है बिग बास से असमय ही निकाल दिया गया चलते चलाते अमिताभ बच्चन को अपनी नयी फिल्म में काम करने का आफर देकर। ऐसे बोरिंग बिग बास के बरक्स लक्स परफेक्ट ब्राइड में वह समाज झांकता है जो हमारे आसपास है। अपने बेटों के लिए वधू खोजती ममीज इसमें हैं जो हमें बताती हैं कि आज के समाज में कैसी लड़कियों को विवाह के लिए आदर्श माना जाता है। इस कार्यक्रम का मजेदार पहलू यह है कि जो जोड़ियां अपने आप युवक युवतियों ने बनायीं हैं उस पर उनके परिवार वालों का ऐतराज है और वे उन्हें दूसरों में भी संभावना तलाश करने की नसीहत दे रही हैं। यही तो हमारे समाज में चल रहा है। वैवाहिक सम्बंध तमाम फायदे नुकसान को तौलकर किये जाते हैं, जिसमें दिल का कोई रोल नहीं होता। किसी अन्य वस्तुओं की तरह ही वैवाहिक रिश्ते परखे जाते हैं इसका आईना है यह रियल्टी शो।

इस धारावाहिक का सकारात्मक पहलू यह है कि कार्यक्रम देखने वाले अभिभावक भी यह समझने पर मजबूर हो गये हैं कि कहीं ऐसा तो नहीं कि जो रिश्ता वे अपने बच्चों के लिए अपने नजरिये से देख रहे हैं वह बच्चों के लिए भी उतना ही आदर्श लगेगा जितना उन्हें लगता है। कुछ अभिभावक तो रिजेक्ट किये हुए रिश्तों में फिर संभावना तलाशने लगे हैं और कह रहे हैं कि भई हमें तो नहीं जंचा लेकिन अपने बेटे या बेटी से भी पूछ लेते हैं क्या पता उन्हें वह जंच जाये। क्योंकि दोनों का नजरिया अलग है यह इस रियल्टी शो ने समझा दिया है। इस शो में शाकाहार का सामाजिक मुद्दा ही उभर कर नहीं आया बल्कि यह भी कि वधू वही परफेक्ट लगती है, जो पूरी परिवार को लेकर चले। और यह भी कि केवल एक पक्ष को ही तालमेल का रुख नहीं अपनाना चाहिए।

Thursday 22 October 2009

लोक तत्त्वः कुछ नोट्स

बाज़ार और उत्पादन

लोकतत्त्व का इधर बाज़ार को ध्यान में रखकर पूरी दुनिया में अध्ययन हो रहा है। वह दुनियाभर के बाज़ारों के लिए ग्लैमर का विषय है। दुनिया भर के बाजार जानना चाहते हैं कि किस देश के किस प्रांत का लोकजीवन क्या है। उनके सपने और आकांक्षाएं क्या हैं क्योंकि यही तो वह है जिसकी ओर उनकी निगाह है। वहां क्या बेचा जा सकता है और वहां से सस्ता क्या उगाहा जा सकता है। कोई दूर दराज के गांव में किसी खास वनस्पति की खेती या बागवानी चाहता है ताकि उसके बूते वह अपने धंधे को सस्ते में और चोखा कर सके। कोई दूर दराज के गांव में यूकेलिप्टस उगवा देता है तो कोई सूर्यमुखी खिला देता है तो कोई गांव की बंजर ज़मीनों पर जट्रोफा की उपज चाहता है ताकि तेल की समस्या से कुछ निजात मिले। दुनिया की प्रयोगशालाएं गांवों पर प्रयोग के लिए आतुर रहती हैं और वह आतुरता बनी हुई है।

चीन के गांव में वह चीज़ें तैयार की जा रही हैं जो भारत के दूरदराज़ के गांव में इस्तेमाल की जा सकें। वहां चीन के ग्रामीणों को यह पता नहीं है कि वह जो कुछ बना रहे हैं उसका कितना घातक असर लोगों की स्वास्थ्य पर पड़ेगा। उन वस्तुओं का टिकाऊपन कितना रहेगा और यूज़ एंड थ्रो वस्तु यूज़ से अधिक थ्रो के ही काम आती है। चीन के गांव का आदमी सस्ते में चीज़े बना रहा है और भारत के गांव का आदमी वह सस्ते में इस्तेमाल कर रहा है। दोनों जगह ही गांव का इस्तेमाल बाज़ार कर रहा है।

महंगा हुआ श्रम

राष्ट्रीय ग्रामीण गारंटी रोजगार योजनाओं से गांवों का जीवन बदल रहा है और लोगों को श्रम की अच्छी कीमत मिल रही है जो पहले संभव नहीं थी। इसका नतीज़ा यह हुआ कि खेतों में काम करने के लिए जो शहर की तुलना में सस्ता श्रम था वह उपलब्ध था। हालांकि गांव से रोजगार की खोज के लिए शहर की ओर जाते लोगों की वज़ह से दिनों दिन काम करने योग्य लोगों की उपलब्धता घटती जा रही थी लेकिन अब और कठिन हो गया जो गांव में हैं उन्हें नरेगा के तयशुदा मानकों के अनुरूप पैसा मिलने के कारण अब खेतिहर श्रमिकों के भाव बढ़ गये हैं जिसके कारण खेती करना और महंगा हो गया है। अब जो खर्च खेती पर हो रहा है उसकी की़मत अनाज से निकलने की गारंटी कहां है। गांव के लोगों को आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भरता की यह जो कीमत देश को चुकानी पड़ेगा वह क्या बड़ी नहीं है। नये हालात में खाद्यानों की उपज कम हो जायेगी। खेती के कार्य में श्रम को बढ़ावा देने की आवश्यकता भी उतनी ही है जितनी ढांचागत सुविधाओं की दोनों का सामंजस्य जरूरी है ऐसा हो कि गांव से शहर तक आवाजाही की सुविधा तो हो जाये लेकिन गांव में कुछ ऐसा तैयार ही हो पाये जो शहर में पहुंचे।

भोजपुरी का बाज़ार

इधर भोजपुरी बोली के भाषा बनने की तैयारियां हो रही हैं और भोजपुरी का बाज़ार उठा है। सस्ते-सुस्ते में बनी भोजपुरी फिल्म ससुरा बड़ा पैसा वाला फिल्म के बाक्स आफिस पर हिट होने का बाद भोजपुरी फिल्मों की बाढ़ गयी। इधर टी सीरिज ने भोजपुरी बाजार को पहले ही अश्लील भोजपुरी गीतों से पहले ही बाजार को पाट रखा था। अश्लीलता और फूहड़ता पर टिका यह भोजपुरी का संगीत फिल्मी बाजार तब और गरम हो उठा जब महुआ जैसे टीवी चैनल भी भोजपुरी में गये। पारा गरम और मिर्ची लागल जैसे अश्लीलता से आतप्रोत कार्यक्रमों के बूते इस चैनल ने बता दिया कि भोजपुरी की औकात क्या है। जो लोग गांवों से काफी पहले शहर गये थे और भोजपुरी बोलना जिनके बच्चों के बस की बात नहीं रह गयी थी वह प्रेरित किये गये कि अपनी भाषा का टीवी चैनल देखें लेकिन जब उन्होंने भोजपुरी की शानदार अश्लील परम्परा का जायजा लिया तो शर्मसार हो उठे। द्विअर्थी गीत ही भोजपुरी गीतों की पहचान बन गयी है। अब अन्य भाषा बोलने वालों के बीच लगा ' तू चोलिया के हूक राजा जी' , 'लहंगा उठा देब रिमोट से', 'मिस काल मार तारू किस देबू का हो/अपनी मसीनिया में पीस देबू का हो' जैसे गीतों में अपनी संस्कृति की पहचान नहीं कराना चाहते। पते की बात यह है कि अश्लीलता की परिधि के आसपास घूमते लोग ही मंच पर यह दावा करते हैं कि भोजपुरी को भाषा बनायी जाये ऐसे में इनको कौन पढ़ा लिखा भोजपुरिया अपना प्रतिनिधित्व सौंपेगा।

लोक-परलोक

गांव से रोजगार की तलाश में शहर आना और बरसों बाद रिटायर होने पर गांव लौटना भारतीय समाज की बहुत बड़ी त्रासदी है। गांव के परिचित माहौल से बाहर शहर के माहौल से तालमेल बिठाने में समय लगता है लेकिन उससे अधिक कठिन है अपने को शहर के सांचे में ढालने के बाद गांव के लोक जीवन से तालमेल बिठा पाना। शहर में अपनी उम्र के कीमत वर्ष बिताने के बाद गांव लौटना पढ़े लिखे व्यक्ति के लिए नर्क में लौटना है। वहां का वातावरण लगातार व्यक्ति को अकेला करता है, निराश और हताश करता है। भ्रष्टाचार और चारित्रिक पतन जो शहर में परदे में है, वह गांव में अपने नग्न रूप में सामने खड़ा हाता है। उपयोगी नहीं हैं तो कुछ नहीं हैं, गांव का मूल्य बन चुका है। गांव से शहर जाकर लौटे आदमी के लिए लोक ही परलोक हो चुका होता है।

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