अपनी जिन्दगी की लगभग पूरी ऊर्जा किसी एक ग्रंथ के भाष्य में कोई लगा दे तो उस काम के महत्व का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। डा.मंगल त्रिपाठी ने लगभग चालीस साल गीता के भाष्य को दिये हैं। अपने जीवन की लगभग समस्त ऊर्जा उन्होंने इस काम में झोंक दी है। ऐसा नहीं है कि वे इसमें अकेले लगे हैं बल्कि कमोबेश पांच लोगों की पूरी टीम उनके साथ इस काम में जुटी रही है हालांकि इस लम्बी कालावधि में उनके कुछ साथी अब नहीं रहे।
लगभग छह सौ पृष्ठों का जो भाष्य तैयार किया है वह न सिर्फ चिन्तन से जुड़ा नायाब ग्रंथ है, बल्कि वह कलात्मक संयोजन का भी उत्कृष्ट उदाहरण है। तीन सौ पृष्ठों में गीता के समस्त श्लोक और उसका मंगल त्रिपाठी द्वारा किया गया भाष्य है बल्कि उनके भाष्य की चित्रात्मक अभिव्यक्ति वाली पेंटिंग की तस्वीरें भी ग्रंथ में हैं। अर्थात 300 पृष्ठ में भाष्य और उतने ही पृष्ठों में चित्र भी।
पुस्तक में लेखन सम्बंधी कार्यों का मूल्य छोड़ कर केवल उसमें प्रयुक्त होने वाली सामग्री पर ही प्रति पुस्तक एक लाख से अधिक का खर्च बैठा है। ग्रंथ का वजन साढ़े सात किलो है। वह एक ऐसे लकड़ी के बाक्स में है जिसे खोलकर ग्रंथ को बाहर निकाले बिना ही पढ़ा जा सकता है। ग्रंथ का नाम हीरे से लिखा है।
हीरे का उपयोग ग्रंथ में किये जाने के औचित्य पर उन्होंने बताया कि मैं मानता हूं कि गीता के श्लोक हीरे से अंकित किये जाने योग्य हैं। अपने सीमित संसाधनों के बावजूद मैंने यह प्रयोग इसलिए किया ताकि गीता के महत्व की ओर लोगों का ध्यान जाये। आज के समय में गीता ही वह ग्रंथ है जो हमें मार्ग दिखला सकता है। कोई व्यक्ति जब ज्ञान मार्ग पर चलता है तो कभी न कभी वह गीता के अर्थ तलाश करने की कोशिश अवश्य करता है क्योंकि गीता में हर ज्ञान को चुनौती देने वाले तत्व विद्यमान हैं। जिसके ज्ञान की परिधि जितनी है गीता का अर्थ उसे उतना ही मिलता है। गीता ज्ञान को एक प्रवाह के रूप में देखने को विवश करती हैं क्योंकि गीता अर्थ का निरंतर अतिक्रमण करने वाला शास्त्र है।
त्रिपाठी से जब यह पूछा गया कि आज गीता के कई भाष्य विद्यमान हैं, आपको उसमें से कौन सा भाष्य अपने भाष्य के अर्थ के करीब लगता है, तो उनका कहना था गांधी जी और ज्ञानेश्वर का भाष्य मुझे प्रिय है किन्तु मैंने अपने भाष्य अपने तरीके से किया है दूसरे का अनुसरण नहीं। मैं गीता के पास दूसरे भाष्य के रास्ते नहीं गया। मैंने सीधे गीता से अर्थग्रहण को ही अपना पथ चुना। मैं गीता के पास अपना ज्ञान और अर्थ लेकर नहीं गया। मैं गीता के पास गया और जो मिला उसे अर्जित किया।
उन्होंने बताया गीता के मेरे भाष्य की प्रतियां सीमित हैं और वह आम बिक्री के लिए नहीं है। उन्होंने बताया कि मेरे आय के साधन सीमित हैं फिर भी मैं यदि इस कार्य को अंजाम दे पाया तो मैं इसे गीता की अपनी शक्ति ही मानता हूं।
उनका कहना था मैं चाहता हूं कि इसके महत्व को समझा जाये। गीता की प्रस्तुति सर्वोत्तम ढंग से करना ही मेरा मुख्य लक्ष्य है और चूंकि मेरे साधन सीमित हैं मैं यही कर पाऊंगा। कुछ अन्य धर्मग्रंथ में हैं जिनकी कुछ प्रतियां विशिष्ट तौर पर तैयार की गयी हैं तो फिर गीता के विशिष्ट अंदाज में क्यों न पेश किया जाये। उसे जो लोग देखना पढऩा जानना चाहते हैं तो वे राष्ट्रीय पुस्तकालयों में उनकी उपलब्धता का लाभ उठा ही सकते हैं।
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