Thursday, 13 May 2010

मन मोहा आलोक श्रीवास्तव की शायरी ने



कोलकाता: आलोक श्रीवास्तव ने अपनी गज़लों, नज्मों और दोहों से कोलकाता के प्रबुद्ध श्रोताओं का मन मोह लिया। खास तौर पर अपने काव्य संग्रह आमीन की रचनाएं उन्होंने भारतीय भाषा परिषद की ओर से आयोजित अपने सम्मान में आयोजित गोष्ठी में सुनायी। यह कार्यक्रम रविवार 9 मई को सम्पन्न हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता कवि शैलेन्द्र और संचालन परिषद के निदेशक और आलोचक डॉ.विजय बहादुर सिंह ने किया। उन्होंने जो दोहे सुनाये उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
उजली-उजली देह पर, नक़्क़ाशी का काम
ताजमहल की ख़ूबियां, मज़दूरों के नाम
मां-बेटे के नेह में एक सघन विस्तार
ताजमहल की रूह में, जमना जी का प्यार
आँखों में लग जाएँ तो, नाहक़ निकले ख़ून,
बेहतर है छोटे रखें, रिश्तों के नाखून।
उनकी जिस गजल ने अच्छा समां बांधा वह है-
सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अंधेरी रतियाँ,
के' जिनमें उनकी ही रोशनी हो, कहीं से ला दो मुझे वो अँखियाँ।
दिलों की बातें, दिलों के अंदर, ज़रा-सी ज़िद से दबी हुई हैं,
वो सुनना चाहें ज़ुबाँ से सब कुछ, मैं करना चाहूँ नज़र से बतियाँ।
ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है,
सुलगती-साँसे, तरसती-आँखें, मचलती-रूहें, धड़कती-छतियाँ।
उन्हीं की आँखें, उन्हीं का जादू, उन्हीं की हस्ती, उन्हीं की ख़ुशबू,
किसी भी धुन में रमाऊँ जियरा, किसी दरस में पिरो लूँ अँखियाँ।
मैं कैसे मानूँ बरसते नैनो के' तुमने देखा है पी को आते,
न काग बोले, न मोर नाचे, न कूकी कोयल, न चटखीं कलियाँ ।

1 comment:

  1. आलोक की यह रचना ख़ूब सुनी हुई है। यह उनके लिए उसी तरह की रचना हो गई है जैसे कुमार विश्वास के लिए "भ्रमर कोई कुमुदिनी पर…"
    ऐसी अच्छी रचनाओं के साथ यही ख़राबी है कि बार-बार दुहराए जा कर ये रचनाकार को "टाइप्ड" बना देती हैं, फिर उसी रचना का आश्रित और अन्तत: ख़ुद बरगद की तरह फैल कर अन्य अंकुरों को पनपने नहीं देतीं।
    बहरहाल - आपकी अच्छी पोस्ट पर बधाई।
    मुझे यह जिज्ञासा बनी है कि आप कैसे पहुँचे मेरे ब्लॉग तक - न जाने!

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