शिवनारायण सिंह अनिवेद से डॉ.अभिज्ञात की बातचीत
(नोट-एक पुरानी बातचीत की अत्यंत विलम्ब से प्रस्तुति)
सुपरिचित युवा कवि और चित्रकार शिवनारायण सिंह अनिवेद मानव संसाधन मंत्रालय में उपसचिव हैं। दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में उनकी कला की एकल प्रदर्शनी कास्मिक सैलिब्रेशन लगी, जिसने उन्हें चर्चाओं के बीच ला खड़ा किया। कास्मिक सैलिब्रेशन नाम से उनकी एक पुस्तक भी आई है जिसमें उनकी पेंटिंग और हिन्दी कविताएं अंग्रेजी में अनुवाद और उनके कला व काव्य मर्म को उद्घाटित करने वाली टिप्पणियों के साथ आई। उन्हें पेंटिंग के लिए ललित कला अकादमी का पुरस्कार भी मिल चुका है। वे इधर कलकत्ता आए थे। प्रस्तुत है उनसे साहित्य, कला और प्रशासकीय कर्म के बारे में बातचीत-
- विज्ञान और कला दो विभिन्न धाराएं मानी जाती हैं। यहां तक कि एक को दूसरे के विपरीत दिशा वाली भी लगती है। आप तो फिजिक्स के छात्र रहे हैं। एक कलाकार के नाते आपका क्या अनुभव रहा?
सभ्यता के शुरुआत में जाएं। 50 हजार साल पहले वर्तमान मानव का प्रारंभिक दौर वह रहा। उसका मानव मन, कवि हृदय क्या विजुअलाइज करता था या सोचता था। मानव मन की टकराहट अपने आस-पास की प्राकृतिक दुनिया से हुई। उसके अंदर दो प्रतिक्रियाएं हुई। भय और आस्था की। संशय की प्रतिक्रिया हुई तो उसने विज्ञान (भौतिक शास्त्र) को जन्म दिया। आस्था की जो प्रतिक्रिया जन्मी उसने कला-साहित्य को जन्म दिया। मानव मन की जो मुख्य धाराएं हैं भय और आस्था। भय की जो मूल मानव दृष्टि है वह आज भी बरकरार है। हालांकि मुमकिन है आज जो भय की वजहें हैं उनका कारण कल विज्ञान ढूंढ लेगा। लेकिन तब नए भय भी होंगे। वे भय विज्ञान की प्रगति से उपजे भी हो सकते हैं। अर्थात एक ओर तो विज्ञान और वह नए भय भी पैदा कर रहा है। विज्ञान निर्भय नहीं कर रहा। दूसरा क्षेत्र आस्था का है। वही मनुष्य की सर्जनात्मकता को बचाए हुए है।
इस तरह देखा जाए तो मानव मन में जो फिजिक्स सेंस है, जो विजुअल आर्ट से जुड़ा है। विज्ञान और कला दोनों एक- दूसरे के निषेध बिन्दु पर नहीं, बल्कि पूरक ही है। एक बात यहां यह उल्लेखनीय है कि विज्ञान की सीमा है। कला विज्ञान से आगे चली जाती है। मूल विषय ज्ञान है। कला के मूल में आत्मा है। आत्मा से उपजी सर्जना है, विज्ञान से अधिक स्थायी व गहरी।
- आत्मा की बात आप कह रहे हैं। क्या आप आध्यामिकता पर विश्वास करते हैं?
आत्मा जिसे हम कहेंगे, सोचे-समझें। वह मिथिकल नहीं है। उसे आध्यात्मिक शक्ति कहें। सही ढंग से अंग्रेजी में कहूं कि इमोशनल स्ट्रेंथ ऑफ ह्यूमन बिइंग से हैं। तमाम बाहरी दुनिया की अबूझ चीजों को समझने के लिए बेहतर भौतिक दुनिया बनाने की आवश्यकता है। भय से बाहर आतंक से मानव निजात पाने के लिए अग्नि का आविष्कार हुआ। भोजन की व्यवस्था हुई। वही विज्ञान यात्रा न्यूटन से होती हुई, रोबोट, कम्प्यूटर से इंटरनेट तक पहुंची है। मगर यह नहीं भूलना होगा कि विज्ञान के भय या संत्रास का संतुलन पैदा करने के लिए आस्था से उपजी सर्जनात्मक कला और साहित्य की बेहद जरूरत है।
- विज्ञान और कला का योगदान क्या एक ही तराजू में तौला जा सकता है। दोनों के योगदान में भिन्नता क्या है?
विज्ञान ने सभ्यता का विकास किया, जबकि कला ने संस्कृति का। दोनों के बीच संतुलन का बिगड़ना ही मानव जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजडी है। खुद मेरी कला की सोच का मूल बिंदु यही है। प्रकृति व अन्य जीवों का जो गैर भौतिक पहलू है वह जाग्रत है। मार्क्स ने उसे सुपर कांसेस मटेरियल कहा है। वही मानव है। एक संवेदनशील मानव कितना ही विज्ञान का प्रखर समर्थक हो बार-बार लगता है कि मानवीकरण की जो प्रक्रिया है वह संस्कृति ही हो सकती है। मेरा मानना है साइंसेस मार्डनाइज द सोसाइटी, सोसल साइंस मार्डनाइज द ह्ययूमन बीइंग, एंड आर्ट एंड कल्चर ह्ययूमनाइज द ह्ययूमन।
- आपकी कला में अमूर्तन दिखाई देता है, जबकि भारतीय संस्कृति की बात करतें हैं, जबकि अमूर्तन के बारे में आम अवधारणा यह है कि यह पश्चिमी कला शैली है।
यह भ्रांत धारणा है कि अमूर्तन पश्चिमी कला शैली है। अमूर्तता का सबसे पुराना उदाहरण शिवलिंग है। वह भारत में मिला। भारत के पुरातात्विक अवशेष हैं फैलस। वही सबसे पुराना है। हिन्दुस्तान के हर कोने में इस अमूर्त बिंब के प्रति जो आम भारतीयों की आस्था है, उससे मैं प्रभावित रहा। इससे लगातार प्रेरित हुआ कि जो अमूर्तता का इतना शक्तिशाली प्रमाण कला व संस्कृत में भारतीय चित्रकला अमूर्त रही है। वैनगाग के बजाय हमें अपनी कला की ओर ध्यान देना होगा। फैलस को ही मैं कला की अमूर्तता का आधार मानता हूं। आस्था से जुड़ा पहलू प्रभावित करता है। वह धार्मिक उपयोग की शै नहीं है। भारतीय किसानों की पृथ्वी के प्रति उपजाऊपन की आस्था का प्रतीक है। देश के कोने-कोने की जनजातियों में लिंग या शिवलिंग का फर्टीलिटी कल्ट के रूप में प्रमाण पाया गया है। मानव की उत्पत्ति विकास हरास से जुड़ा हुआ है। लिंग या फैलस मानव, जीव और पौधों की उत्पत्ति का प्रमाण है। संस्कृति के जीवन में शिवशक्ति इस सोच की एक समकालीन व्याख्या करती है।
- तंत्र-मंत्र के बारे में आपकी क्या धारणा है?
भारतीय कला के कलात्मक प्रमाण के तांत्रिक या धार्मिक प्रयोग को व्याख्या दे दी गई है। 200 सालों के उपनिवेशिक शासन ने भ्रम खड़ा किया है। धार्मिक या तमाम आग्रहों को समयलीन नहीं रहने दिया। शुरू से समकालीन रहा है। कोणार्क या खजुराहो जीवन के उत्सव को अभिव्यक्त करते हैं। दर्द, पीड़ा, वेदना सब में है। भारतीय कलात्मक मूर्ति चित्रों के उत्सव के रूप में व्यक्त करता है। रहस्य-सा बना है। विदेशियों के लिए समझ पाने की कमी ने भ्रम पैदा करने वाले विशेषण दिए हैं। प्रजातांत्रिक दौर में बंधन नहीं काल्पनिकता है। दो धाराएं सोच की रही है। इंटरनल अर्ज एक्सप्रेशन पाता है।
गांव अपने आस-पास के समाज व्यवस्था की जो अभिव्यक्ति है शब्दों के माध्यम से अधिक हो पाती है। रंगों से आप प्रभावकारी बयान दे सकते हैं। बाहर दुनिया के बारे में उसी रूप में संप्रेषित करना उस बात को उसी तरह से पहुंचना शब्द से हो पाता है। चूंकि मेरा मूल प्रयास है कि कला साहित्य का एक संदर्भ हो। संदर्भविहीनता सामग्रीकरण की परिधि में बंध कर न रह जाए। रंगों व शब्दों के परस्पर प्रयोग के माध्यम से समकालीन भारतीय सोच व संदर्भ में सार्थकता पाई है।
(नोट-एक पुरानी बातचीत की अत्यंत विलम्ब से प्रस्तुति)
सुपरिचित युवा कवि और चित्रकार शिवनारायण सिंह अनिवेद मानव संसाधन मंत्रालय में उपसचिव हैं। दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में उनकी कला की एकल प्रदर्शनी कास्मिक सैलिब्रेशन लगी, जिसने उन्हें चर्चाओं के बीच ला खड़ा किया। कास्मिक सैलिब्रेशन नाम से उनकी एक पुस्तक भी आई है जिसमें उनकी पेंटिंग और हिन्दी कविताएं अंग्रेजी में अनुवाद और उनके कला व काव्य मर्म को उद्घाटित करने वाली टिप्पणियों के साथ आई। उन्हें पेंटिंग के लिए ललित कला अकादमी का पुरस्कार भी मिल चुका है। वे इधर कलकत्ता आए थे। प्रस्तुत है उनसे साहित्य, कला और प्रशासकीय कर्म के बारे में बातचीत-
- विज्ञान और कला दो विभिन्न धाराएं मानी जाती हैं। यहां तक कि एक को दूसरे के विपरीत दिशा वाली भी लगती है। आप तो फिजिक्स के छात्र रहे हैं। एक कलाकार के नाते आपका क्या अनुभव रहा?
सभ्यता के शुरुआत में जाएं। 50 हजार साल पहले वर्तमान मानव का प्रारंभिक दौर वह रहा। उसका मानव मन, कवि हृदय क्या विजुअलाइज करता था या सोचता था। मानव मन की टकराहट अपने आस-पास की प्राकृतिक दुनिया से हुई। उसके अंदर दो प्रतिक्रियाएं हुई। भय और आस्था की। संशय की प्रतिक्रिया हुई तो उसने विज्ञान (भौतिक शास्त्र) को जन्म दिया। आस्था की जो प्रतिक्रिया जन्मी उसने कला-साहित्य को जन्म दिया। मानव मन की जो मुख्य धाराएं हैं भय और आस्था। भय की जो मूल मानव दृष्टि है वह आज भी बरकरार है। हालांकि मुमकिन है आज जो भय की वजहें हैं उनका कारण कल विज्ञान ढूंढ लेगा। लेकिन तब नए भय भी होंगे। वे भय विज्ञान की प्रगति से उपजे भी हो सकते हैं। अर्थात एक ओर तो विज्ञान और वह नए भय भी पैदा कर रहा है। विज्ञान निर्भय नहीं कर रहा। दूसरा क्षेत्र आस्था का है। वही मनुष्य की सर्जनात्मकता को बचाए हुए है।
इस तरह देखा जाए तो मानव मन में जो फिजिक्स सेंस है, जो विजुअल आर्ट से जुड़ा है। विज्ञान और कला दोनों एक- दूसरे के निषेध बिन्दु पर नहीं, बल्कि पूरक ही है। एक बात यहां यह उल्लेखनीय है कि विज्ञान की सीमा है। कला विज्ञान से आगे चली जाती है। मूल विषय ज्ञान है। कला के मूल में आत्मा है। आत्मा से उपजी सर्जना है, विज्ञान से अधिक स्थायी व गहरी।
- आत्मा की बात आप कह रहे हैं। क्या आप आध्यामिकता पर विश्वास करते हैं?
आत्मा जिसे हम कहेंगे, सोचे-समझें। वह मिथिकल नहीं है। उसे आध्यात्मिक शक्ति कहें। सही ढंग से अंग्रेजी में कहूं कि इमोशनल स्ट्रेंथ ऑफ ह्यूमन बिइंग से हैं। तमाम बाहरी दुनिया की अबूझ चीजों को समझने के लिए बेहतर भौतिक दुनिया बनाने की आवश्यकता है। भय से बाहर आतंक से मानव निजात पाने के लिए अग्नि का आविष्कार हुआ। भोजन की व्यवस्था हुई। वही विज्ञान यात्रा न्यूटन से होती हुई, रोबोट, कम्प्यूटर से इंटरनेट तक पहुंची है। मगर यह नहीं भूलना होगा कि विज्ञान के भय या संत्रास का संतुलन पैदा करने के लिए आस्था से उपजी सर्जनात्मक कला और साहित्य की बेहद जरूरत है।
- विज्ञान और कला का योगदान क्या एक ही तराजू में तौला जा सकता है। दोनों के योगदान में भिन्नता क्या है?
विज्ञान ने सभ्यता का विकास किया, जबकि कला ने संस्कृति का। दोनों के बीच संतुलन का बिगड़ना ही मानव जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजडी है। खुद मेरी कला की सोच का मूल बिंदु यही है। प्रकृति व अन्य जीवों का जो गैर भौतिक पहलू है वह जाग्रत है। मार्क्स ने उसे सुपर कांसेस मटेरियल कहा है। वही मानव है। एक संवेदनशील मानव कितना ही विज्ञान का प्रखर समर्थक हो बार-बार लगता है कि मानवीकरण की जो प्रक्रिया है वह संस्कृति ही हो सकती है। मेरा मानना है साइंसेस मार्डनाइज द सोसाइटी, सोसल साइंस मार्डनाइज द ह्ययूमन बीइंग, एंड आर्ट एंड कल्चर ह्ययूमनाइज द ह्ययूमन।
- आपकी कला में अमूर्तन दिखाई देता है, जबकि भारतीय संस्कृति की बात करतें हैं, जबकि अमूर्तन के बारे में आम अवधारणा यह है कि यह पश्चिमी कला शैली है।
यह भ्रांत धारणा है कि अमूर्तन पश्चिमी कला शैली है। अमूर्तता का सबसे पुराना उदाहरण शिवलिंग है। वह भारत में मिला। भारत के पुरातात्विक अवशेष हैं फैलस। वही सबसे पुराना है। हिन्दुस्तान के हर कोने में इस अमूर्त बिंब के प्रति जो आम भारतीयों की आस्था है, उससे मैं प्रभावित रहा। इससे लगातार प्रेरित हुआ कि जो अमूर्तता का इतना शक्तिशाली प्रमाण कला व संस्कृत में भारतीय चित्रकला अमूर्त रही है। वैनगाग के बजाय हमें अपनी कला की ओर ध्यान देना होगा। फैलस को ही मैं कला की अमूर्तता का आधार मानता हूं। आस्था से जुड़ा पहलू प्रभावित करता है। वह धार्मिक उपयोग की शै नहीं है। भारतीय किसानों की पृथ्वी के प्रति उपजाऊपन की आस्था का प्रतीक है। देश के कोने-कोने की जनजातियों में लिंग या शिवलिंग का फर्टीलिटी कल्ट के रूप में प्रमाण पाया गया है। मानव की उत्पत्ति विकास हरास से जुड़ा हुआ है। लिंग या फैलस मानव, जीव और पौधों की उत्पत्ति का प्रमाण है। संस्कृति के जीवन में शिवशक्ति इस सोच की एक समकालीन व्याख्या करती है।
- तंत्र-मंत्र के बारे में आपकी क्या धारणा है?
भारतीय कला के कलात्मक प्रमाण के तांत्रिक या धार्मिक प्रयोग को व्याख्या दे दी गई है। 200 सालों के उपनिवेशिक शासन ने भ्रम खड़ा किया है। धार्मिक या तमाम आग्रहों को समयलीन नहीं रहने दिया। शुरू से समकालीन रहा है। कोणार्क या खजुराहो जीवन के उत्सव को अभिव्यक्त करते हैं। दर्द, पीड़ा, वेदना सब में है। भारतीय कलात्मक मूर्ति चित्रों के उत्सव के रूप में व्यक्त करता है। रहस्य-सा बना है। विदेशियों के लिए समझ पाने की कमी ने भ्रम पैदा करने वाले विशेषण दिए हैं। प्रजातांत्रिक दौर में बंधन नहीं काल्पनिकता है। दो धाराएं सोच की रही है। इंटरनल अर्ज एक्सप्रेशन पाता है।
गांव अपने आस-पास के समाज व्यवस्था की जो अभिव्यक्ति है शब्दों के माध्यम से अधिक हो पाती है। रंगों से आप प्रभावकारी बयान दे सकते हैं। बाहर दुनिया के बारे में उसी रूप में संप्रेषित करना उस बात को उसी तरह से पहुंचना शब्द से हो पाता है। चूंकि मेरा मूल प्रयास है कि कला साहित्य का एक संदर्भ हो। संदर्भविहीनता सामग्रीकरण की परिधि में बंध कर न रह जाए। रंगों व शब्दों के परस्पर प्रयोग के माध्यम से समकालीन भारतीय सोच व संदर्भ में सार्थकता पाई है।
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