Wednesday, 4 September 2013

अपनी गज़लों के लिए भी अलग से पहचाने जायेंगे महेंद्र शंकर

समीक्षा

-डॉ.अभिज्ञात

पुस्तक का नाम-मतला अर्ज़ है/लेखक-महेंद्र शंकर/प्रकाशक-प्रज्ञा प्रकाशन, 1/सी/4 शिमला शतघड़ा रोड, एक्सटेंशन रिसड़ा, पो.-प्रभास नगर, जिला-हुगली-712249/मूल्य-60 रुपये 

सुपरिचित नवगीतकार महेंद्र शंकर 'मंदिर में शंख बजे' के प्रकाशन के साथ खासे चर्चित हुए थे। इस संग्रह के लिए उन्हें उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ का पुरस्कार भी मिला था। उनके मरणोपरांत उनकी गज़लों का संग्रह आया है-मतला अर्ज़ है। इस संग्रह से उनके काव्य व्यक्तित्व को एक नयी आभा और एक और विशिष्ट पहचान बनती है। उनके प्रशंसकों के लिए यह संग्रह एक नायाब उपहार है। अपने समय की लोकप्रिय पत्रिका 'वासंती' के जरिए उन्होंने साहित्यकारों की एकाधिक पीढ़ी तैयार की थी, जो न सिर्फ़ उनके सम्पादन से रचनात्मक ऊर्जा प्राप्त करती रही, बल्कि मार्गदर्शन भी पाया। उन्होंने 'त्रिविधा' पत्रिका का भी सम्पादन किया था। इस प्रकार अपनी रचनात्मक मेधा से उन्होंने साहित्य की सेवा भी की और साहित्य कर्म को संजीदगी से लेने वालों की जमात भी तैयार की। उन्हीं के एक शेर से यह बात कही जाये तो-'चूम ले एक खार हौले से। पूरी टहनी गुलाब हो जाये।'
महेंद्र जी के योगदान की चर्चा करते हुए प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह का कहना है कि 'नयी कविता के समय के कवि महेंद्र लोक जीवन के सभी पक्षों को उजागर करने वाले प्रगतिशील चेतन के अकेले तेज कवि थे।..लिखना तो उन्होंने 1950 के बहुत पहले से शुरू किया था लेकिन 1957 से नवगीत के एक समर्थ कवि के रूप में उन्हें स्वीकृति मिली।' महेंद्र शंकर के रचनात्मक योगदान की चर्चा करते हुए कवि शलभ श्रीराम सिंह ने कहा है कि महेंद्र के गीत लोक शिल्प व लोक शब्द तथा लोक बिम्बों के कारण अति बौद्धिकता से बच गये हैं। वहीं मृत्युंजय उपाध्याय का मानना है कि उनके नवगीतों में भाव, विचार, बुनावट, भाषा के नये शब्दों का प्रयोग तथा बिम्बों का बड़ा ही अद्भुत मगर सहज प्रयोग हुआ है।
महेंद्र शंकर ने लगातार अपनी रचनात्मक परिधियों का विस्तार किया और नयी रचनात्मक चुनौतियों से लोहा लेते रहे। उन्होंने कहानियां, $गज़लें और मुक्त छंद की कविताएं भी लिखीं। उनकी बहुत सी रचनाएं पुस्तकाकार प्रकाशित नहीं हैं। यह सुखद है कि उनके रचनाकार सुपुत्र एस आनंद ने उनकी गज़लों के इस संग्रह के प्रकाशन का उपक्रम किया और आशा है वे उनकी अन्य कृतियों को भी प्रकाशित कराने का बीड़ा उठायेंगे।
मौजूदा संग्रह में महेंद्र जी की गज़लों में मौसम की चिन्ता रेखांकित करने योग्य है। उनके कई शेरों में यह व्यक्त हुई है, यथा- 'मौसम का क्या मिजाज है, कुछ कह नहीं सकते/किस ओर का परवाज है कुछ कह नहीं सकते। कितनी गरज, तड़प है आकाश के भीतर/किस पर गिरेगी गाज कुछ कह नहीं सकते।' एक अन्य $गज़ल का शेर देखें-'मौसम के मन में चोर, फूल अनखिले रहे/ हर ओर अजब शोर फूल अनखिले रहे।' 
महेंद्र की गज़लों में भले उर्दू शब्दों को भी प्रयोग हुआ है किन्तु उनकी भावभूमि और मुहावरेदारी हिन्दी कविता की ही है। इस मामले में वे दुष्यंत और चंद्रसेन विराट, नीरज जैसों की परम्परा में हैं-'एक परिचित स्वर विजन में पास आ जाये तो क्या हो/साथ का छूटा मुसाफिर साथ पा जाये तो क्या हो। पेड़ से लिपटी हुई है छांह बेसुध चांदनी में/चांद पर यदि बादलों का रंग छा जाये तो क्या हो।' एक अन्य गजल़ की बानगी देखें- 'इतना वक्त कहां है कि तुमसे बात करें/बिना नैवेद्य चलें और बारात करें। नरसी मेहता की तरह हममें चमत्कार नहीं/गर्म जल शीत करें, जर की बरसात करें।' महेंद्र जी की गज़लों में मौजूदा वक्त की विसंगतियां भी व्यक्त हुई हैं और नर्म खयाल भी। धड़कता हुआ दिल भी है और टीस और विरह भी। संग्रह में अन्नामलाई पर्वत पर लिखी गयी रुबाइयां अलग से पाठक का ध्यान आकृष्ट करती हैं।

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