Sunday, 1 September 2019

उदित वाणी में डॉ.अभिज्ञात का समकालीन पत्रकारिता पर इंटरव्यू


पत्रकार अब हाशिए पर हैं और सम्पादक कंटेंट व कांटेक्ट मैनेजरः डॉ.अभिज्ञात
पंजाब के जालंधर व अमृतसर में अमर उजाला, इंदौर में वेब दुनिया डॉट काम, जमशेदपुर में 2003 में दैनिक जागरण में पत्रकारिता करने के बाद गत 16 वर्षों से सन्मार्ग, कोलकाता में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार डॉ.हृदय नारायण सिंह साहित्य की दुनिया में अभिज्ञात के नाम से जाने जाते हैं। कविता, कहानी व उपन्यास विधाओं में उनकी एक दर्जन क़िताबें प्रकाशित हैं। वर्तमान पत्रकारिता को लेकर प्रस्तुत है विनय पूर्ति से उनकी संक्षिप्त बातचीत 
सवाल : 1. समकालीन हिन्दी पत्रकारिता (प्रिंट) का भविष्य क्या है?
प्रिंट मीडिया इन दिनों विभिन्न चुनौतियों से घिर गया है। इलैक्ट्रानिक मीडिया ने उसकी आवश्यकता और तेवर को बुरी तरह से प्रभावित किया है। लगतार खबरें उगलने वाले संचार माध्यमों के बरक्स इसकी ज़रूरत को लेकर ही कई लोग प्रिंट मीडिया की आसन्न मौत की मातमपूर्सी में लग गये हैं तो कई ने महंगे हुए न्यूज़प्रिंट पेपर की बढ़ती क़ीमत और छिनते जा रहे विज्ञापनों का हवाला दिया है। वेबसाइट, सोशल मीडिया एवं कुकुरमुत्ता और भोंपू टीवी चैनलों की अंधी दौड़ में प्रिंट मीडिया अपनी ठसक कब तक बरकरार रख पायेगा यह चिन्तनीय है। जिन लोगों ने अपनी युवावस्था में प्रिंट मीडिया को प्रमुख समाचार माध्यम के तौर पर अपनाया था वह पीढ़ी तो इससे विरत नहीं होगी किन्तु इलैक्ट्रानिक मीडिया के विकास के बीच पढ़ना- लिखना और दुनिया को समझना शुरू करने वाली पीढ़ी प्रिंट मीडिया को ढोयेगी या नहीं कहना मुश्किल है। प्रिंट मीडिया को अपना स्थान सुरक्षित करने के लिए अतिरिक्त प्रयास करना होगा क्योंकि वह मुख्य मीडिया नहीं रह जायेगा यह तय है। हां, यह बाद दीगर है कि विश्वसनीयता के मामले में वह अब भी शीर्ष पर है और बाद में भी शीर्ष पर ही रहेगा। वह एक नयी केटेगरी होगी मीडिया और साहित्य के बीच की। तुरत- फुरत की प्रतिक्रियाओं व अपुष्ट खबरों के बीच विश्वसनीय, खोजी और घटनाक्रमों को दिशानिर्देश देने वाली सामग्री व विवेक ही उसे बचायेगा। प्रिंट मीडिया को आंखों देखी पत्रकारिता भर से ही संतोष नहीं करना होगा क्योंकि उसका प्लेटफार्म इलैक्ट्रानिक मीडिया है। प्रिंट मीडिया को विवेकदृष्टि से संचालित होना होगा..आंखों देखी के खोट को उजागर करना होगा, परदे के पीछे क्या है यह बताना होगा। प्रिंट मीडिया में अपढ़ पत्रकारों से काम नहीं चलेगा। मूल्य से जुड़े जुझारू लोग जुड़ेगे तभी बचेगा। उसे फिर सोदेश्य पत्रकारिता से अपना सम्बंध जोड़ना होगा।
2. क्या प्रिंट मीडिया निष्पक्ष नजर आ रहा है?
अब जबकि टीवी चैनल मीडिया के बदले किस एक पक्ष का प्रवक्ता हो जायें तो निष्पक्षता तो प्रभावित होगी ही। वे तटस्थ नहीं रहते। वे जिस तरह से सवाल उठाते हैं उसमें ही उनकी पक्षधरता स्पष्ट नज़र आती है। जबकि प्रिंट मीडिया में इस अनुशासन पर बड़ा ज़ोर रहा है कि ख़बरें लिखते समय पत्रकार का नज़रिया या पक्षधरता नहीं दिखनी चाहिए। यदि किसी पर कोई आरोप लगे हैं तो उसका पक्ष भी समाचार में होना चाहिए। लेकिन टीवी चैनलों में खबरों की जिस तरह प्रस्तुति होती है उसमें पक्षधरता अतिरिक्त उत्साह में दिखती है और कहना न होगा कि इससे प्रिंट मीडिया भी परोक्ष तौर पर निर्देशित होता है। प्रलोभन व दमन के बीच झूलते अखबार किसी का मुखपत्र हो जायें यह स्वाभाविक है। ऐसे में अपने पाठकों का होकर और उनका विश्वास अर्जित कर ही प्रिंट मीडिया अपने को उबार सकता है। प्रिंट मीडिया को क्लोन बनने से बचने की भी ज़रूरत है। आम तौर पर जो ख़बरें आती हैं उसके प्रकाशन के कुछ अघोषित मानदंड हैं, जिनसे अखबार का कलेवर तय होता है और हम पाते हैं कि अगले दिन प्रकाशित होने वाले अखबारों में एक सी खबरें फ्रंट पेज पर होती हैं और लगभग उनकी भाषा और लहजा भी। कई बार तो सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख भी क्योंकि सेंडिकेट राइटिंग का दौर चल रहा है। फीचर एजेंसी की सेवाओं भी इस संकट को और गहरा करती हैं और वे पृष्ठ भी कई बार एक ही सामग्री से लैस होते हैं। एक सी खबरें एक सी प्रस्तुति के बीच प्रिंट मीडिया अपना कितने दिन तक बचाव करेगा। जाहिर है कि जो बड़े मीडिया हाउस हैं, वे छोटों को निगल जायेंगे। दूसरे यह कि निष्पक्षता कभी समाज में एक मूल्य हुआ करती थी। अब बदलते संदर्भों में वह मूल्य क्षरित हो चुके हैं। अब पक्षधरता का दौर है और आप किसके साथ खड़ें हैं स्पष्ट कीजिए। आप जिसके साथ हैं, वही आप हैं। दुर्भाग्य से इस प्रवृत्ति का शिकार प्रिंट मीडिया भी हो रहा है। राजनीति में तो कभी एक दूसरे को गाली-गलौज करने वाले मौका पाकर गलबहियां करने लग जाते हैं। पार्टी बदलते ही तमाम मामलों में अभियुक्त रहे नेता दूध के धुले हो जाते हैं किन्तु मीडिया ऐसा नहीं कर सकता। उसे दूरगामी लक्ष्य तय करके ही चलना होता है। खबरों की प्रस्तुति में प्रिंट मीडिया को तटस्थ ही रहना चाहिए। प्रिंट मीडिया को अपना नजरिया अपने सम्पादकीय लेखों के जरिये ही व्यक्त करना चाहिए।
3. कस्बाई और नागरीय पत्रकारों की चुनौतियां क्या हैं?
कस्बाई पत्रकारिता को स्थानीय मुद्दे प्रभावित करते हैं लेकिन उनकी अनुगूंज दूर तक जाती है। यदि कस्बाई मुद्दे को संजीदगी से उठाया जाये को वह केन्द्रीय मुद्दा बन जाता है। उन्नाव बलात्कार कांड इसका पुख्ता उदाहरण है। कहना न होगा कि कस्बों को पत्रकारिता इसलिए कठिन है कि पत्रकार सुरक्षित नहीं हैं। और आर्थिक विपन्नता भी उन्हें ग्रसती है। उन पर आसानी से दबाव डाला जाता रहा है और खबरों का स्वरूप दबाव के कारण वह नहीं रह जाता, जो था। कस्बों में खबरें लिखी कम जाती हैं दबाई अधिक जाती हैं। नागरीय पत्रकारों के सामने होड़ का संकट है। दबाव के कारण अपुष्ट खबरें भी देनी पड़ जाती हैं। नागरीय पत्रकारों के लिए विश्वस्त सूत्र बहुत बड़ा फैक्टर हैं। जोड़- तोड़ के बगैर खबरें ब्रेक करना मुश्किल है। अंदरखाने तक पैठ यूं ही नहीं बन जाती उसके लिए शीर्ष अधिकारियों व नेताओं का भरोसमंद बनना पड़ता है। ऐसे में तटस्थता नहीं रह जाती। ऐसा न करें तो प्रेस कांफ्रेंस, प्रेस ब्रीफिंग और प्रेस रिलीज की ही पत्रकारिता होगी। नागरीय पत्रकारों को कई बार किसी नेता से अप्रिय सवाल पूछने पर नौकरी से हाथ धोना भी पड़ सकता है। जिस तरह अर्थव्यवस्था बैठ रही है पत्रकारों को मीडिया संस्थान के हर तरह के हुक्म का पालन करने को तैयार रहना पड़ रहा है, वरना इस्तीफे का विकल्प तो है ही।
4. देश के वर्तमान माहौल में क्या पत्रकारिता निरपेक्ष नज़र आती है?
पत्रकारिता क्या देश के वर्तमान माहौल में कोई निरपेक्ष नहीं रह पायेगा। अब असहमति मूल्य नहीं रह गयी है। विरोध अब किसी न किसी साजिश के हिस्से के तौर पर देखा जा रहा है। यह दौर संवाद नहीं जयकारे का है। सौभाग्य से हिन्दी पत्रकारिता ने अपनी शैशवावस्था में ही आंदोलनकारियों का संगसाथ पाया और वह बड़े मूल्यों से जुड़ी। लोगों में सचेतनता पैदा करना और देशभक्ति की भावना को भरना उसका उद्देश्य था। इसलिए उस समय के प्रखर साहित्यकार व आंदोलनकारी पत्रकारिता से जुड़े। अब पत्रकारिता के मूल्य बदल गये हैं। मार्केटिंग हावी हो गयी है। अब मीडिया ने पीआर को ही अपनी भूमिका मान ली है। मीडिया अब शुद्ध रूप से व्यवसाय बनता जा रहा है। कहने को तो वह उदात्त मूल्यों से जुड़ा हुआ है, किन्तु वह एक आड़ भर है। अन्य व्यवसाय से जुड़े लोगों ने इसे भी अपना एक व्यवसाय बना लिया है। पत्रकार भले मुगालते में रहें कि वे कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं, किन्तु उसका संचालक समाचार पत्र को एक व्यवसायिक प्रतिष्ठान ही मानता है। ऐसे में निरपेक्षता का प्रश्न बेमानी है। पत्रकार हाशिए पर रहकर चुपचाप सार्थक काम करते हैं, जितना भी बन पड़ता है। और सम्पादक कंटेंट और कांटेक्ट मैनेजर बन चुके हैं। प्रिंट मीडिया में एक संकट भाषा को लेकर भी है। ऐसी भाषा कम लिखी जा रही है जो पाठक को बांध ले। कभी प्रभाष जोशी के लम्बे लम्बे लेखों को हम पढ़ते थे और आनंदित व मोहित होते थे। भले उनके लिखे विषयों में हमारी दिलचस्पी न हो। हम उनके लेखों से जीना भी सीखते थे और संघर्ष करना भी। जीवन के मूल्य भी। अखबार केवल सूचना नहीं देते। जीवन में सकारात्मक सोच भी दे सकते हैं। वह भूमिका कम होती जा रही है।
5. जमशेदपुर में पत्रकारिता की वर्तमान स्थिति और भविष्य का स्कोप
जमशेदपुर में पत्रकारिता में झारखंड के आदिवासी समुदाय के संघर्ष और उनकी समस्याओं को उजागर करने व उनके अधिकारों के संरक्षण को स्वर देने की  चुनौती है दूसरी ओर आधुनिक शिक्षित कामकाजी वर्ग और व्यवसायिक गतिविधियां हैं। दोनों का तालमेल बैठना आम बात है। जिन दिनों झारखंड के तीन शहरों से दैनिक जागरण लांच करने की तैयारी चल रही थी मैं वर्ष 2003 में जमशेदपुर में फ़ीचर डेस्क प्रभारी बनकर पहुंचा था। मैंने महसूस किया था कि एक गहरी समझ व जनहित के प्रति संवेदनशील रुख की पत्रकारिता जमेशपुर व झारखंड की पत्रकारिता के लिए आवश्यक है। क्योंकि यहां दो विपरीत ध्रुव हैं जिन्हें साधना कठिन चुनौती है। मैंने तमाम साहित्यकारों का सहयोग लिया। बार-बार उनके घर गया। उनकी रुचियों को जाना व उन्हें प्रेरित किया कि वे साहित्येतर विषयों पर लिखें। आज की पत्रकारिता की एक चुनौती यह है कि साहित्येतर विषयों पर साहित्यकार नहीं लिखते हैं। कविता, कहानी व साहित्यिक विषयों पर आलोचना उनके केन्द्र में हैं। लेकिन उनसे बार -बार तकादा कर साहित्येतर विषयों पर लिखवाया जाये तो वे पत्रकारों से अच्छा लिख सकते हैं। क्योंकि साहित्यकारों की चिन्ताएं समष्टिगत होती हैं। वे साहित्य पर लिखते हुए भी व्यापक सरोकारों से जुड़े होते हैं। प्रिंट मीडिया की पत्रकारिता का भविष्य ऐसे लोगों के बूते सुरक्षित किया जा सकता है। धर्मयुग में धर्मवीर भारतीय ने ऐसा किया था। उन्होंने विष्णुकांत शास्त्री से रिपोर्ताज लिखवाये थे। मुझे याद है जमशेदपुर के प्रख्यात कथाकार जयनंदन जी ने वहां की नदियों पर जो लिखा था, वह एक बेहतरीन रिपोर्ताज का उदाहरण बन सकता है। मुझे नहीं लगता कि जमेशपुर का कोई भी साहित्यकार ऐसा होगा जो उन दिनों दैनिक जागरण से न जुड़ा हो। आर्थिक मसलों पर मैंने अर्थशास्त्र के प्रोफेसरों से और नाट्य समीक्षाएं वरिष्ठ रंगकर्मियों से लिखवायी थी।





 


Sunday, 3 February 2019

अपराजेय जिजीविषा के दस्तावेज


पुस्तक समीक्षा

पुस्तक का नाम : सरगम के सुर साधे/लेखक : ध्रुवदे‍व मिश्र पाषाण/प्रकाशक : प्रतिवाद प्रकाशन, 1/5 पी.के.राय चौधुरी सेकेण्ड बाई लेन, पो. : बी. गार्डेन, हावड़ा-711103
वरिष्ठ ध्रुवदे‍व मिश्र 'पाषाण' पहली ही कविता पढ़ते हुए जैसे महाप्राण निराला को पढ़ने का भ्रम होता है। जामुन के पेड़ पर लिखी कविता है -'सरगम के सुर सधे।' नाम भी संगीत से जुड़ा है और कविता छंदबद्ध -'धरती में/गहरे धंसी जड़ों की फांस-फांस/शिरा-शिरा ऊपर चढ़ता/तरु की नस-नस/जीवन-जल। उगते शाख-शाख पत्ते/हवा-हवा झूम झूम/हिलते पत्ते/जुड़ते-जुड़ते पाखी/पांख-पांख/फर-फर/सर-सर/सरगम के सुर साधे पाखी।' इस कविता में उनकी अपराजेय जिजीविषा, प्रकृति प्रेम और उसका संगीत पाठक को अपनी गिरफ्त में ले लेता है... और हम आश्वस्त होते हैं कि-'नहीं चुकेगा/धरती का/जीवन-जल।/नहीं रुकेगा/शाख-शाख/उगते-झरने का क्रम/प्रलय कीच में/खिला करेगा/सृष्टि-कमल हरदम।' यह अनायास नहीं है कि दूसरी कविता मुक्तिबोध से सम्बद्ध है। उसका नाम ही है-'एक हर्फनामा: मुक्तिबोध से जुड़ते हुए'। इस कविता में वामपंथी चेतना पर विश्वास और मेहनकशों की विजय के स्वप्न अब भी जीवित हैं-'गांव-शहर उमड़ती भीड़/बदलेगी/सत्ता-समाज का जीर्ण-शीर्ण/व्याकरण/धरती की रक्ताक्त हथेली पर/रचेगी हरियाली की भाषा।'
पाषाण जी सदैव हमारे समक्ष एक ऐसे रचनाकार के तौर पर उपस्थित रहते हैं जिसने सांस्कृतिक मोर्चे पर हर पराजय के बाद अपने को नयी ऊर्जा से लैस किया है। इस संग्रह की कविता 'मृत्युंजय' से उन्हीं के शब्दों में-'जरा से अभय/मरण से निर्भय/काल/महाकाल/कालातीत को/ठेंगा दिखाता/अनंत का आक्लांत यात्री।' और यही मूल स्वर है कवि का। संग्रह की हर कविता से झांकता मिलेगा उसका अपना व्यक्तित्व, काव्य -सम्बंधी उनकी अवधारणाएं और मूल प्रतिज्ञाएं। हालांकि यह कविताएं एक गहरे अर्थ में आत्मपरक नहीं हैं क्योंकि इसमें किसी भी रचनाकार की अवचेतना में अपनी रचनाशीलता को लेकर जो अमूर्त प्रश्न हैं, यहां उनके उत्तर सहित मौजूद हैं।
'सुनामी' कविता में पाषाण जी लिखते हैं-'सुनामी-दर-सुनामी/जारी है/नयी सृष्टि के प्रसव का स्राव।' 'एक वह' कविता में लिखते हैं-'उगना ही नहीं/ढलना भी है उसे/हर रोज/गोया/हर रोज एक मरण/ मगर/न रुकता है/न ऊबता है/पूरब की चढ़ाई से/न शिथिल पड़ती है/ चलने की रफ्तार।' कविता में जगह जगह वही हार न मानने की जिद वह नव निर्माण की तैयारी।
अपनी भूमिका में पाषाण जी ने जिन बातों का उल्लेख किया है। उसे आप उनकी काव्य सर्जना में विस्तार से फलीभूत होता हुआ पायेंगे। यथा-जो विचार और किताबें जीवन को घेरते हैं-'उनकी घेरेबंदी और जकड़बंदी के मकड़जाल को सोच-समझ कर कविता तोड़ती है। व्यापक जनजीवन की अगली हलचलों को आलोड़ित करने वाले आंदोलनों से नाभिनालबद्ध होकर कविता अपना कलेवर तैयार करती है। कविता जीर्ण-शीर्ण प्राचीन को जीवन के ताप से तपाती है, जलाती है। ऐसी कविता ही मशाल बनती है, जीवन को रोशनी देती है। कविता मानव आत्मा को मुक्ति का रास्ता बुहारती है'... आदि-आदि। अंतिम बात में आत्मा का जिक्र है। क्रांति से आध्यात्मिकता की ओर उनका उन्मुख होना एक नयी दिशा की ओर उनका काव्य- प्रस्थान नहीं है। पहले भी वे आध्यात्मिक प्रश्नों से पौराणिक पात्रों पर लिखते हुए भिड़ चुके हैं। वाल्मीकि की चिन्ता, चौराहे पर कृष्ण उनकी परवर्ती काव्य कृतियां हैं। वे जिस समाज और समुदाय को मुखातिब हैं और जिसके जीवन-मरण और संघर्ष में सहभागिता का उन्होंने बीड़ा उठाया है वह आत्मा के प्रश्न से बेतरह जुड़ा हुआ है। उसकी बोली -बाली और चिन्तन के तौर तरीकों को अपनाये बिना उस तक पहुंचने का मार्ग भी कहां है? उनके इस संग्रह में पवित्रता जैसी अवधारणा भी हैं। इस संग्रह में कुछ प्रेम कविताएं भी हैं। जिनमें एक शीर्षक ही है 'पवित्र हो तुम। 'प्लेटोनिक लव की स्थिति है इस कविता में। यह नवम्बर 2013 में लिखी गयी है। सन् 2004 की लिखी कुछ प्रेम कविताएं भी हैं। और पुस्तक के अंत में निराला से अपने जीवन की घटनाओं की प्रकारांतर में तुलना भी है। उस वेदना के संदर्भ में जो अपनी बेटी पर लिखे उनके प्रसिद्ध शोक काव्य 'सरोज स्मृति' की रचना का कारण बनी। पाषाण जी ने संदिग्ध परिस्थियों में मृत अपनी पौत्री को याद किया है और वैसी ही किसी रचना के सृजन के प्रति आशान्वित हैं।

Tuesday, 28 November 2017

गांव की विडम्बनापूर्ण स्थितियों का कथात्मक विश्वसनीय दस्तावेज

साभारः सन्मार्ग, कोलकाता, 26.11.2017

लघुकथाकार के रूप में पुख्ता पहचान बना चुके अशोक मिश्र का पहला कहानी संग्रह ‘दीनानाथ की चक्की’ ग्रामीण परिवेश को जीवंत करता हुआ पाठकों के आस्वाद में एक सकारात्मक और ज़रूरी हस्तक्षेप करता है। हालांकि इसमें संग्रहीत कहानियां देश की प्रमुख पत्रिकाओं में पहले ही प्रकाशित हो चुकी हैं किन्तु एक साथ इनको पढ़ना उनकी मुकम्मल दस्तानगोई से वाकिफ होना है। उनकी कहानियों में कस्बाई और शहरी परिवेश है किन्तु वह ग्रामीण दृश्य से देखा गया शहर है। उनकी कहानियां गांव से उठती हैं और उसके विषाक्त होते परिवेश और वहां ध्वस्त होते जीवन मूल्यों को बेबाक ढंग से पाठक के समक्ष रखती हैं। जातिवाद का घुन किस कदर देश की सारी व्यवस्था को कमज़ोर कर रहा है, इसकी शिनाख्त इन कहानियों से की जा सकती है। यह कहानियां कहानी भर ही नहीं हैं, बल्कि उससे आगे जाकर एक समाजशास्त्रीय अध्ययन और विमर्श बन जाती हैं।

संग्रह की पहली कहानी ‘बुद्धिराम@पत्रकारिता डॉट कॉम’ पत्रकारिता की दुनिया में जातिवादी गठजोड़ और देश की तमाम घटनाओं को जातीय दृष्टिकोण से देखने-दिखाने को बेनकाब करती है लेकिन वह जातीय विमर्श तथा समाज में दलित और स्त्री की स्थिति तक ही नहीं रुकती बल्कि मीडिया के पतनोन्मुख यथार्थ को भी बयां करती है। मीडिया के मिशन से प्रोफेशन बन जाने की टीस भी इसमें है। बीस साल तक पत्रकार के तौर पर सक्रिय रहे इस कथाकार ने इस दुनिया को करीब से देखा है, जो कथन को अतिरिक्त विश्वसनीयता प्रदान करता है। शीर्षक कहानी ‘दीनानाथ की चक्की’ भी आज की ग्रामीण व्यवस्था का आईना है और ग्राम विकास के नाम पर चलाई जा रही योजनाओं पर गहरा व्यंग्य है। शिक्षा जगत में व्याप्त विसंगतियां तो उनकी कई कहानियों में उजागर हुई हैं। अशोक मिश्र की कहानियां परास्त, पस्त और निराश लोगों के घुटन का दस्तावेज हैं। हर चौथी पंक्ति कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी प्रकार व्यवस्था की खामियों पर एक तल्ख टिप्पणी है और यह विनय की भाषा में नहीं है। उनकी कहानियों में संवाद कम हैं लेकिन जब भी कोई पात्र मुख खोलता है, उसमें तीखा कटाक्ष है। इसी प्रकार गांव की मौत कहानी में मौजूदा विडम्बनाओं के हमारा साबका पड़ता है। संग्रह की सत्रह नयी- पुरानी कहानियों में अशोक मिश्र ने क्रमशः लेखन -शिल्प को मांजा, कटाक्ष को तीव्रतर और यथार्थ पर अपनी पकड़ को मज़बूत किया है।

    डॉ.अभिज्ञात

Wednesday, 1 November 2017

काइनात में कुछ भी नहीं है,दो दिल इक धड़कन



साभार- सन्मार्ग 12.11.2017

पुस्तक समीक्षा/डॉ.अभिज्ञात

पुस्तक : झील के बिस्तर पर/गीत/लेखक-फ़े.सीन.एजाज़/प्रकाशक: इंशा पब्लिकेशंस, 26 ज़करिया स्ट्रीट, कोलकाता-700073/मूल्य: 120 रुपये


दिल के अहसासों को पूरी शिद्दत से व्यक्त करने वाले गीतों का संग्रह ‘झील के बिस्तर पर’ आया है। इसे लिखा है उर्दू के प्रख्यात शायर, कथाकार, आलोचक और ढाई दशक से अधिक अरसे में कई देशों में अपना अच्छा-खासा पाठक वर्ग तैयार कर चुकी पत्रिका ‘महानामा इंशा’ के सम्पादक फ़े.सीन.एजाज़ ने। देवनागरी लिपि में आये ये गीत हिन्दी गीतों के प्रचलित मुहावरों और प्रतीकों से एकदम अलग हैं जिसके कारण इनमें अतिरिक्त ताज़गी है। चूंकि एजाज़ ग़ज़लगोई की दुनिया का एक सुपरिचित नाम है, जिसने गीत के मीटर पर भी अपनी वैसी ही पकड़ बरकरार रखी है इसलिए इन गीतों को गाने वालों के सामने भी कोई दुश्वारी नहीं है। हिन्दी उर्दू की मिलीजुली आसान हिन्दुस्तानी जुबान में लिखे ये गीत आसानी से लोगों की समझ में आने वाले हैं। एक और खूबी यह कि कई गीत स्त्रियों की ओर से उनके मनोभावों को व्यक्त करने वाले हैं। एक बानगी देखें-‘तरसेंगी मिरी सांस को जब सांसें तुम्हारी/उलझेंगी मंज़िलों से भी जब राहें तुम्हारी/कुछ काम न आ पायेंगी जब आहें तुम्हारी/ढूंढोगे मेरे साथ की तन्हाइयों को तुम/पर मैं नहीं मिलूंगी..।’
ताजमहल को लेकर उर्दू शायरी में साहिर लुधियानवी से लेकर तमाम रचनाकारों ने बहुत कुछ लिखा है, उस क्रम को एजाज़ ने आगे बढ़ाया है। उनका गीत यूं है-‘सोचा है कोई ताजमहल हम भी बनायें/ हल्का सा कोई तंज़ ज़फ़ाओं पे नहीं हो/इस दिल को ग़ुरूर अपनी वफ़ाओं पे नहीं हो/दिल छूने का इक तर्ज़े अमल हम भी बनायें।’
इस संग्रह के गीतों में नारेबाजी व समाज को बदल डालने की चाहतों की बातें नहीं बल्कि मुहब्बत, ज़ुदाई व उससे जुड़े मनोभावों को अधिक व्यक्त किया गया है जो युवाओं को भी आकृष्ट करेगा-‘कल तू भी नहीं होगी यहां, हम भी न होंगे/आ जा के मुलाक़ात का यह आख़िरी दिन है/इक प्यार का आलम जो गुज़ारा है तेरे साथ/बरसात का मौसम जो गुज़ारा है तेरे साथ/उस मौसमे बरसात का यह आख़िरी दिन है।’ उनके गीतों की दुनिया में और कोई नहीं बल्कि दो मुहब्बत करने वाले हैं और उनसे जुड़ी बातें हैं। इस बात को वे अपने पहले ही गीत में कह देते हैं-‘आज इक साथ हंसें तो खुल कर साथ बहें आंसू/कोई नहीं है वादी--गुल में, इक मैं और इक तू/काइनात में कुछ भी नहीं है, दो दिल इक धड़कन/यह कैसी उलझन है।’

Thursday, 12 October 2017

प्रोसेनियम की ओर से कवि सम्मेलन और मुशायरा सम्पन्न


कोलकाताः शिव कुमार झुनझुनवाला द्वारा संचालित प्रोसेनियम आर्ट सेंटर की ओर से उसके रिपन स्ट्रीट सभागार में कवि सम्मेलन और मुशायरा का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता कवि, गायक व पश्चिम बंगाल के अतिरिक्त पुलिस महानिरीक्षक (रेलवे) मृत्युंजय कुमार सिंह ने की। उन्होंने इस अवसर पर न सिर्फ अपनी कविताएं सुनायीं बल्कि स्व लिखित अपने भोजपुरी गीतों से भी उपस्थित समुदाय का मन मोह लिया। कार्यक्रम में डॉ. अभिज्ञात ने पैसे फेंको, तुम मेरी नाभि में बसो विश्वास कविताएं और देशभक्ति गीत दुश्मन के लहू से लिखने को एक और कहानी है गीत सुनाया। वदूद आलम आफ़ाकी ने ग़ज़ल "जो कह दिया उसे कर के दिखा दिया उसने, हाँ में मुझको तमाशा बना दिया उसने' सुनाकर खूब तालियां बटोरी।
जितेन्द्र जितांशु ने बहुत धूप है ,काला चश्मा साथ नही है  तथा घर से घर को घर की तरफ  आदि कविताएं सुनायीं। सोहैल खान सोहैल की ग़ज़ल यूं थी- 'पत्थर पूजे या फिर निराकार है,सबका करता वो ही बेड़ा पार है।' पलाश चतुर्वेदी ने अपनी हिन्दी व उर्दू कविताओं का पाठ किया। कार्यक्रम का संचालन किया डॉ.बिन्दु जायसवाल एवं अरविंद कुमार सिंह ने।












Wednesday, 4 October 2017

संवेदना के नये धरातल के अन्वेषण की कविताएं

पुस्तक समीक्षा
-डॉ.अभिज्ञात
कविता संग्रह-काश !कोई शीशा दिखाता/लेखक-सुव्रत लाहिड़ी/
प्रकाशक-आनंद प्रकाशन, 176/178 रवीन्द्र सरणी, कोलकता-700007/
मूल्य-200 रुपये

सुव्रत लाहिड़ी का यह दूसरा कविता संग्रह लगभग 25 साल बाद आया है। पहला संग्रह ज़िल्द बन जाने से पहले था। इस बीच उन्होंने अपने काव्यानुभवों और संवेदना के स्तर का पर्याप्त विकास किया है। यूं भी एक वामपंथी प्रतिबद्ध विचारक की संवेदना के धरातल के प्रति पाठकों में उत्सुकता होती है किन्तु जिस भाव प्रवणता का परिचय इस संग्रह से मिलता है वह उसे सुखद विस्मय से भर देता है। यहां विचारों का शुष्क संसार नहीं है बल्कि मनोवेगों के उतार-चढ़ाव व संवेदना के विभिन्न रूपों से उसका साबका होता है। ये कविताएं संवेदना के नये धरातल का अन्वेषण करती नज़र आती हैं। प्रकृति उनके कथन को व्यक्त करने का विश्वस्त आलम्बन है-'अभी/बस अभी खिले ओस भींगे स्निग्ध जूही के अनगिनत फूल/सुबह की शुरुआत है/सूरज की आह्निक गति की पहली कड़ी है/चहचहाहट के मंत्रोच्चार से झूमती बूंद ओस की/हर सुबह का करती है स्वागत/तुम सुबह हो..।'
संवेदना की गहराई का 'खोया' कविता पुष्ट उदाहरण है, जो मां पर लिखी गयी है-'जिन जिन की मां/तारा बन गयी/उसे खोने का दर्द/महसूस नहीं कर पाते वे/मां है जिनके साथ।'
कविता की असली ताक़त वे किसे मानते हैं वह 'जरूरी' कविता में उन्होंने स्पष्ट किया है-'शब्दों को/कविता में सुरक्षित करना/ज़रूरी हो गया हमारे शब्दों को ग्लास हाउस में रखकर बोंसाई बनाने का प्रयास जारी है इसलिए कवि होना नहीं शब्दों की देखभाल ज़रूरी है।' दरअसल उनकी निगाह में केवल कविता नहीं बल्कि शब्दों की वह शक्ति महत्वपूर्ण है जिसमें मानवीय नियति, सभ्यता, संस्कृति व मेहनतकश जनता का इतिहास महफूज होता है, लेकिन उसके पाठ में दुरभिसंधियां छिपी होती हैं। शब्द अपने सही आशय खो रहे हैं। कवि की निगाह में कविता में ही शब्द को सहेज कर महफूज रखा जा सकता है।
छीजती संवेदनशीलता और जीवन से खोते उल्लास के प्रति कवि के मन में गहरी टीस है। यह उसकी कविता में झांकती रहती है-'सोचता हूं/बारिश से बुझी आग में तप कर/श्मशान में एक गुलमोहर का पौधा लगाऊंगा/कभी तो संवेदन भरा फूल खिलेगा/तब भरपूर रोऊंगा/तब भरपूर हंसूंगा/तब भरपूर बोलूंगा/तब मेरे शब्द संवेदनपूर्ण होंगे।'
सुव्रत लाहिड़ी की कविताओं में शिव, कृष्ण, राधा, दक्ष, सीता, द्वापर, त्रेता आदि पौराणिक चरित्रों व शब्दावलियों से जुड़े संदर्भ उनकी बातों को व्यापक अर्थ प्रदान करते हैं। बांग्ला संस्कृति की छाप तो खैर उनकी हर कविता में है, जो हिन्दी कविता के सौंदर्य को समृद्ध करती है।

Saturday, 29 July 2017

विस्थापन और खालीपन के दंश की अभिव्यक्ति

पुस्तक समीक्षा /डॉ.अभिज्ञात

सड़क मोड़ घर और मैं/ निर्मला तोदी/ 

वाणी प्रकाशन, 4695, 21 ए, दरियागंज,

 नयी दिल्ली-110002, मूल्य-295 रुपये



निर्मला तोदी की कविताओं को पढ़ना एक ऐसे काव्यात्मक संसार से गुज़रना है, जहां इस बात का चौकन्नापन और सजगता मिलती है कि अमुक शै अमुक ज़गह पर होनी चाहिए थी, वह वहां क्यों नहीं है। अगर वह अपनी ज़गह से हट रही है, हट चुकी है या हटेगी तो उसके कारक क्या हैं। विस्थापन की ऐसी चिन्ताएं उनकी सोच को काव्यात्मक प्रतिबद्धता प्रदान करती है। विस्थापन और खालीपन के दंश का सामना उनकी कविताओं में बार-बार होता है और इस क्रम में हर बार कविता की एक नयी ज़मीन टूटती लगती है। उनकी काव्य- शैली इतनी सधी हुई है कि कविता अपने होने को अलग से उजागर नहीं करती। साधारण घटनाओं के बीच चुपचाप बहती रहती है। न तो उनकी कविताओं में टूटन की तीव्र आवाज़ें हैं और ना रूदन की तेजतर हिचकियां, पर उदासी है और जहां-तहां पसरी पड़ी है-'बड़े मज़बूत हैं दीवारों के कंधे/सिर रखकर रोया जा सकता है/अपनी बात कही जा सकती है/ खूब धैर्य से सुनती हैं/बड़े सुन्दर हैं इसके कान/किसी और से कहती भी नहीं/मेरी बातें सिर्फ़ मुझसे करती हैं/मुझे अपने जैसी लगती हैं।'
ये कविताएं किसी के न होने में होने का आभास करातीं और होने की अर्थवत्ता को भी उजागर करतीं हैं। और समय के चूक जाने के बाद होने के अर्थ को समझना स्थिति को कारुणिक भी बनाता है। कभी पूरी न होने वाली एक क्षति का पता देता है और कई बार खालीपन से उपजी उपलब्धियों से संतोष करना भी सिखाता है-'बड़ों का सिर पर हाथ हो/बहुत कुछ संभल जाता है/अपने आप/ बड़ों की खड़ाऊं/ संभाल लेती है राज-पाट।' मृत्यु पर लिखी गयी हिन्दी कविताओं के क्रम में निर्मला तोदी की कविता उनके जाने के बाद एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है, यह कविता उन्होंने अपनी सास की मृत्यु पर लिखी है-'सुबह नल की सबसे पहली आवाज़/शाम के कूकर की पहली सीटी/अब चुप है/वह जिस जिस आवाज़ में थी/यह भी मालूम हुआ/उनके जाने के बाद/रसोई से/उनका पानी का लोटा गुम है/तनी पर सूखते कपड़ों में/सफ़ेद रंग कम है/लगातार हाथ में घूमती माला/बैठी है चुपचाप/सब चीज़ें कहां थीं/मालूम हुईं उनके जाने के बाद।'
अभिव्यक्ति की विकलता और अपने अंतरमन को पन्नों पर उकेरने की बेचैनी कि कविताएं हैं सड़क मोड़ घर और मैं काव्य संग्रह में। अच्छी, उत्कृष्ट समकालीन काव्यात्मक मुहावरों से कदमताल करने का कोई प्रयास नहीं दिखायी देता और यही सादगी उनकी खूबी है। कई कविताएं शृंखलाबद्ध हैं। एक पूरा परिदृश्य उनकी कई कविताओं को मिलाकर उपस्थित है। अर्थात् तीन-चार-पांच कविताएं एक ही ज़मीन पर लिखी गयी हैं या फिर उन्हें मिला भी दिया जाये तो एक ही कविता का हिस्सा बन जाये, अर्थात् एक भावभूमि पर शृंखला की एकाधिक कविताएं हैं। ऐसा हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कवि केदारनाथ सिंह में भी है। उन्होंने सूर्य पर कई कविताएं लिखी हैं, हालांकि उन्हें अब तक वैसे शृंखलाबद्ध नहीं किया गया है जैसे बाघ कविता का किया गया। उनकी सूर्य सम्बंधी कविताओं को शृंखलाबद्ध करने पर एक नये विस्मयलोक और अर्थपूर्ण जगत का उद्घाटन संभव है। केदारजी के पूर्ववर्ती कवि मुक्तिबोध में भी यह शृंखलाबद्धता दिखती है, भावबोध की। मुक्तिबोध साथ तो यह भी हुआ कि उनकी लम्बी कविता के टुकड़े अलग-अलग कविता के तौर पर प्रकाशित हुए। निर्मला तोदी में शृंखलाबद्धता की प्रवृत्ति इसलिए दिखायी देती है कि उनमें एक समूचा काव्य व्यक्तित्व है, जो एक बड़ी सम्भावना वाले रचनाकार में दिखायी देता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर, अज्ञेय, शमशेर आदि की तरह। सारी रचनाओं की कड़ियां कोई सावधानी से मिलाये तो मिलेंगी। उनके जाने के बाद, जिस समय सांस निकलती है’, ‘इस तरह’, ‘जीवन चलता रहता है’, ‘बड़ों की खड़ाऊं एक ही भावभूमि की कविताएं हैं। उसी प्रकार 198 बी बी गांगुली स्ट्रीट’, ‘अपनी गली की दुनिया’, ‘रैली में, होड़ एक शृंखला की कविताएं हैं जो उनके अपने व्यक्तित्व और उनके आसपास के परिवेश और मनोजगत की हलचलों का पता देंगी। वैसे शमशेरित उनकी कविताओं में चित्रात्मकता के संदर्भ में है। उनकी कई कविताओं में दृश्य ऐसे उपस्थित हैं, जैसे वे किसी पेंटिंग का विवरण हों। या फिर कोई चाहे तो उनकी कविताओं को पढ़कर पेंटिंग बना ले।
उनकी कविताओं में प्रकृति भी बड़ी गरिमा से उपस्थित है तथा उसकी छोटी- बड़ी हलचलों का जीवंत समूचा दृश्य है, खासतौर पर बारिश का अंतरबाह्य प्रभाव परिलक्षित है और उसका बारीक विवरण भी। जीप की घरघराती आवाज़ से दरख़्तों की टूटती तन्मयता तक की फ़िक्र उन्हें है-'कौन सी साधना/ कैसी तन्मयता/ टूटती है/जब घरघराती जीप गुज़रती है।' कई बार तो वे मनुष्य तो वृक्षों से सीखने की नसीहत तक दे डालती हैं-'सभी पेड़ खड़े हैं/ साथ साथ/ पास पास/ हम लोगों में/ ऐसा क्यों नहीं होता।'
उनकी कविताओं में कई ज़रूरी सवाल और मुद्दे हैं, जिनमें शहर के आगे गांव की हैसियत, वर्तमान समाज में स्त्री की स्थिति, परित्यक्त स्थलों की उदासी, मृत्यु से उपजा सूनापन उल्लेखनीय है। स्त्री के सम्बंध में वे लिखती हैं-'चांदनी फैली हो/ या हो अमावस्या की रात /उसे क्या फ़र्क पड़ता है/ वह सोती है/ रोज़ ही/ वाणों की शैया पर।' ध्यान पर भी उनकी कविताएं हैं, जो उनकी कविताओं में आध्यात्मिक रुझान को पुष्ट करता है।



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